प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोगों को यह समझाने में सफल हो चुके हैं कि वे उनके लिए कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो पहले किसी ने नहीं किया। तीन साल के बाद भी वे लोगों को इस तरह का संदेश देने में सफल हैं, हालांकि इतने दिनों में सरकार ने कोई बड़ी समस्या हल नहीं की है।
देश भयंकर बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रहा है और यह समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। गौरक्षक देश के अनेक हिस्सों में आतंक फैला रहे हैं। कश्मीर घाटी मे हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है। दलितों पर हमले भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। चीन के साथ संबंधों में तनाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं और पाकिस्तान के साथ तो राजनयिक स्तर पर बातचीत भी नहीं हो पाने की स्थिति पैदा हो गई है।
क्या विपक्ष एकताबद्ध हो भी पाएगा? 1977, 1989, 1996 और 2004 में विपक्ष में एकता हो गई थी। पिछले लोकसभा चुनाव में एकता ढह गई थी। नेताओं के अहंकार, उनकी महत्वाकांक्षाएं, क्षेत्रीय राजनीति के अंतर्विरोध और बदलते राजनैतिक समीकरण राष्ट्रीय स्तर पर किसी प्रकार के महागठबंधन बनाने के प्रयासों को कमजोर और नाकाम कर रहे हैं।
पिछले दिनों एकता के कुछ प्रयास हुए हैं कुछ हद तक सफलता भी मिलती दिखाई दे रही है, लेकिन वह एकता विश्वसनीय नहीं है। 17 दलों ने मीरा कुमार को अपना संयुक्त उम्मीदवार राष्ट्रपति चुनाव में बनाया है। लेकिन इसके साथ कुछ अप्रिय घटनाएं भी घटी हैं। जैसे- नीतीश कुमार ने अपने आपको इससे अलग कर लिया और वे राजग के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर रहे हैं।
जबकि विपक्ष द्वारा एक संयुक्त राष्ट्रपति उम्मीदवार उतारने के पैरोकार नीतीश ही थे। पर जैसे ही कोविंद के नाम की घोषणा राजग की तरफ से हुई, नीतीश कुमार ने यह कहते हुए पलटी मार ली की कोविंद के साथ उनका संबंध बहुत अच्छा था और बिहार के राज्यपाल की हैसियत से उन्होंने कभी ऐसा कुछ भी नहीं किया, जो उन्हें नागवार गुजरता, जबकि मोदी सरकार द्वारा नियुक्त अन्य अधिकांश राज्यपाल गैरभाजपाई सरकारों के साथ अच्छे तरीके से पेश नहीं आ पा रहे हैं।
नीतीश कुमार ने न केवल राष्ट्रपति के मुद्दे पर अपनी अलग डफली बजाई, बल्कि जीएसटी के लिए होने वाले विशेष सत्र के बहिष्कार में भी अन्य विपक्षी दलों का साथ नहीं दिया। सिर्फ नीतीश ने ही नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी और एनसीपी ने भी अन्य विपक्षी दलों से किनारा करते हुए सत्र में हिस्सा लिया और इससे यह संदेश गया कि विपक्षी एकता अभी भी दूर की कौड़ी है।
विपक्षी एकता के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी एक चेहरे पर सर्वसम्मति नहीं बन पा रही है। वह चेहरा कौन होगा- यह सवाल अपना जवाब नहीं पा रहा है। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के अलावा अन्य अनेक क्षेत्रीय नेता हैं, जिनकी अपनी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। नीतीश, लालू, ममता, नवीन, मुलायम, माया, देवेगौड़ा जैसे अनेक नेता हैं, जिनकी अपनी अपनी महत्वकांक्षांए हैं।
कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और इसका विस्तार पूरे देश में है। लेकिन यह अब बहुत कमजोर हो चुकी है, इसलिए यह अपनी बात अन्य दलों के नेताओं से मनवाने की स्थिति में नहीं है। राहुल गांधी इसके शीर्ष नेता हो सकते हैं, लेकिन अन्य विपक्षी दलों को भी राहुल प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में स्वीकार्य हो जाएं, ऐसा संभव नहीं लगता, क्योंकि राहुल ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी वैसी कोई छाप नहीं छोड़ी है, जिससे वे नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपने आप को स्थापित कर सकें।
यही कारण है कि इस समय नरेन्द्र मोदी के सामने कोई चुनौती पेश करने वाला नहीं दिखाई दे रहा है। (संवाद)
क्या विपक्ष मोदी के खिलाफ एक हो पाएगा?
अभी तो लक्षण ठीक नहीं हैं
कल्याणी शंकर - 2017-07-05 10:02
विपक्षी पार्टियों में यह मान्यता बनती जा रही है कि यदि वे सब एक नहीं हुईं, तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। लोकतंत्र में एक प्रभावी विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। यही कारण है कि गैर राजग पार्टियां आपस में एकताबद्ध होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन इसके रास्ते में उनके सामने अनके प्रकार की बाधाएं भी आ रही हैं।