उस नतीजे ने कथित महागठबंधन को दो लगभग तीन चैथाई का बहुमत दे दिया था, लेकिन उसके साथ साथ एक ऐसा अंकगणित भी उस नतीजे ने तैयार कर दिया था, जिसके अनुसार यदि नीतीश भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहें, तो वह संभव हो जाय। नीतीश के विधायकों की संख्या 71 थी और भाजपा के विधायकों की संख्या 53। दोनों की संख्या मिलकर 124 हो जाती है, जो विधानसभा के बहुमत से दो ज्यादा है। इसलिए बिहार के राजनैतिक पर्यवेक्षकों को यह अहसास हो गया कि इस विधानसभा के जीवन काल में नीतीश का भाजपा के साथ सरकार बनाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
इस तरह के अनुमान का आधार यह था कि लालू और नीतीश का गठबंधन एक अस्वाभाविक गठबंधन था। लालू और नीतीश एक दूसरे क कट्टर राजनैतिक दुश्मन ही नहीं थे, बल्कि दोनों की विश्वदृष्टि में भी बहुत ही अंतर था। सच कहा जाय, तो दोनों की राजनीति की धारा भी अलग अलग बह रही थी। नीतीश की राजनीति गैरयादववाद की राजनीति थी, जबकि लालू की राजनीति का आधार ही यादववाद था। नीतीश के लिए सत्ता अपने आपकों ऐतिहासिक पुरुष बनाने की माध्यम था, तो लालू के लिए सत्ता अपार दौलत कमाने और अपने परिवार के लोगों को समृद्ध से समृद्धतर बनाने का माध्यम थी। नीतीश के लिए अपनी छवि महत्वपूर्ण थी, लेकिन लालू ने तो राजनीति ही अपनी छवि बिगाड़कर की थी। गौरतलब हो कि 1990 के शुरुआती वर्षों में लालू अपनी छवि बिगाड़कर ही राजनीति में मजबूती प्राप्त करते थे।
इसलिए यह साफ लग रहा था कि नीतीश लालू को छोड़कर भाजपा के साथ कभी भी सरकार बना सकते हैं। लेकिन यह बात लालू प्रसाद को समझ में नहीं आई और उन्होंने विधानसभा स्पीकर के पद पर दावा तक नहीं किया। उनकी पार्टी विधानसभा मंे सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन चुनाव नीतीश के चेहरे पर लड़ा गया था, इसलिए नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया जाना बिल्कुल उचित था, पर लालू यादव अपनी पार्टी के पास विधानसभा का स्पीकर पद तो रख ही सकते थे और नीतीश उन्हें वैसा करने से रोक भी नहीं सकते थे। लालू को छोड़कर भाजपा के खंभे से लटकने के क्रम में विधानसभा के स्पीकर की बहुत भूमिका होनी थी, लेकिन अपने पुत्रमोह में लालू ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।
कहते हैं कि नीतीश राजद को स्पीकर का पद देने के लिए तैयार थे, लेकिन लालू की चिंता स्पीकर का पद था ही नहीं। वह अपने दोनों बेटों को मंत्री बनाना चाहते थे और उनमें से एक के सिर पर उपमुख्यमंत्री पद का ताज देखना चाहते थे। नीतीश ने लालू की इस कमजोरी का लाभ उठाया और स्पीकर के पद पर एक ऐसे व्यक्ति को बैठाया, जो उनके बहुत ही विश्वसनीय थे। वैसे स्पीकर विजय चैधरी बहुत ही ईमानदार और नियमों के अनुसार चलने वाले नेता की छवि रखते हैं। इसलिए उनसे बेहतर स्पीकर शायद कोई और हो भी नहीं सकता था। लेकिन राजनीति के तकाजे का ध्यान रखते हुए और नीतीश के भाजपा के साथ पुराने संबंधों को याद रखते हुए लालू यादव को स्पीकर का पद अपने दल के पास रखना चाहिए था। पर उन्होंने वैसा नहीं किया और जो घटित होना था, उसकी संभावना को और भी मजबूत कर दिया।
लालू यादव एक तानाशाह की तरह अपनी पार्टी और सरकार चलाते हैं और नीतीश के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। जब एक सरकार को दो तानाशाही प्रवृत्ति का व्यक्ति तो अलग अलग उद्देश्य से सत्ता का इस्तेमाल करना चाहता हो, चलाए तो वह सरकार ज्यादा दिनों तक चल ही नहीं सकती थी। इसलिए दोनों के बीच पहले ही दिन से तनाव बनने लगा। पहला तनाव तो लालू के दोनों बेटों को मंत्री बनाने से शुरू हुआ। उसके बाद तो फिर संबंध कटु से कटुतर होते चले गए।
अपने बेटों को मिले मंत्रालय लालू खुद चला रहे थे। कई बार तो वह सरकारी कार्यक्रमों में अपने बेटे की जगह खुद जाकर फीता काट आते थे। इसलिए नीतीश सरकार जगहंसाई हो रही थी। मुख्यमंत्री के रूप मंे नीतीश कुमार की नजर सभी मंत्रालयों के निर्णयों पर होती थी। बिना उनके आदेश के कोई मंत्रालय बड़ा निर्णय कर ही नहीं सकता था। पर वे लालू के बेटों को मिले 8 मंत्रालयों के निर्णयों को बदल ही नहीं सकते थे। सच कहा जाय, तो उन मंत्रालयों पर लालू का राज चल रहा था। उन 8 मंत्रालयों पर ही नहीं, बल्कि राजद के मंत्रियो के मिले सारे मंत्रालय लालू के अधीन आ गए थे और मुख्यमंत्री के अपने निर्णयों मे भी लालू हस्तक्षेप करते थे।
सरकार के बड़े अधिकारी जितनी संख्या में नीतीश की हाजिरी लगाते थे, उससे ज्यादा संख्या में लालू की हाजिरी लगाया करते थे। सत्ता का दो केन्द्र बन गया था। नीतीश को वह पचाना आसान नहीं हो रहा था। उसके बाद बाद शाहबुद्दीन प्रकरण सामने आया। वे जमानत पर रिहा हो गए। संदेश गया कि सरकार ने उनकी जमानत का कारगर विरोध नहीं किया, क्योंकि लालू वही चाहते थे। जेल से निकलते ही शाहबुद्दीन ने नीतीश कुमार का परिस्थितियों का मुख्यमंत्री करार दिया और कहा कि नेता तो लालू यादव ही हैं। नीतीश की चैतरफा थू थू होने लगी। उनकी सहनशीलता की सीमा समाप्त हो गई। उसके बाद तो उन्होंने लालू से पिंड छुड़ाने का मन बना ही लिया। शाहअबुद्दीन को नीतीश ने फिर जेल के अंदर भेजा। और फिर वह आॅपरेशन शुरू हुआ, जिसका नतीजा भाजपा के साथ गठजोड़ के रूप में सामने आया।
लालू और नीतीश का गठबंधन सुविधा का गठजोड़ था। दोनों के सामने राजनैतिक मौत खड़ी थी। जिंदा रहने के लिए दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ लिए और मौत को पटकनी दे डाली। लेकिन जिंदगी बचने के बाद दोनों अपने अपने तरीके से जीना चाह रहे थे। उसी चाह में नीतीश ने भाजपा का दामन थाम लिया है। इसे किसी विचारधारा के खिलाफ या पक्ष में देखना गलत है। (संवाद)
बिहार में नीतीश की नई सरकार
लालू के साथ निभाना आसान नहीं था
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-07-31 13:12
बिहार में अंततः वही हुआ, जिसे होना था। नीतीश कुमार लालू से अलग हो गए और भाजपा से मिलकर उन्होंने सरकार बना ली। सच कहा जाय, तो इसकी पृष्ठभूमि 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे निकलने के साथ ही तैयार हो गई थी।