वैचारिक स्तर पर देखें तो तो द्रविड़ राजनीति हिंदुत्व की विचारधारा का विलोम है और इसका उस स्तर पर कहीं भी मेल नहीं हो सकता। दूसरा, तमिलनाडु की राजनीति का बड़ा आधार केंद्र का विरोध रहा है। दोनों नजरिए से भाजपा के लिए रास्ता आसान नहीं दिखाई देता है। फिर , भाजपा के इस आत्म विश्वास के क्या कारण हैं?
इस आत्मविश्वास के तात्कालिक कारण तो साफ हैं। जैसा कि आमतौर पर होता है, करिश्माई नेता के निधन के बाद एक शून्य पैदा हो जाता है। जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में भी ऐसा ही शून्य पैदा हो गया है। जयललिता और करूणानिधि तमिलनाडु की राजनीति के दो ध्रुव रहे हैं और उनकी वजह से कोई तीसरा ध्रुव उभर नहीं पाया। जयललिता के एकाएक परिदृश्य से ओझल होने के बाद यह दो ध्रुवीय स्थिति खत्म हो गई है। एक ध्रुव पर शून्य है और इसे भरने की कोशिश की जा रही है।
इससे रिक्त हुए स्थान को भरने की कोशिश शशिकला ने की थी। उन्होंने जयललिता के तौर-तरीके अपना कर यह काम शुरू किया था। लेकिन जयललिता के विश्वास पात्र ओ पन्नीरसेल्वम के ही विरोध का सामना उन्हें करना पड़ा। शशिकला ने जयललिता के विरासत के इर्द-गिर्द जो मायाजाल खड़ा किया था, वह कुछ दिन और चलता तो अन्ना द्रमुक शायद पार्टी के रूप में बच जाती, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। उनका जेल में बंद हो जाना एक बड़ी विपत्ति के रूप में सामने आया। उनके करीबी रिश्तेदार टीटीवी दिनाकरन ने पार्टी पर नियंत्रण रखने की कोशिश की, लेकिन वे विफल हो चुके हैं। उनका विरोध
शशिकला की ओर से मुख्यमंत्री बनाए गए ई पलानीस्वामी ही कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ने पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और पन्नीरसेल्वम के गुट से विलय की बातचीत चला रहे हैं। वे कभी इसे तेज कर देते हैं और कभी धीमा। उनकी रणनीति यह है कि पार्टी को इकðा रखा जाए और इसमें शशिकला तथा पन्नीरसेल्वम के अलग-अलग गुट हों ताकि उनके बीच के मतभेद के सहारे वह अपनी रोटी सेंक सकें।भाजपा ने पार्टी के तीनों घड़ों से अपना संपर्क साधा रखा है। वह एक तरह से मध्यस्थ का काम कर रही है। उसकी रणनीति यह है कि पार्टी एक हो जाए और उसे संरक्षण देकर द्रमुक के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाए। अन्ना द्रमुक की एकता से पार्टी को कोई परेशानी भी नहीं है क्योंकि करिश्माई नेतृत्व के अभाव में उसे अपने हित में चलाना आसान है। भाजपा की रणनीति अभी कारगर साबित हो रही है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति, दोनों के लिए अन्ना द्रमुक के तीनों धड़ों का समर्थन भाजपा को मिला।
लेकिन तमिलनाडु में भाजपा के प्रसार की कोशिश के सामने कई कठिनाइयां हैं। एक तो भाजपा के हिंदुत्व के लिए तमिलनाडु में वैसी जगह नहीं है जैसी उसे उŸार भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने की वजह से मिली हुई है। तमिलनाडु में मुसलिम विरोध वाला हिंदुत्व नहीं चल सकता है। वहां हिंदु धर्म पर विपŸिा का डर नहीं पैदा किया जा सकता। हिंदुत्व के मूल आधार ब्राह्मणी श्रेष्ठता के लिए भी वहंा जगह नहीं है क्योंकि द्रविड़ अस्मिता का सारा आंदोलन इसी के विरोध में है। वहां हिंदु धर्म की श्रेष्ठता के वे प्रतीक काम नहीं करेंगे जो उत्तर भारत मंे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए आसानी से इस्तेमाल हो जाते हैं। राम और गााय के प्रतीक भी वहां नहीं चल पाएंगे। वैसे भी, पिछड़ों का उभार हिंदु धर्म में जाति की श्रेष्ठता के खिलाफ हुआ है और तमिलनाडु की राजनीति की मुख्यधारा अभी भी इसी से सिंचित होती है।
लेकिन अन्ना द्रमुक के हाल के बिखराव और जाति आधारित पार्टियों के उदय के पिछले दो-तीन दशकों की परिघटना ने भाजपा को अपना आधार बनाने का अवसर दे दिया है। असल में, भाजपा उŸार भारत की अति पिछड़ी जातियों वाली राजनीति को दोहराने की कोशिश में है। द्रविड़ आंदोलन ने राज्य की उन्हीं पिछड़ी जातियों को ज्यादा हिस्सा दिलाया है जो सामाजिक रूप से ताकतवर रही हंै। इसमें थेवर जैसी जातियां प्रमुख रही हैं। राजनीति और सत्ता में कुछ ही पिछड़ी जातियों के इस बोलबाला के खिलाफ अस्सी के दशक में ही संघर्ष शुरू हो गया था और जाति विशेष की पार्टियों का उदय होने लगा था। एस रामदास ने वन्नियारों को आरक्षण देने का अंादोलन चलाया और पीएमके नाम की पार्टी बनाई। बाद में अलग-अलग जातियों की पार्टियांे, केएमडीके तथा वीसीके आदि का उदय हुआ। इस सामाजिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए शशिकला, जो खुद थेवर हंै, ने पलानीस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया जो गाउंडर जाति के हैं। इस जाति ने इन दिनों सत्ता में ताकत बनाने की मुहिम जोर से चला रखी है।
तमिलनाडु में पेरियार के ब्राह्मण विरोधी अांदोलन को चुनौती देने की आरएसएस की कोशिश लगातार के विफल होती रही है। लेकिन पिछड़ी जातियों के आपस में बंट जाने से यह अंादोलन कमजोर होने लगा है। आरएसएस कम ताकतवर पिछड़ी जातियों और दलितों के हिंदुकरण के जरिए द्रविड़ आंदोलन को चुनौती देने की कोशिश में है। यही वजह है कि प्रगतिशील लेखक पेरूमल मुरगन, जो गाउंडर हैं, के खिलाफ आंदोलन को आरएसएस ने खूब हवा दी। आरएसएस के विचारक एस गुरूमूर्ति इसमें आगे थे। मुरूगन को अपने ही समुदाय का कोपभाजन होना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास में इसकी एक परंपरा की धज्जियां उड़ाई थी। एक बार तो उन्होंने लेखन छोड़ने की घोषणा भी कर दी थी। भाजपा और आरएसएस द्रविड़ अंादोलन के ढहते किले पर भगवा ध्वजा फैलाने का दीर्घकालिक लक्ष्य रखते हैं। लेकिन अभी तो अन्ना द्रमुक के जरिए 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना है। तमिलनाडु के मोदीकरण की हवा इसीलिए फैलाई जा रही है। असल में, द्रविड संस्कृति के भगवाकरण की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश है। (संवाद)
द्रविड़ प्रदेश में भगवा: पेरियार के आंदोलन को हराने की चुनौती
अनिल सिन्हा - 2017-08-07 10:38
मीडिया यह भरोसा दिलाने में लगा है कि तमिलनाडु में भाजपा अपने पांव फैलाने में सफल होने वाली है और अब यह द्रविड़ राज्य मोदी की छत्रछाया में जाने वाला है। लंबे समय से द्रविड़ राज्य को हिदुंत्व के वैचारिक घेरे में लाने की कोशिश विफल होती रही है। लेकिन लोगों का दावा है कि मोदी-अमित शाह की जोड़ी 2019 के पहले इस किले को फतह कर लेगी। पता नहीं यह संभव है या नहीं, भाजपा जयललिता के निधन के बाद नेतृत्वविहीन अन्ना द्रमुक के जरिए तमिलनाडु के किले में प्रवेश करने की कोशिश में जरूर है।