हमारा रैंक र्वांडा जैसे गरीब देश के आसपास है। गौरतलब हो कि र्वांडा पिछले कई सालों से आंतरिक अव्यवस्था और युद्ध का शिकार है और इसके कारण वहां के 10 लाख से भी ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। हम अपने कई पड़ोसी देशों से भी इस मामले में नीचे हैं।

चीन का रैंक 29 है और नेपाल का 72ण् म्यांमार 77 वें स्थान पर है, तो श्रीलंका 84वें स्थान पर। बांग्लादेश की स्थिति भी भारत से बेहतर है और वह 88वें स्थान पर है। पिछले कुछ सालों में भारत की स्थिति इस मानक पर लगातार खराब होती गई है। जाहिर है, हमें इस पर शीघ्र ही गंभीर होना पड़ेगा, क्योंकि आहार का संबंध स्वास्थ्य से है।

हंगर इंडेक्स की गणना पौष्टिकता के स्तर, बच्चे की मृत्यु दर, बच्चे की कमर की नाप इत्यादि से होती है। इससे पता चलता है कि बच्चे किस तरह कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। यदि बच्चों को सही पोषण नहीं मिले, तो उनका सही विकास नहीं हो पाता है। उन्हें तरह तरह की बीमारियां होती है और मानसिक रूप से भी वे कमजोर हो जाते हैं।

1972 में भारत में गरीबी की एक परिभाषा तैयार की गई थी। उसके अनुसार शहरी इलाकों में 2100 कैलौरी को खरीदने मे जितना खर्च आता है, वह गरीबी की रेखा है। गांवों में 2400 कैलोरी पर आने वाले खर्च को गरीबी रेखा माना जाता है। गरीबी उन बड़ी समस्याओं में से एक है, जो अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों को समान रूप से आकर्षित करते हैं। गरीबी पोषण को प्रभावित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण कारक है। गरीबी से कुपोषण होता है और कुपोषण से उत्पादकता प्रभावित होती है।

स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार की जरूरत होती है। उस आहार में भोजन के सारे आवश्यक तत्व मौजूद होने चाहिएं। उसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, मिनरल्स और विटामिन्स होने चाहिएं। हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ये सब जरूरी हैं। इनकी कमी के कारण अनेक किस्म की बीमारियां पैदा होती हैं। ये बीमारियां शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक भी हो सकती हैं। इससे दिमाग कमजोर भी हो सकता है।

ग्रामीण इलाके में एक व्यक्ति को प्रतिदिन 48 ग्राम प्रोटीन और 28 ग्राम वसा की जरूरत होती है। शहरी इलाके में एक व्यक्ति को 50 ग्राम प्रोटीन और 26 ग्राम वसा की जरूरत होती है। सरकार ने गरीबी की जो रखा तय की है, उसके अनुसार शहर में एक व्यक्ति को 1407 सात रूप्यो प्रति महीने की आय चाहिए और गांवों में उसे 972 रुपये की मासिक आय चाहिए। अब कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं, वैसी स्थिति में गरीबी रेखा की यह परिभाषा दोषपूर्ण है। और जिंदा रहने के लिए सिर्फ खाने पर ही खर्च नहीं होता है। इसलिए इस परिभाषा में अविलंब बदलाव की जरूरत है। (संवाद)