हमारे देश में दोनों प्रकार की परंपराएं चल रही हैं। एक परंपरा असहिष्णुता की है और दूसरी परंपरा सहिष्णुता की। सहिष्णुता की परंपरा सदियों पुरानी है। हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों में बहस और वाद-विवाद का प्रावधान है। शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ हमारी बड़ी धरोहर है। यद्यपि हमारे देश का आदि धर्म सनातन है परंतु उसके बावजूद हमारे देश में बौद्ध, जैन और सिक्ख धर्मों और अनेक पंथों ने जन्म लिया। यद्यपि इन विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच यदाकदा संघर्ष होता रहा है परंतु इन संघर्षों के बावजूद, इन सारे धर्मों का अस्तित्व अभी तक कायम है।
यह हमारे देश की धरती ही है जिसने कबीर को सराहा। कबीर ने सभी धर्मों के ढांेगियों का सार्वजनिक रूप से मज़ाक उड़ाया। एक ओर उन्हांेने कहा कि कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्ज़िद बना ली गई और उस पर चढ़कर मुल्ला बांग दे रहा है। क्या खुदा बहरा हो गया है। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने कहा कि यदि पत्थर को पूजने से ईष्वर मिल सकता है तो क्यांे न मैं पहाड़ की पूजा करूं। उनके इतने कटु शब्दों के बाद भी न तो हिन्दुओं ने उन्हें मारा और ना ही मुसलमानांे ने।
आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी विभिन्न प्रकार के विचार प्रकट होते रहे। सुभाषचन्द्र बोस और भगत सिंह को कोई भी साधन (हिंसक या अहिंसक) अपनाकर आज़ादी हासिल करने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं थी। इसके विपरीत गांधी जी केवल अहिंसा के रास्ते स्वाधीनता को हासिल करने के हामी थे। परंतु इस वैचारिक मतभेद के बावजूद ये सब एक-दूसरे का सम्मान करते रहे।
वैचारिक सहनशीलता का इससे ज्यादा अद्भुत उदाहरण और कोई नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज़ादी के बाद वैचारिक सहनशीलता मंे कमी आई है। इसी मध्यप्रदेष में गजानन माधव मुक्तिबोध की पुस्तक को प्रतिबंधित किया गया था। इसी तरह विमल मित्र की एक कहानी को प्रतिबंधित किया गया था। फिर सलमान रूष्दी के उपन्यास को हमने प्रतिबंधित किया। बंबई में तो शिवसेना पाकिस्तानी गायकों को उनका कार्यक्रम करने ही नहीं देती थी। पाकिस्तानी क्रिकेटरांे को वहां खेलने की इजाज़त नहीं थी।
इसके ठीक विपरीत जब सलमान रूश्दी ने ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती मार्गरेट थेचर से शरण मांगी तो उन्होंने उनके विरोध के बावजूद उनको शरण दी और कहा कि यदि सलमान रूश्दी का एक बूंद खून भी ब्रिटेन मंे बहेगा तो वह ब्रिटिश प्रजातंत्र के लिए शर्म की बात होगी। यह है अत्यधिक परिपक्व लोकतांत्रिक देश का उदाहरण।
जो लोग पद्मावती का विरोध कर हैं उन्हें यह देखना चाहिए कि टीवी के अनेक चैनलों पर झूठ बोला जा रहा है। इतिहास को तोड़मरोड़ कर अश्लील चीज़ें परोसी जा रही हैं, पर कौन उनका विरोध कर रहा है। चंद्रगुप्त पर दिखाए जा रहे एक सीरियल में चंद्रगुप्त की कूटनीतिक प्रशासनिक क्षमता पूरी तरह गायब है। उसके विपरीत उन्हें एक घटिया दर्जे के राजा के रूप में पेश किया जा रहा है। जिस राजस्थान में पद्मावती का विरोध हो रहा है उसी राजस्थान में इतिहास को तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है वह भी पाठ्यपुस्तकों में।
वहां यह बताया जा रहा है कि महाराणा प्रताप ने अकबर को हल्दी घाटी के युद्ध में हरा दिया था। जो लोग ऐसा दावा कर रहे हैं उन्हें शायद ज्ञात नहीं होगा कि उदयपुर का राजघराना प्रतिवर्ष एक ऐसा आयोजन करता है जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान किया जाता है जिसने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए काम किया हो। यह सम्मान महाराणा प्रताप के सबसे विश्वासपात्र मुस्लिम कमांडर की याद में किया जाता है। उसका सम्मान इसलिए किया जाता है क्योंकि उसने अपनी जान जोखिम में डालकर एक मुस्लिम राजा अकबर के विरूद्ध महाराणा प्रताप का साथ दिया था।
दोस्तों, प्रजातंत्र की जड़ें उसी देश में मज़बूत होती हैं जिस देश में वैचारिक, कलात्मक और साहित्यिक उदारता की जड़ें मज़बूत रहती हैं। एक तरह हम गोडसे का मंदिर बना रहे हैं और दूसरी तरफ पद्मावती का विरोध कर रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि पद्मावती पर पहले भी फिल्में बन चुकी हैं। पद्मावती पर पहली मूक फिल्म ‘कामोनर अगुन’ 1930 में बनी थी, जिसमें देवकी बोस ने काम किया था। 1963 में तमिल में चित्तौड़ ‘रानी पद्मावती चित्रापु’ नारायणा राव ने बनाई थी। उसमें शिवाजी गणेशन और वैजयंतीमाला लीड रोल में थे। क्या करणी सेना को मालूम है पद्मावती का रोल निभा रही वैजयंतीमाला ने उसमें डांस किया या नहीं था? वैजयंतीमाला जीवित हैं और उनकी नाक भी सही सलामत है। करणी सेना का जन्म 2006 में हुआ, उससे पहले पद्मावती पर 1964 में अनीता गुहा ‘महारानी पद्मिनी’ में काम कर चुकी हैं। श्याम बेनेगल भी भारत एक खोज में पद्मावती से जुड़े इतिहास के इस हिस्से को दिखा चुके हैं। 25 मई से 13 अगस्त 2009 तक ‘रानी पद्मिनी का जौहर’ नाम से टीवी शो सोनी पर दिखाया जा चुका है।
पद्मिनी यानी पद्मावती का जन्म सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के 224 साल बाद (सन 1540 में चित्तौड़ से काफी दूर अवध क्षेत्र के जायस नामक स्थान) के कवि मलिक मोहम्मद जायसी की कविताओं में हुआ। तथ्य यह है कि खिलजी ने सन 1303 में चित्तौड़ के राणा रतन सिंह को बुरी तरह हराया। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु 1316 में हुई।
मुंह देखने वाले दर्पण का अविष्कार 14वीं सदी में हुआ, सिल्वर कोटिड दर्पण 1508 में इटली में पहली बार बना। तो यह 12वीं सदी में अल्लाउद्दीन खिलजी को पद्मावती का मुंह दिखाने हेतु दर्पण कहाँ से पैदा हो गया? यह एक और सबूत है कि पद्मावती की कहानी काल्पनिक है। पद्मावती की कहानी में सिर्फ 2 ही ऐतिहासिक तथ्य हैंः एक, खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और दूसरा, राणा रतन सिंह की बुरी तरह पराजय। अल्लाउद्दीन खिलजी आया था, उसने चित्तौड़ भी जीता था चित्तौड़ का अष्टधातु दरवाजा तोड़ के दिल्ली भी ले गया था परन्तु पद्मावती-अल्लाउद्दीन खिलजी वाला किस्सा हकीकत नहीं। अपितु यह किस्सा (मलिक मुहम्मद जायसी) की महान (काल्पनिक रचना-‘पद्मावत’) से लिया गया है।
अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती नाम की ’नारी’ नहीं, बल्कि पद्मावती नाम की ’नगरी’ (बपजल) जीती थी।
नायिका पद्मावती’ का रूपांकन (अलाउद्दीन खिलजी के कोई 225 साल बाद) में मिलता है और ’नगरी पद्मावती’ का रूपांकन खजुराहो अभिलेख में (अलाउद्दीन खिलजी के कोई 250 साल पहले) मिलता है। पद्मावती नगरी की पहचान ग्वालियर के समीप पद्मपवैया स्थान से की गई है, जिस इलाके को अलाउद्दीन खिलजी ने 1305 ई. में जीता था। (संवाद)
बेमानी है पद्मावती पर विवाद
इस रानी का ऐतिहासिक वजूद नहीं
एल.एस. हरदेनिया - 2017-11-29 12:16
इस समय संजय लीला भंसाली द्वारा निर्मित फिल्म पद्मावती पर सारे देश में कोहराम मचा हुआ है। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उनमें से लगभग किसी ने इस फिल्म को नहीं देखा है।