आखिर जम्मू कश्मीर विधानसभा में उस पार की सीटें खालीं रखीं गईं हैं। इसके पीछे सोच यही है कि जिस दिन वह क्षेत्र फिर भारत के साथ जुड़ेगा, वहां के भटके लोग पुनः भारत के नागरिक बनेंगे चुनाव द्वारा ये सीटें भर दी जाएंगी। इस दृष्टिकोण से विचार करें तो जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का प्रस्ताव एवं केन्द्र द्वारा उसकी स्वीकृति सही दिशा में उठाया गया कदम है। गृहमंत्रालय द्वारा राज्य सरकार को योजना की रूपरेखा बनाने के लिए कहने का अर्थ ही है सरकार आगे कदम बढ़ा रही है।

हालांकि इस मामले की प्रगति चौंकाने वाली है। उमर अब्दुल्ला का बयान आने के तुरत बाद जिस तरह गृह मंत्री ने समर्थन करते हुए कहा कि भटके हुए युवक वापस आना चाहते हैं तो सरकार उनका स्वागत करेगी, उससे यह प्रश्न पैदा हुआ है कि आखिर यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया? ध्यान रखने की बात है कि प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए गठित कार्य समूह ने भी यही सिफारिश की थी। वास्तव में यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि पहले से ही विचार- विमर्श के बाद सरकार का मन बन चुका था एवं उमर अब्दुल्ला ने पहले बयान देकर राजनीतिक श्रेय लेने की रणनीति अपनाई है। क्या यह संभव है कि जम्मू कश्मीर जैसे जटिल और संवेदनशील मामले पर मुख्यमंत्री ऐसा युगांतरकारी प्रस्ताव लाएं और गृहमंत्री तुरत हामी ही नहीं भरें, यह कहें कि इसे अमल में लाने का समय आ गया है? जाहिर है, मन बनाने के बाद केवल इसकी घोषणा के लिए उपयुक्त समय की प्रतीक्षा थी। सरकार ने भारत पाकिस्तान विदेश सचिव स्तर की बातचीत आरंभ होने का समय संभवतः इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना है। आप देखिए, विदेश सचिव स्तर की बातचीत का समाचार आने के साथ पाकिस्तान की ओर से कश्मीर राग आरंभ हो गया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी से लेकर विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा है कि बगैर कश्मीर को शामिल किए बातचीत निरर्थक होगी। गिलानी ने तो यह भी कहा कि भारत कश्मीर पर बातचीत से भाग रहा है। भारत ने अपने नजरिए से पाक अधिकृत कश्मीर के नागरिकों को यहां आने का निमंत्रण देकर पाकिस्तान को निश्चय ही अचंभे में डाल दिया है। हालांकि गृहमंत्री के बयान से प्रत्येक भारतीय के अंदर सनसनाहट का भाव पैदा हुआ और इसे आसानी से पचा पाना संभव नहीं है। जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने जो प्रश्न उठाए उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जो क्षेत्र आतंकवादियों को तैयार करने का केन्द्र हो, जो इनके घुसपैठ की सर्वप्रमुख आधारभूमि हो, वहां इस योजना के दुरुपयोग होने की पूरी गुंजाइश है। संभव है आतंकवादी संगठन अपने लोगों को भारत भेजने में सफल हो जाएं। पाकिस्तान सरकार भी इसका दुरुपयोग आतंकवादियों को यहां भेजने के लिए कर सकती है। इस प्रकार विचार करें तो इसमे खतरा और जोखिम ज्यादा नजर आता है। गृहमंत्री का आश्वासन है कि व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित करने से लेकर, आवेदनों की छंटनी आदि में पूरी सावधानी बरती जाएगी, उसकी यात्रा का ब्यौरा भी पता किया जाएगा...., फिर उनकी सोच मंे बदलाव के लिए सत्र आयोजित होंगे और उसके बाद ही पुनर्वास करवाया जाएगा। पुनर्वास के बाद भी इस बात का लगातार ध्यान रखा जाएगा कि वे वाकई मुख्यधारा में शामिल हो सकें। यानी कुल मिलाकर भारत इतनी भावुकतापूर्ण हड़बड़ी में नहीं होगा कि किसी ने आने की इच्छा प्रकट की और उसके लिए लाल कालीन बिछ गया।

हम जानते हैं कि ये बातें कहने में जितनी आसान दिखतीं हैं उतनी हैं नहीं। आखिर पहचान आदि का ब्यौरा तो वहीं से मिलेगा और उस पर हमारा वश नहीं। अपने देश में ही आतंकवादियों को मुख्यधारा में शामिल करने के अभियानों के बहुत संतोषजनक परिणाम नहीं आए हैं। प्रशासनिक मशीनरी द्वारा किसी को मुख्यधारा मंे सम्पूर्ण रुप से शामिल करने के प्रयासों की अपनी सीमाएं हैं। वैसे भी इतनी लंबी प्रक्रिया के भय से कोई चाहे भी तो यहां बसने के लिए आवेदन करने से इसलिए बचना चाहेगा, क्योंकि आवेदन स्वीकार नहीं हुआ तो उसके साथ वहां का प्रशासन एवं भारत विरोधी बुरा बर्ताव करेंगे। इसमें यह आशंका हमेशा बनी रहेगी कि अगर आवेदन स्वीकार नहीं हुआ तो उसे वहां से वापस भेज दिया जाएगा। मान लीजिए कोई आ गया और वह पहाड़ों-जंगलांे में प्रवेश कर आतंकवादियों के साथ मिल गया तो आप क्या करेंगे? ऐसी बातों के लिए सरकार को रास्ता निकालना होगा। इन परिप्रेक्ष्यों में विचार करने पर यह कदम केवल जोखिम भरा ही नहीं, निरर्थक भी लग सकता है और यह निष्कर्ष भी आ सकता है कि इनसे बचने में ही भलाई है। किंतु जरा दूसरे नजरिए से विचार करिए। अगर वाकई पाक अधिकृत कश्मीर चले गए कुछ लोग इधर आकर बसने की पहल करते है तो इसका अंतरराष्ट्रीय समुदाय के मनोविज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ेगा? स्वयं उस पार के कश्मीर पर इसका कितना भावनात्मक असर होगा यह भी विचार करने योग्य बात है। जो पाकिस्तान हमारे कश्मीर के बारे में यह दुष्प्रचार करता है कि केवल फौज की ताकत से भारत ने कब्जा कर रखा है उसे जवाब देने में कितनी कठिनाई होगी इसकी कल्पना करिए। क्या इससे पाकिस्तान का यह दावा कमजोर नहीं होगा कि उसके नियंत्रण वाले क्षेत्र में असंतोष नहीं है एवं लोग अपनी इच्छा से वहां रह रहे हैं? क्या वहां से आने की इच्छा प्रकट करना मात्र पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान के प्रति असंतोष का प्रमाण नहीं होगा? वैसे भी बसों के लिए कई मार्गों के खुलने के बाद आतंकवादियों के आने की आशंकाएं सच साबित नहीं हुईं हैं। हमारी तमाम बंदिशों के बावजूद आतंकवादियों का आना और हिंसा करना बंद नहीं हुआ है। इसके भय से हम कश्मीर समस्या को सुलझाने और पाकिस्तान के पक्ष को कमजोर करने की कोई क्रांतिकारी और अभिनव पहल ही न करें इससे बड़ी नासमझी कुछ नहीं हो सकती। हमारी नजर में तो भारत पाकिस्तान का विभाजन ही अप्राकृतिक एवं अंग्रेजों के षडयंत्र का हिस्सा था। कौन जानता है कि कल पाकिस्तान के लोग ही अपने देश की दुरवस्था से आजिज आकर कोई बड़ी पहल कर दें।

सच कहें तो इसके पीछे उमर अब्दुल्ला का प्रांतीय राजनीतिक लक्ष्य जो भी हों, अगर सरकार ने बुद्धिमतापूर्वक योजना पर कार्रवाई जारी रखी तो यह कश्मीर मामले में युगांतकारी मोड़ साबित हो सकता है। पाकिस्तान के कश्मीर राग की हवा निकालने की क्षमता इससे पैदा हो सकती है। 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने जब लाहौर बस यात्रा का ऐतिहासिक कदम उठाया तब भी अनेक आशंकाएं उठाईं गईं थीं और उसकी आलोचना भी हुई। उस अभिनव पहल के बाद करगिल के कारण हमें आघात भी लगा, पर उस बस यात्रा ने भारत पाकिस्तान संबंधों में कितना ऐतिहासिक बदलाव किया, विश्व समुदाय का नजरिया बदलने में कितनी बड़ी भूमिका अदा की, पाकिस्तान की मीडिया और वहां के सोचने समझने वाले एक वर्ग की सोच में कितना परिवर्तन लाया यह सब हमारे सामने है। पूरी दुनिया ने माना कि भारत तो पाकिस्तान के साथ बिल्कुल निकट का संबंध बनाने का इच्छुक है, जबकि पाकिस्तान उसके साथ दुश्मन जैसा षडयंत्र कर रहा है। करगिल में पाकिस्तान के पीछे हटने में हमारी सैनिक क्षमता के साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। ठीक उसी प्रकार इस कदम को भी लिया जाना चाहिए। (संवाद)