अब भी भोपाल में यूनियन कारबाइड कारखाने का सैंकडों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पडा हुआ है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व है, जो सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्व भू-जल को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है और न केंद्र सरकार को। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है।

तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज तीन दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खडी हुई है। इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल भोपाल में तैंतीस बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देखी जा रही है। गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नही हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बडे इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगो की पीडा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे हमदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरुरी है।

जहां तक यूनियन कारबाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अन्यान्य कारणों से नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। कायदे से तो इस कचरे को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी यूनियन कारबाइड कारखाने के प्रबंधन की थी, मगर जब सरकार खुद उसके बचाव में खडी हो गई तो उससे वाजिब सख्ती की उम्मीद कैसे की जा सकती थी! सरकार ने इस कंपनी के अमेरिकी प्रबंधन से अदालत के बाहर समझौता कर लिया था और रासायनिक मलबे को कारखाना परिसर में ही या तो जमीन के नीचे दबा दिया गया या फिर खुला छोड दिया गया। तब से उस कचरे के निपटान की कोई पहल नही की गई। वर्ष 2004 में मध्यप्रदेश हाई कोर्ट में जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा की ओर से दायर याचिका मे गैस प्रभावित बस्तियों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे इस रासायनिक कचरे को नष्ट करने के आदेश देने की मांग की गई थी, जिस पर हाई कोर्ट ने केंद्र एवं राज्य सरकार को निर्देश दिए थे कि इस जहरीले कचरे को मध्य प्रदेश के धार जिले के पीथमपुर में इन्सीनेटर में नष्ट कर दिया जाए। इस निर्देश का पालन इसलिए नहीं किया जा सका क्योंकि अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने यह कहकर इसका विरोध किया था कि पीथमपुर में इसे जलाने से वहां के पर्यावरण के साथ ही वहां रह रहे लोगों को नुकसान होगा।

पीथमपुर मे कचरा जलाने के विरोध को देखते हुए हाई कोर्ट ने गुजरात के अंकलेश्वर में यह जहरीला कचरा जलाने के निर्देश दिए। वहां की तत्कालीन सरकार ने जहरीला कचरा जलाने की अनुमति भी दे दी थी, लेकिन वहां के लोगों ने कचरा जलाने का विरोध किया। उसके बाद गुजरात सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके इस मामले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था, जिस पर शीर्ष अदालत ने जहरीले कचरे को नागपुर के निकट रक्षा अनुसंधान विकास संगठन के इंसीनेटर में नष्ट करने के निर्देश दिए। लेकिन वहां भी गैर सरकारी संगठनों के विरोध के चलते महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर में जहरीला कचरा जलाने से असमर्थता जता दी। इस सिलसिले में महाराष्ट्र विधानसभा में तो बाकायदा एक प्रस्ताव भी पारित किया गया।

गैस त्रासदी के 33 साल बाद भी कारखाने के गोदाम में रखे या जमीन में दबे जहरीले कचरे में तमाम कीटनाशक रसायन और लेड, मर्करी और आर्सेनिक मौजूद है, जिनका असर अभी कम नहीं हुआ है। यह खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कारखाने के गोदाम मे रखे जहरीले कचरे की जांच रिपोर्ट में किया है। इस कचरे की वजह से भोपाल और उसके आसपास का पर्यावरण और विशेषकर भूजल दूषित हो रहा है अनेक अध्ययन बताते हैं कि यूनियन कारबाइड कारखाने वाले इलाके में रहने वाली महिलाओं में आकस्मिक गर्भपात की दर तीन गुना बढ गई है। पैदा होने वाले बच्चों में आंख, फेफड़े, त्वचा आदि से संबंधित समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। उनका दिमागी विकास भी अपेक्षित गति से नहीं होता है। इस इलाके में कैंसर के रोगियों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है, लेकिन कानूनी और पर्यावरणीय उलझनों के चलते इस कचरे का समय रहते समुचित निपटान नही किया जा सका।

भोपाल गैस त्रासदी के बाद से ही मांग की जाती रही है कि औद्योगिक इकाइयों की जवाबदेही स्पष्टकी जाए। मगर अभी तक सभी सरकारें इससे बचती रही हैं। शायद उनमें इसकी इच्छाशक्ति का ही अभाव रहा है। इसी का नतीजा है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीडित परिवारों को आज तक मुआवजे के लिए संघर्ष करना पड रहा है। जो लोग स्वास्थ्य संबंधी गंभीर परेशानियां झेल रहे है, उनकी तकलीफों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। भोपाल गैस त्रासदी के मामले में जब औद्योगिक कचरे के निपटान में अब तक ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों मे सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते। (संवाद)