जैसा कि आरोपित है गजनी के महमूद ने इस मंदिर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था और वहां पर जो भी सम्पत्ति थी लूट कर ले गया था। वैसे इस संबंध में अनेक तथ्य भी इतिहासकारों ने बताए हैं। कुछ इतिहासज्ञों की यह भी राय है कि सोमनाथ मंदिर को गजनी ने तोड़ा ही नहीं। परंतु बरसों तक मुस्लिम आक्रमकों द्वारा जो हमले किए गए थे, उनसे हिन्दुओं और मुसलमानांे के बीच विवाद का प्रश्न ही नहीं बना। वर्ष 1842 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल एल.एन. वारो ने एक आदेश जारी किया था। इस आदेश में एल. एन. वारो ने अफगानिस्तान से वापस आती हुई अंग्रेजी फौजों को यह आदेश दिया था कि वे वापस आते हुए सोमनाथ मंदिर में लगे एक चंदन के दरवाजेे को वापस लाएं।
भारत आज़ाद होने के बाद सरदार पटेल समेत अनेक कांग्रेस नेताओं ने यह सुझाव दिया कि सोमनाथ मंदिर का पुनरूद्धार किया जाए। भारत के आज़ाद होने तक सोमनाथ मंदिर का मामला कुछ हद तक गुजरात में ही चर्चा का विषय था और वहां के निवासियों के लिए एक तरह से संवेदनशील मामला था। सबसे पहले इस मुद्दे का उल्लेख सरदार पटेल ने गुजरात के शहर जूनागढ़ में 12 नवंबर, 1947 में आयोजित एक आमसभा में किया था। उस समय तक जूनागढ़ के नवाब भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे और जूनागढ़ पर भारतीय सेना का शासन स्थापित हो गया था।
सोमनाथ मंदिर का उल्लेख करते हुए एल.के. आडवाणी ने एक स्थान पर लिखा है कि दिल्ली वापस आने के बाद सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त किया। इस संबंध में पंडित नेहरू की मंत्री परिषद में सहमति भी जताई। क्योंकि कैबिनेट ने इस संबंध में सहमति जताई थी। इसलिए उसका अर्थ यह भी हुआ कि पुनर्निर्माण सरकारी खजाने से किया जाएगा। उसी दिन शाम को जब सरदार पटेल, डाॅ. के. एम. मुंशी और एन. वी. गाडगिल ने गांधी जी से मिलकर उन्हें कैबिनेट के निर्णय से अवगत कराया तो गांधी जी ने उस निर्णय का स्वागत किया। परंतु गांधी जी ने यह भी कहा कि ‘‘पुनर्निर्माण का व्यय सरकार को नहीं वरन जनता को वहन करना चाहिए’’। तदानुसार डाॅ. के. एम. मुंशी की अध्यक्षता में एक ट्रस्ट का गठन किया गया। इसके बाद के कुछ वर्ष काफी उलझनपूर्ण रहे।
इसी बीच महात्मा गांधी की हत्या हो गई। भारत के विभाजन के घाव अभी भी हरे थे। नेहरू जी एक अत्यधिक दृढ़प्रतिज्ञ राजनीतिज्ञ थे। कांग्रेस के अनेक नेताओं से उनकी वैचारिक मतभेदता सभी को ज्ञात थी। पटेल से भी कुछ मुद्दों पर उनके मतभेद थे, विषेषकर अल्पसंख्यकों के साथ कैसा सुलूक किया जाए और देश का प्रथम राष्ट्रपति किसे बनाया जाए को लेकर। नेहरू जी, सी. राजगोपालाचार्य को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, जबकि पटेल डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को।
माह दिसंबर वर्ष 1950 में पटेल की मृत्यु हो गई। जैसा कि रामचन्द्र गुहा लिखते हैं कि पटेल ही एक ऐसे नेता थे जिनका कद नेहरू के बराबर समझा जाता था। इसके अतिरिक्त राजेन्द्र बाबू भी नेहरू के कद के बराबर नेता समझे जाते थे। वर्ष 1951 तक सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार हो चुका था। इस संबंध में के.एम. मुंशी अपनी किताब ‘‘पिलग्रिमेज टु फ्रीडम’’ में लिखते हैं कि एक दिन वर्ष 1951 में सम्पन्न हुई एक कैबिनेट बैठक के बाद नेहरू ने मुंशी से कहा कि ‘‘तुम्हारा सोमनाथ के जीर्णोद्धार का रवैया मुझे पसंद नहीं है। यह हिन्दू पुनरूत्थान की बात है’’। मुंशी उस समय नेहरू जी की मंत्री परिषद के सदस्य थे। मुंशी ने नेहरू को एक पत्र लिखा और उसमें इस बात का उल्लेख किया कि ‘‘आपने हिन्दू पुनरूत्थान की बात की थी। आपने कैबिनेट की बैठक में सोमनाथ मंदिर में मेरी दिलचस्पी का उल्लेख किया था। मुझे प्रसन्नता है कि आपने ऐसा कहा। वास्तव में अपनी गतिविधियों का कोई भी हिस्सा गुप्त नहीं रखना चाहिए। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रपति से पुनरूत्थित मंदिर के उद्घाटन का अनुरोध किया। इस बीच माधव गोडबोले जो इन्दिरा गांधी के समय गृहसचिव रहे और जिन्होंने एक फेमस किताब ‘‘द गाॅड हू फेल्डः एन एसेस्मेंट आॅफ जवाहरलाल नेहरू़़’’ में बताया है कि जब कोई मंत्री प्रधानमंत्री की मर्जी के खिलाफ अपनी गतिविधियां करता रहे तो नेहरू जी का एक सच्चा डेमोक्रेट होने से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है।
नेहरू जी मंत्री परिषद में भी वैचारिक मतभेद को सहन करते थे। कभी वे सफल हो जाते थे और कभी नहीं। इस बीच नेहरू जी लगातार राष्ट्रपति को पत्र लिखते रहे कि मंदिर के उद्घाटन के आपके विचार से मैं सहमत नहीं हूं। यह अकेले मंदिर के उद्घाटन का प्रश्न नहीं है। इसके अनेक दूरगामी परिणाम होंगे। आखिर नेहरू के मस्तिष्क में इस तरह के विचार क्यो रहते थे?
रामचन्द्र गुहा के अनुसार यह हठवादी धर्मनिरपेक्षता नहीं थी। उस समय यह सोचना आवश्यक था कि उस समय क्या परिस्थितियां थीं। कुछ समय पहले ही देश विभाजित हुआ था। लाखों की तादाद में मुसलमानों ने हिन्दुस्तान में रहने का फैसला किया था। ऐसा करके क्या हम उनकी वफादारी की परीक्षा ले रहे हैं? मंदिर के उद्घाटन से उनके मन में असुरक्षा की भावना पैदा हो सकती है। कुछ ही समय पहले हिन्दू और मुसलमानों में जो दूरी बन गई थी, नेहरू नहीं चाहते थे कि मतभेद की खाइयां और गहरी हों, वे नहीं चाहते थे कि विभिन्न धार्मिक समुदायों में दूरी बढ़े और ऐसे मौके पर पुराने घाव फिर से हरे हों जाएं। वह बहुत नाजुक समय था। ऐसे मौके पर वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति स्वयं को एक ऐसे मंदिर से जोड़ें जिसे एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने नष्ट-भ्रष्ट किया था। जबकि आज के मुसलमानों का महमूद गजनी से कुछ लेनादेना नहीं है। परंतु राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू नहीं माने और 2 मई, 1951 को नवनिर्मित मंदिर का उद्घाटन किया। इसके बाद दुःखी नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा। पत्र में कहा कि ‘‘मंदिर के उद्घाटन का कार्यक्रम शासकीय कार्यक्रम नहीं है और ना ही भारत सरकार का उससे कोई लेनादेना है। हमें कोई भी ऐसी गतिविधि नहीं करना चाहिए जो हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के विकास में बाधित बने। यह हमारे संविधान और सरकारों का मूलाधार है। इसलिए हमको किसी भी ऐसी गतिविधि से दूर रहना चाहिए जिससे दूर-दूर तक हमारा धर्मनिरपेक्ष चरित्र प्रभावित हो।
उस पर राष्ट्रपति ने उत्तर दिया मैं अपने धर्म में आस्था रखता हूं और उससे किसी भी हालत में दूर नहीं रह सकता (दुर्गादास इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर, 2004)। अंततः 11 मई, 1951 को राष्ट्रपति ने नवनिर्मित सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन किया। (संवाद)
सोमनाथ मंदिर का निर्माण और उद्घाटन
नेहरू हिन्दू और मुस्लिम के बीच की दरार को नहीं बढ़ाना चाहते थे
एल.एस. हरदेनिया - 2017-12-19 11:17
सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं अंबेडकर के अलावा जिस एक अन्य प्रमुख मुद्दे पर जवाहरलाल नेहरू को राष्ट्रविरोधी और हिन्दू विरोधी बताया जाता है वह है गुजरात में स्थित सोमनाथ मंदिर।