लेकिन आखिरकार वही हुआ, जिसकी ज्यादा संभावना थी। भारतीय जनता पार्टी जीत गई। उसकी जीत इसलिए कठिन मानी जा रही थी, क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी के कारण शहरी क्षेत्रों मे मोदी के खिलाफ माहौल था। किसानो की हालत खराब हो जाने के कारण गांवों में उनके खिलाफ असंतोष था। पाटीदार आंदोलन के कारण पाटीदारों के बीच भी भाजपा की स्थिति कमजोर थी। दलित और मुस्लिम तो कभी उसके अपने हुए ही नहीं। आदिवासी इलाकों में अपने खराब दिनों में भी कांग्रेस भाजपा पर भारी पड़ जाती थी।
सवाल उठता है कि खराब स्थिति में होने के बावजूद भाजपा कैसे जीत गई? सवाल सिर्फ उसकी जीत का ही नहीं है, बल्कि इसका भी है कि उसका वोट प्रतिशत भी 2012 के वोट प्रतिशत से ज्यादा हो गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? एक विश्लेषण तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दु ध्रुवीकरण की जो कोशिश की, उसमें वह सफल हुई और भावना में बहकर हिन्दुओं ने भारी पैमाने पर भाजपा को वोट दिया। दूसरा विश्लेषण क्षेत्रीय भावना का भी है। गुजरात की क्षेत्रीय अस्मिता भी दांव पर लगा दी गई थी। प्रधानमंत्री पूछ रहे थे कि क्या गुजरात का एक आदमी नीच हो सकता है। नीच आदमी के बयान को जाति के अर्थ में ही नहीं, बल्कि क्षेत्र के अर्थ में भी भुनाया गया। इसका भी प्रभाव मतदाताओं पर जरूर पड़ा होगा और इसका फायदा भाजपा को हुआ।
लेकिन एक बात और महत्वपूर्ण है और वह है भाजपा का शहरी इलाकों में भारी जीत और ग्रामीण इलाकांें में हार। गांवों में किसान त्रस्त थे और उन्होंने भाजपा को हरा दिया। भावनात्मक अपील का उनपर असर बहुत कम पड़ा। लेकिन शहरों मे भी तो लोग भाजपा के बहुत खिलाफ थे। वहां के व्यापारियों और उनके व्यापार से जुड़े लोगों पर नोटबंदी का बहुत बड़ा असर पड़ा था। जीएसटी ने भी उनके व्यापार को अस्त व्यस्त कर दिया था।
पर शहरी इलाकों मंे भाजपा को भारी जीत मिली। शहरी इलाकों मंे 55 सीटें हैं और उनमें से 46 पर भाजपा जीती। सूरत में 16 सीटें है और उनमें से 15 सीटों पर भाजपा की जीत हुई, जबकि सूरत व अन्य शहरों मे सरकार के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चल रहा था। क्या यह मान लिया जाय कि भावनात्मक मुद्दों में बहकर उन्होंने भाजपा को वोट दे डाला और भाजपा जीत गई? या कारण कुछ और था?
भावनाओं का असर रहा होगा, लेकिन इसका एक कारण शेयर संस्कृति भी हो सकती है। गुजरात में शेयरों में निवेश करने वाले लोगों का घनत्व सबसे ज्यादा है। वहां की आबादी का करीब पौने नौ फीसदी हिस्सा शेयरों में निवेश करता है। वे करीब 55 लाख हैं। 55 लाख लोग तो निवेश करते हैं, लेकिन यदि एक निवेशक पर निर्भर लोगों की संख्या एक और मान लिया जाय, तो करीब 1 करोड़ 10 लाख लोगों का सीधा स्वार्थ शेयर बाजार है।
अब यदि मान लीजिए की शेयर बाजार घ्वस्त हो जाता है, तो गुजरात के 1 करोड़ 10 लाख मतदाताओं का सीधा नुकसान हो जाता है। तो वे अपना नुकसान क्यों चाहेंगे? यह कयास लगाया जा रहा था और यह गलत भी नहीं था कि यदि भाजपा चुनाव हारती है, तो शेयर बाजार धराशाई हो जाएगा और उसमें जिन लोगों ने निवेश कर रखा है वे गरीब हो जाएंगे। अब कोई गरीब क्यों होना चाहेगा?
जिन लोगों ने नोटबंदी और जीएसटी के कारण नुकसान सहा हो, वे शेयर बाजार में अपनी लुटिया क्यों डुबोना चाहेंगे? इसलिए उन्होंने पहले दो मसलों पर नाराजगी होने के बावजूद भाजपा को वोट दिया ताकि शेयर बाजार नहीं डूबे।
उन्होंने न केवल खुद वोट दिया होगा, बल्कि भाजपा को जीत दिलाने के लिए अपने स्तर से अन्य लोगों को प्रभावित करने की कोशिश भी की होगी। अपने ऊपर निर्भर अन्य लोगों को भी उन्होंने भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित किया होगा और इसके लिए भावनात्मक मुद्दों को भी जरूर उछाला होगा।
जाहिर है कि शहरी क्षेत्र में भाजपा को बम्पर वोट मिले। वहां न केवल भाजपा जीती, बल्कि जीत का अंतर भी बहुत ज्यादा था। भाजपा का वोट प्रतिशत 49 फीसदी से ज्यादा होने के पीछे भी शहरों में उसके पक्ष में पड़ा भारी वोट ही जिम्मेदार था। इस तरह शेयर संस्कृति ने भाजपा का बेड़ा गुजरात में पार लगा दिया। (संवाद)
शेयर संस्कृति ने गुजरात में भाजपा को जीत दिलाई
शहर में भारी जीत का आखिर क्या मतलब हो सकता है
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-12-21 12:17
गुजरात में अंततः भाजपा जीत ही गई। चुनाव के पहले जो लोग भाजपा की स्थिति खराब बताते थे, वे भी यह मानने से झिझकते थे कि वह चुनाव हार भी सकती है। इसका कारण यह था कि कांग्रेस एक संगठन के रूप में वहां कमजोर थी, जबकि भारतीय जनता पार्टी सांगठनिक रूप से बहुत ही मजबूत है। वहां उसकी सरकार भी है और नरेन्द्र मोदी के पास चुनाव जीतने के लिए बहुत सारे हथकंडे भी थे। यही कारण है कि भाजपा की स्थिति खराब होने के बावजूद उसके हार जाने की भविष्यवाणी करने का खतरा बहुत ही कम लोग उठाते थे।