वास्तव में, आम आदमी पार्टी ने बिना यह समझे कि यह उसके वश का नहीं है, जड़ जमाए अपराध तथा भ्रष्टाचार को साफ करने के इरादे से अपना चुनाव चिंह झाडू रख लिया।

रजनीकंात सफल होंगे या नहीं, इसे समझने से ज्यादा उचित यह समझना होगा कि जो लोग रूपहले पर्दे से वास्तविक दुनिया में आए थे वे कितना कुछ कर पाए। सबसे शानदार प्रदर्शन अंाध्र प्रदेश में फिल्मस्टार से नेता बने एनटी रामाराव का रहा जिन्होंने 1983 में मुख्यमंत्री टी अंजैय्या के साथ राजीव गंाधी के दुव्र्यवहार के बाद तेलगु-स्वाभिमान के मुद्दे पर जड़ जमाई हुई कंाग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया।

इसके विपरीत, रजनीकांत कुछ हद तक बुजदिल रहे हैं। शुरूआत के लिए, परिस्थिति भांपने के लिए मन बनाने में उन्होंने काफी समय लिया और अंत में तब फैसला लिया जब उन्हें पक्का भरोसा हो गया कि जयललिता की मौत और सक्रिय राजनीति से करूणानिधि के रिटायर होने के बाद तमिलनाडु में एक राजनीतिक शून्य है-जिसे भरने के लिए उनके (और दूसरे फिल्म स्टार कमल हासन) के लिए मैदान खुला पड़ा है।

लेकिन मैदान में कूदने के बाद आए शुरू के उनके कुछ बयानों से यह साफ हो गया कि उनके राजनीति में प्रवेश को लेकर चल रहा प्रचार बेवजह है क्योंकि वह एक नौसिखिए आम आदमी के ठेठ प्रतिनिधि हैं (बाबा रामदेव की तरह, जो एक बार राजनीति में आने की सोच रहे थे) जिसे भरोसा है कि अभी के पेशे में उन्हें चाहने वाले उन्हें नए पेशे में भी उसी तरह चाहेंगे।

जाहिर है कि लोगों को लगता है कि चलताऊ राजनीति में लगे नेताओं को लेकर असंतोष ने उन लोगों के लिए मैदान खुला छोड़ रखा है ताकि नए आने वाले अपना छाप छोड़ सकें। इस तरह की प्रवृत्ति के कारण 2015 में दिल्ली विधान सभा चुनावों में बिना परखे हुए केजरीवाल ने एक साल पहले के आम चुनाव में भारी सफल भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया।

शायद रजनीकंात आप नेता के इस खास प्रदर्शन को दोहराना चाहते हैं जो इस विश्वास पर आधारित है कि एक बेदाग छवि के अनुभवहीन को यह क्षमता होती है कि वह व्यवस्था को साफ करे क्योंकि उसकी पार्टी में सत्ता के दलालों का कोई बोझ नहीं होता है (जैसा राजीव गंाधी ने 1985 में कांग्रेस के बारे में कहा था)।

लोगों के इस मूड को ध्यान में रखकर ही रजनीकांत ने कहा है कि वह व्यवस्था में बदलाव करना चाहते हैं। लेकिन उनका यह कथन उनकीअनुभव हीनता को ही दर्शाता है क्योंकि लगता है कि उन्हें पता नहीं है कि वह ठीक-ठाक क्या करना चाहते हैं। क्या वह जड़ जमाई उस नौकरशाही को अलग रखना चाहते हैं जिसकी आलोचना प्रशासक के आम लोगों तक सहानुभूति पूर्वक पहंुचने में बाधा डालने के लिए की जाती है या वह मौजूदा नौकरशाही का राजनीतिक उलटफेर करना चाहते हैं जिसका नतीजा अधिकारियों की ओर से होने वाली पहल को रोकने के रूप में सामने आए।

इससे भी ज्यादा समस्या वाली बात है शासन में अध्यात्म को शामिल करने की उनकी इच्छा। किसी निंदक को इस टिप्पणी में भाजपा के साथ उनकी वैचारिक समता दिखाई दे गई। भाजपा को राजनीति में धर्म का घालमेल करने में कोई हिचक नहीं होती, खासकर हिंदुओं के, जिसमें राम मंदिर तथा खानपान में हिंदु धर्म की ओर से लगाई गई पाबंदियों की वकालत जुड़ी है।

रजनीकांत के भाजपा के साथ नजदीकी संबंध के शक में, एक टिप्पणीकार ने उसे प्रमुखतः उत्तर की पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए टोªजन घोड़ा (गुप्त रूप से जीत दिलाने वाला) बता दिया। अभी तक भाजपा राज्य में अपनी उपस्थिति महसूस कराने के लिए एआईडीएमके पर निर्भर करती रही है। यह संबंध उस समय से है जब जयललिता अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में सहयोगी थी।

लेकिन जयललिता के बाद एआईडीए के बिखराव की स्थिति ने एक नए व्यक्ति टीटीवी दिनाकरन को चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए दिला दी कि वह जयललिता की लंबे समय की सहयोगी शशिकला का भतीजा है। इसे ध्यान में रखकर भाजपा तमिलनाडु की राजनीति में अपना आधार बनाने के लिए रजनीकांत की बैसाखी का खुशी से इस्तेमाल करना चाहेगी।

यह असंभव नहीं है कि एआईडीएमके तथा डीएमके से मोहभंग के बाद तमिलनाडु के लोग रजनीकांत को अवसर दें, जैसा दिल्ली के लोगों ने स्थापित पार्टियों के बदले केजरीवाल में अपना विश्वास व्यक्त करके किया। लेकिन उसका नतीजा उससे शायद अलग नहीं हो जैसा राष्ट्रीय राजधानी में हुआ जहां यह महसूस करने के बाद कि उन्होंने एक सफल राजनीतिक कैरियर शुरू करने का स्वर्णिम अवसर गंवा दिया है बातूनी केजरीवाल खामोश हो गए हैं।

शायद रजनीकांत भी यह महसूस करें कि फिल्मों के नायक से राजनीति का नायक अलग होता है क्योंकि उसके पास सामाजिक तथा आर्थिक वास्तविकताओं पर पकड़ रखने के लिए जरूरी बौद्धिक क्षमता होना चाहिए तथा विपक्ष के तीरों का मुकाबला करने के साथ-साथ संगठन बनाने के लिए उसे मेहनत करना आता हो। (संवाद)