कुछ समय पहले एक मराठा लड़की के साथ एक दलित युवक ने बलात्कार किया था। उससे नाराज होकर मराठों ने आंदोलन कर दिया था। उनका आंदोलन हरिजन एक्ट को समाप्त करने की मांग कर रहा था और उसके साथ ही उन्होंने अपने लिए आरक्षण की मांग भी शुरू कर दी। उसके लिए उन्होंने अनेक प्रदर्शन किए, जिनमें लाखों की संख्या में मराठे जुटे। उन प्रदर्शनों में एक बात अच्छी यह थी कि वे पूरी तरह शांतिपूर्ण थी। वह शांतिपूर्ण ही नहीं थी, बल्कि वे मूक प्रदर्शन हुआ करते थे, जिनमें अपनी मांग को लेकर नारे तक नहीं लगाए जाते थे। लेकिन संख्या के लिहाज से वे प्रदर्शन बहुत बड़े हुआ करते थे। उनमें लाखों लोग शिरकत करते थे। उनके दबाव के कारण महाराष्ट्र सरकार ने उनके लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान भी कर दिया था, लेकिन अदालत में वह खारिज हो गया।
यानी हिंसा की यह घटना मराठों के बीच पनप रह दलित आक्रोश के कारण ही हुई है। यही इस हिंसा का मूल कारण है, भले ही इसका तात्कालिक कारण कुछ और रहे हों। वैसे तात्कालिक कारणों में कुछ हिन्दु संगठनों का नाम लिया जा रहा है, जो एक जनवरी को शौर्य दिवस मनाए जाने का विरोध यह कहकर कर रहे थे कि उस दिन ब्रिटिश सेना ने मराठा सेना को पराजित किया था और उस पराजय का जश्न नहीं मनाया जा सकता। उनका कहना था कि जो उस दिन की घटना को शौर्य दिवस मनाते हैं, वे देश के गद्दार हैं और गद्दारों को इस तरह का उत्सव मनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस तरह की बात करने वाले दो संगठनों के प्रमुखों के खिलाफ पुणे पुलिस ने मुकदमा भ दर्ज किया है। उनके खिलाफ आगे की कार्रवाई हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है, क्योंकि वे सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े हुए हैं और एक आरोपी संभाजी भिड़े को तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक अपने मंच से प्रशंसा कर चुके हैं और उन्हें गुरूजी कहकर सम्मानित कर चुके हैं।
इस घटना के दो पहलू हैं। एक पहलू तो इतिहास से जुड़ा हुआ है और दूसरा पहलू मराठों के वर्तमान असंतोष से जुड़ा हुआ है। जहां तक इतिहास की बात है, तो यह सच है कि युद्ध अंग्रेजों और मराठों के बीच में ही हुआ था। मराठा साम्राज्य की धुरी बने पेशवा का पुणे स्थित शनिवार बाड़ा अंग्रेजों के कब्जे में था और उसे वापस पाने के लिए पेशवा बाजीराव द्वितीय पुणे की ओर बढ़ रहे थे। उनके साथ 28 हजार की सेना थी। रास्ते में उन्हें 834 संख्या वाली अंग्रेजी सेना की एक छोटी टुकड़ी मिली। पेशवा ने दो हजार सैनिकों को उनके खिलाफ भेजा। दिनभर चली लड़ाई में किसी को जीत नहीं मिली। रात में पेशवा को पता चला कि जनरल स्मिथ एक बड़ी फौज लेकर वहां आ रहा है। अगले दिन पेशवा ने अंग्रेज सैनिक की कोरेगांव में उपस्थित छोटी टुकड़ी पर हमला नहीं किया। कोरेगांव में स्थित अंग्रेज सेना पेशवाई हमले का इंतजार करते रहे, लेकिन हमला हुआ नहीं। दिलचस्प बात यह है कि खुद वहां स्थित अंग्रेजों को यह नहीं पता था कि जनरल स्मिथ वहां एक बहुत बड़ी फौज लेकर पहुंच रहा है। दो जनवरी को युद्ध नहीं हुआ। तीन जनवरी को जनरल स्मिथ वहां आ पहुंचा। फिर अंग्रेज कोरेगांव में घुसे और अपने मरे हुए और घायल सैनिकों की खबर ली। पेशवा की सेना उस समय भी दूसरी तरफ हमले का इंतजार कर रही थी। लेकिन स्मिथ की बड़ी फौज ने भी उस समय पेशवा पर हमला नहीं किया। पेशवा वहां अपनी सेना के साथ वहां से उस समय भाग गया। इस तरह कोरेगांव युद्ध की कहानी समाप्त हो गयी।
जाहिर है, उस युद्ध में जीत किसी की नहीं हुई थी, लेकिन 28 हजार सेना के सामने अंग्रेजी सेना की एक छोटी टुकड़ी का पराजित नहीं होना अंग्रेजों के लिए जीत से कम नहीं था। उसी साल जून में पेशवा ने अंग्रेजों के सामने समर्पण कर दिया था। उसके बाद अंग्रेजों ने कोरेगांव में उस युद्ध की याद में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया। उसी विजय स्तंभ के सामने दलित शौर्य दिवस मनाने के लिए गए हुए थे। 1927 में वहां भीमराव अंबेडकर भी गए थे। उन्होंने उस युद्ध को एक दूसरा रूप दे डाला। कोरेगांव मे अंग्रेज की सेना मे महार जाति के लोगों की संख्या अच्छी खासी थी। इसलिए उस युद्ध को पेशवा बनाम महार युद्ध का नाम दे दिया गया और कोरेगांव में अंग्रेजों की हुई कथित जीत को पेशवा के ऊपर महारों की जीत दर्शा दिया गया।
महाराष्ट्र के समाज और इतिहास से भलीभांति परिचत अंबेडकर ने महारों और मराठों के बीच एक साझी विरासत निकाल डाली और पेशवा को खलनायक बनाकर पेश करते हुए हौसलापस्त महारों की हौसला आफजाई के लिए एक झूठी कहानी का ईजाद कर दिया। इससे महारों और अन्य दलितों को निश्चय ही लाभ हुआ। हौसलापस्त समाज की हौसला आफजाई के लिए इस तरह का छोटा मोटा झूठ गलत नहीं है, लेकिन जब लोग इस झूठ का स्थायी रूप से शिकार हो जायं, तब वही होता है, जो पिछले एक जनवरी को कोरेगांव में हुआ।
सच यह है कि कोरेगांव युद्ध में किसी की जीत नहीं हुई थी। चूंकि पेशवा वहां से बचकर चला गया था, इसलिए अंग्रेजों ने पहले उस युद्ध को पेशवा की एक छोटी जीत करार दिया। पर पेशवा के पतन के बाद कोरेगांव की युद्ध को भी अंग्रेजों ने अपनी जीत बताई, क्योंकि उसकी सेना की एक छोटी टुकड़ी एक बड़ी सेना के सामने भी पस्त नहीं हुई थी। लेकिन उस अनिर्णित युद्ध या अंग्रेजी की विजय को महार अपनी विजय और पेशवा की पराजय बताकर एक गलत इतिहास पेश कर रहे हैं और इसी गलत इतिहास का डंक नये साल के पहले दिन महाराष्ट्र को लगा है। (संवाद)
कोरेगांव की हिंसा और उसके बाद
झूठे इतिहास का डंक
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-01-05 10:26
नये साल की शुरुआत भारत के लिए शुभ नहीं कही जा सकती, क्योंकि पहले दिन ही देश में जातीय हिंसा शुरू देखी गई। यह हिंसा मराठों और दलितों के बीच हुई। कोरेगांव की वह घटना, जिसमें दलित शौर्य दिवस के उत्सव में हिस्सा लेने वालों पर मराठों ने हमले किए, कोई ऐसी घटना नहीं है, जो तात्कालिक रूप से घटित होकर विस्मृति की भेंट चढ़ जाय। दरअसल यह घटना किसी क्षणिक क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि यह मराठों के दिल में पिछले कुछ सालों से बन रहे गुबार का परिणाम था। वह गुबार उन्हें दलित विरोधी बना रहा है।