आखिर सुप्रीम कोर्ट का कौन सा ऐसा संकट है, जिसे बताने के लिए चार जजों को देश के सामने खुलकर आना पड़ा? जो लोग सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली और न्यायपालिका मे जजों के आपसी रिश्तों को नहीं जानते, उन्हें तो यही लगेगा कि ये चार जज सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा कार्य मनमाफिक काम आबंटित नहीं किए जाने से नाराज थे, लेकिन सवाल यहां व्यक्तिगत मामले का है ही नहीं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की हैसियत अन्य जजों के बीच वैसी नहीं होती है, जैसी प्रधानमंत्री की हैसियत उनकी मंत्रिपरिषद के मंत्रियों के बीच होती है। किसी व्यक्ति को मंत्री बनाना प्रधानमंत्री का अपना विशेषाधिकार होता है और मंत्रियों को काम का विभाजन करना भी प्रधानमंत्री की मर्जी पर निर्भर करता है। प्रधानमंत्री मंत्रियों द्वारा लिए गए निर्णयों पर रोक भी लगा सकता है या यह आदेश जारी कर सकता है कि मंत्री निर्णय लेने के पहले प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति भी हासिल कर लें।
परन्तु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस न तो अपने मन या इच्छा से किसी को जज बना सकते और न ही वे अन्य जजों को आदेश दे सकते हैं कि मुकदमे की सुनवाई के बाद वे क्या फैसला करें। कुछ शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अन्य जजों के बाॅस नहीं होते। किसी बेंच के सभी जज बराबर होते हैं, भले उनमें से कोई सेवा अवधि के मामले में दूसरे से वरिष्ठ हों। यदि किसी सुप्रीम कोर्ट के जज भी किसी बेंच का हिस्सा हों और उनका दिया गया फैसला बहुमत फैसले से अलग है, तो चीफ जस्टिस का फैसला अल्पमत का फैसला होने के कारण कोर्ट का आॅर्डर नहीं कहा जाता। इसलिए सबसे पहले तो यह मान लिया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के जज अन्य जजों के बाॅस नहीं होते।
लेकिन चीफ जस्टिस के रूप में उनके पास प्रशासनिक अधिकार है, जिसके तहत वे मामलों को अलग अलग बेेच को आबंटित करते हैं। इस तरह का निर्णय किसी एक व्यक्ति को तो लेना ही होता है और वह व्यक्ति चीफ जस्टिस हैं। इसके बावजूद चीफ जस्टिस को अन्य जजों को बाॅस नहीं माना जाता, बल्कि बराबर हैसियत वाले लोगो में पहला व्यक्ति माना जाता है। पहले व्यक्ति की हैसियत से ही वह तय करते हैं कि कोई मामला आया हुआ है, तो उसके लिए किस प्रणाली से किसे उस मामले को आबंटित किया जाय।
जैसा कि चार वरिष्ठ जजों ने कहा है कि समस्या मामले के आबंटन को लेकर ही है। पहले से एक कायदा विकसित हुआ है और उस कायदे के अनुसार वरिष्ठताक्रम के आधार पर केस का आबंटन जजों और बेंच में होता है। सबसे पहले चीफ जस्टिस को सुनवाई का अधिकार है, लेकिन यदि वे पहले से ही पर्याप्त मामले देख रहे हैं, तो उसके बाद उनके बाद जो वरिष्ठ जज हैं, उनके पास मामला जाएगा और यदि वे भी पर्याप्त मामले देख रहे हैं, तो वरिष्ठताक्रम में उनके बाद के जज के पास मामला जाएगा। इस तरह से एक ऐसी व्यवस्था विकसित हो गई है, जिसके कारण यह शिकायत करने का मौका मुकदमे के किसी पक्ष को भी न हो कि उसके मामले को ऐसे बेंच में डाल दिया गया, जहां वह अपने को बहुत सहज नहीं महसूस करता है और वह सुप्रीम कोर्ट में जानबूझकर किया गया।
इस तरह मनमाने तरीके से किसी मामले को किसी बेंच में भेजे जाने की संभावना को निरस्त करने के लिए एक प्रणाली बनी हुई थी, लेकिन वर्तमान चीफ जस्टिस पर आरोप है कि उस प्रणाली को ध्वस्त कर वे मनमाने तरीके से मामलों का आबंटन जजों के बीच कर रहे हैं। जिन चार जजों ने विद्रोह का बिगुल बजाया है, वे सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठताक्रम में क्रमशः दूसरे, तीसरे, चैथे और पांचवें नंबर के जज हैं। बताने की जरूरत नहीं कि वरिष्ठताक्रम में चीफ जस्टिस पहले नंबर पर हैं। इन जजों को लग रहा है कि चीफ जस्टिस अपने पसंदीदा जजों को मामला विशेष सुनवाई के लिए दे रहे हैं, जो बहुत ही आपत्तिजनक है, क्योंकि इससे सुप्रीम कोर्ट के अंदर की संस्कृति तो खराब होगी ही, बाहर के लोगों को भी सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करने का मौका मिल जाएगा कि जानबूझकर फलां जज या जजों की बेंच को यह मामला सौंप दिया गया और वे यह भी संदेह खड़़ा कर सकते हैं कि इसमें किसी न किसी प्रकार की फिक्सिंग होती है।
इस तरह का संदेश देश में जाना निश्चय ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए घातक है और इससे लोकतंत्र के भविष्य पर भी सवाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। इसलिए इन चार जजों ने जो सवाल उठाए हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। यह सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान से ही नहीं बल्कि भविष्य से भी जुड़ा हुआ है।
प्रेस कान्फे्रंस कर सुप्रीम कोर्ट के अंदर की प्रशासनिक व्यवस्था को आम लोगों के सामने पेश कर एक अभूतपूर्व काम इन जजों ने किया है और यह निश्चय ही हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। लेकिन हमें उम्मीद करनी चाहिए कि चीफ जस्टिस अन्य जजों के साथ मिलकर इस संकट को दूर कर लेंगे और किसी को सुप्रीम कोर्ट की अंदरूनी प्रशासनिक व्यवस्था पर अंगुली उठाने का मौका नहीं देंगे। (संवाद)
सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम संकट
न्यायपालिका की विश्वसनीयता खतरे में
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-01-14 11:57
देश की न्यायपालिका के लिए पिछले 12 जनवरी का दिन एक दुर्भाग्यपूर्ण दिवस के रूप में ही देखा जाएगा, क्योंकि उस दिन सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रेस कान्फ्रेंस कर सुप्रीम कोर्ट के जज पर कुछ बहुत ही गंभीर आरोप लगाए। आरोपों की गंभीरता तो अपनी जगह पर है, चार जजों का सुप्रीम कोर्ट के अंदर के प्रशासनिक हालातों पर असंतोष जताते हुए मीडिया से मुखातिब होना अपने आपमें एक अभूतपूर्व घटना थी। ऐसा आजतक हमारे देश में नहीं हुआ था। हम चाहेंगे कि आगे इस तरह का कोई मौका नहीं आए।