एक समय था जब दलित, आदिवासी, मुस्लिम, ब्राह्मण और कुछ अन्य पिछडे समुदाय उसकी राजनीतिक शक्ति के मुख्य स्रोत हुआ करते थे। इन्हीं समुदायों से मिलने वाले समर्थन के बूते वह देश पर और देश के विभिन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज थी। देश की राजनीति में जो अखिल भारतीय रूतबा कभी कांग्रेस का हुआ करता था, वह अब भारतीय जनता पार्टी का है। जिन-जिन सूबों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है, वहां दलित, आदिवासी, ब्राह्मण और अन्य पिछडी जातियां अब भाजपा के साथ है। मुसलमान जरूर विकल्पहीनता के चलते आधे-अधूरे मन से कांग्रेस के साथ है, लेकिन वह भी सिर्फ वहां-वहां पर ही जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है।
सवाल है कि कांग्रेस का मुसलमानों के रूप में सबसे विश्वसनीय जनाधार उससे क्यों छिटक रहा है या मन मसोस कर उसके साथ बना हुआ है? दरअसल इस स्थिति की सबसे बडी वजह यह रही कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुसलमानों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा। इसका नतीजा यह हुआ कि आज हमारे राष्ट्रीय जीवन में मुसलमानों की स्थिति कई मायनों में तो दलितों और आदिवासियों से भी बदतर है। दलितों और आदिवासियों को तो संसद और विधानमंडलों मे उनकी आबादी के अनुपात मे आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन मुसलमानों के साथ ऐसा नहीं है।
राजनीतिक रूप से ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक क्षेत्र में भी मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हालांकि इन क्षेत्रों में उनके पिछडेपन के लिए ऐतिहासिक कारण भी जिम्मेदार है। दरअसल, जब देश का बंटवारा हुआ तब मुसलमानों का जो संपन्न, मध्यवर्गीय और पढा-लिखा तबका था, उसका काफी बडा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर अपने मुस्तकबिल को भारत से जोडते हुए यहीं रहने का फैसला किया, उनमें ज्यादातर वे ही थे जो खेती, दस्तकारी और कारीगरी जैसे पारंपरिक उद्योग-धंधों से जुडे थे या अन्य कामों मे मेहनत-मजदूरी कर अपना जीवन-यापन कर रहे थे। मुसलमानों के स्वार्थी और दकियानूसी नेतृत्व वर्ग की ओर से भी इस दिशा मे कुछ करने की कोशिश तो दूर, सोचने तक की जहमत नही उठाई गई। आम मुसलमान को हमेशा उर्दू, मस्जिद, शरीअत जैसे भावुक मसलों में उलझा कर रखा गया। रही सही कसर समय-समय पर यहां-वहां होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने पूरी कर दी।
मुसलमानों को अपनी इस हालत के बावजूद तुष्टिकरण के आरोप का यह दंश लगातार झेलना पडता है कि कांग्रेस के शासनकाल में उन्हें जरुरत से ज्यादा रियायतें दी गई और उनकी हर जायज-नाजायज मांगें पूरी की गई। यही नहीं, अगर मुसलमान अपने साथ सामाजिक-प्रशासनिक स्तर पर होने वाले भेदभाव या ज्यादती को लेकर कुछ शिकायत करते हैं तो उन्हें यह उलाहना भी सुनने को मिलता रहता है कि वे यहां क्यों रह रहे हैं, पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते। उनकी आबादी को लेकर भी मनमाने आंकडे पेश कर उन्हें बदनाम किया जाता है और हिदुओ में यह काल्पनिक भय भरा जाता है कि मुसलमान जल्द ही इस देश मे बहुसंख्यक हो जाएंगे।
कांग्रेस का नया नेतृत्व यानी राहुल गांधी तो अपने पूर्ववर्तियों से भी ज्यादा भीरू नजर आते हैं। वे भाजपा की चुनौती का मुकाबला उसी के अंदाज में करना चाहते हैं। अति-उत्साही बडबोले नेताओं, अमीर घरानों या पार्टी के दिवंगत या रिटायर हो चुके बडे नेताओं के बेहद अहंकारी बेटे उनकी मंडली में शामिल हैं। इनका एक बडा हिस्सा ‘नरम हिंदुत्व’ की लाईन का जबर्दस्त पैरोकार बना हुआ है। कांग्रेसियों का यह वर्ग गुजरात के चुनाव अभियान के दौरान राहुल गांधी के डेढ़ दर्जन से अधिक मंदिरों में जाने को इसका आधार बना रहा हैं। वह गुजरात में कांग्रेस को जो सीमित और संभावनाभरी सफलता मिली है उसका श्रेय राहुल की मंदिर यात्राओं को दे रहा हैं। जबकि हकीकत यह नहीं है। कांग्रेस को जो कामयाबी मिली है वह मंदिर-मंदिर जाने या जनेऊ दिखाने से नहीं मिली है। उसे यह कामयाबी बुनियादी मुद्दों को उठाने और उभरते नए सामाजिक समीकरणों को साधने से मिली है।
कांग्रेस में कुछ नेताओं का मत है कि कुछ साल पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता एके एंटनी की अगुवाई में गठित कमिटी ने भी कहा था कि देश में कांग्रेस की छवि अल्पसंख्यक यानि मुस्लिम परस्त पार्टी की बनती गई, जिससे भी काफी नुकसान हुआ। इस तरह की धारणा को पार्टी मे ‘अंतिम सत्य’ के रूप मे मान्यता दिलाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन पार्टी में इस बात पर कोई नहीं सोच रहा है कि लगातार चुनावी हार के पीछे पार्टी की अगुवाई में कई साल तक चली सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीतियों में वे बड़ी खामियां थीं, जिन्हें लेकर समाज में गहरी नाराजगी पैदा हुई, जिसका भाजपा ने जमकर इस्तेमाल किया। यह सवाल भी पार्टी के रणनीतिकार की सोच के दायरे में नहीं है कि उत्तर प्रदेश और बिहार का मुसलमान पिछले तीन दशक से क्यों कांग्रेस से दूरी बनाए हुए है।
कांग्रेस को भाजपा से अगर कुछ सीखना ही है तो वह उससे संगठन कौशल सीखे, गठबंधन की राजनीति सीखे, राजनीतिक आक्रामकता सीखे, मीडिया प्रबंधन सीखे, लेकिन इस सब में न तो कांग्रेस नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नजर आती है और न उसकी भक्त मंडली की। दरअसल, ‘नरम हिंदुत्व’ और कुछ नहीं महज एक मूर्खतापूर्ण राजनीतिक टोटका और भाजपाई नौटंकी की फूहड नकलपट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। इस टोटकेबाजी से कांगेस अपना खोया हुआ जनाधार तो कभी हासिल नहीं ही कर पाएगी, उलटे खुद को न सिर्फ साथ गांधी-नेहरू की विरासत से बल्कि अपने बचे-खुचे जनाधार से भी दूर कर लेगी। (संवाद)
ऐसे तो अपना बचा-खुचा जनाधार भी गंवा देगी कांग्रेस
‘नरम हिन्दुत्व’ की राजनीति उसे डुबा देगी
अनिल जैन - 2018-01-17 11:18
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों अपने जीवन के सबसे चुनौती भरे दौर से गुजर रही है। देश की आजादी के बाद लगभग चार दशक तक (ढाई साल के जनता पार्टी के दौर को छोडकर) केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश राज्यों में लगभग निर्बाध रूप से सत्ता पर काबिज रही यह पार्टी आज केंद्र शासित प्रदेश समेत महज पांच अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में सिमटकर रह गई है। लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या महज 46 है।