देश में बढ़ते बेरोजगारी ने अब राजनीति विमर्श की मुख्यधारा में अपना स्थान बना लिया है और इस समस्या को हल करने को प्राथमिकता सरकार को देनी ही होगी। पर सच यह भी है कि देश की भयानक बेरोजगारी के निदान का रास्ता लघु उद्योगों के रास्ते से ही जाता है। जाहिर है, लघु उद्योगों से संबंधित सरकार को कुछ ऐसे निर्णय करने होगे, जो महज रस्मी नहीं हो, बल्कि जो अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से प्रभावित करे और जिससे करोड़ों की संख्या में रोजगार पैदा हो।

लघु उद्योगों में ही देश की सबसे विकराल आर्थिक समस्याए जैसे- बेरोजगारी, आर्थिक विषमता और क्षेत्रीय विषमता का समाधान है। यह नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया भी स्वीकार कर चुके हैं। पिछले सप्ताह प्रकाशित अपने एक शोधपरक लेख में उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज माॅडल (आरआईएल) और शाही एक्सपोर्ट्स माॅडल की तुलना करते हुए कहा है कि भारत की बेरोजगारी शाही एक्सपोर्ट्स माॅडल से ही दूर हो सकती है और सरकार को अपने आर्थिक विकास का यही माॅडल अपनाना चाहिए। गौरतब हो कि शाही एक्सपोटर््स एक निर्यात हाउस है, जो लघु उद्यमियों द्वारा तैयार सिले सिलाए कपड़े का निर्यात करता है और देश का सबसे बड़ा निर्यातक है।

पनगढ़िया ने बताया है कि आरआईएल जितने एसेट्स में 5 लोगों को रोजगार देता है, शाही एक्सपोर्ट्स उतने ही एसेट्स में 1260 लोगों को रोजगार देता है। यानी जितना निवेश में आरआईएल जितने लोगों को रोजगार देता है, उससे 252 गुना ज्यादा लोगों को शाही एक्सपोर्ट्स के कारण उतने ही निवेश में रोजगार मिलता है। जाहिर है, भारत जैसे देश में महात्मा गांधी का वह दर्शन अभी भी कामयाब है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमें वह उत्पादन प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जिसमें भारी पैमाने पर लोगों को लगाया जा सके, न कि वह प्रक्रिया, जिसमें भारी पैमाने पर तो उत्पादन होता हो, लेकिन भारी पैमाने पर लोग उस उत्पादन प्रक्रिया में शामिल न हों।

जाहिर है, आज देश जिस बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है, उसका समाधान लघु उद्योग को बढ़ावा देना ही हो सकता है। वैसे लघु उद्योगों को बढ़ावा देने का एक इतिहास रहा है। अनेक आयटमों को उत्पादन 1991 के पहले लघु उद्योगों द्वारा ही किया जा सकता था। लेकिन 1991 के बाद अपनाई गई नीतियों के तहत यह संरक्षण समाप्त कर दिया गया और बड़े उद्योगों को भी उनमें प्रवेश का मौका मिला। यह दूसरी बात है कि संरक्षण मिटाने के बाद भी बड़े उद्योगपतियों की दिलचस्पी उसमें नहीं जगी, क्योंकि श्रम बहुल उत्पादनों में उनकी रुचि ही नहीं थी। उनका जोर पूंजी बहुल उत्पादन में ही है।

और यही कारण है कि विकास की गति तेज होने के बावजूद रोजगार सृजन की गति तेजी नहीं पकड़ पाई। 2000 के बाद से ही हमारी अर्थव्यवस्था रोजगारविहीन विकास के दौर में है। इस दौर से कैसे मुक्ति पाई जाए, इसके बारे मे हमारे नीति निर्माताओ को पता है, लेकिन वे उधर देख ही नहीं रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने एस पी गुप्ता के नेतृत्व में एक ग्रुप को लघु उद्योगों को नई दशा और दिशा देने के लिए अध्ययन करने का जिम्मा दिया था। उस ग्रुप ने रिपोर्ट भी दी, लेकिन यूपीए की 10 सालों की सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मोदी सरकार ने भी अब तक उसकी उपेक्षा ही की है, लेकिन यदि बेरोजगारी के संकट से देश को उबारना है, तो गुप्ता रिपोर्ट की सिफारिशों को आगामी बजट में जगह देनी ही होगी।

वैसे भी मोदी सरकार का मौजूदा कार्यकाल अब लगभग सवा साल ही बचा है। आगामी बजट इस सरकार का अंतिम भरा- पूरा बजट होगा और इस बजट के परिणाम या दुष्परिणाम आने वाले दिनों की राजनीति भी तय कर सकते हैं, क्योंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी भाजपा के सामने आज अगर कहीं चुनौती है, तो वह अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में ही है। यदि सरकार इस चुनौती को सही ढंग से स्वीकार करने में सफल नहीं रही, तो पता नहीं यह आर्थिक चुनौती कब उसके लिए एक बड़ी राजनैतिक चुनौती के रूप में तब्दील हो जाय।

गुप्ता रिपोर्ट ने लघु उद्योगों की अनेक समस्याओं पर प्रकाश डाला है, जिनमें उनकी परिभाषा, उनका विभाजन, उनका वित्तपोषण से लेकर अन्य प्रकार की मौद्रिक और राजकोषीय समाधान की बात की गई है। जीएसटी के इस दौर में उनके लिए टैक्स रियायत देने से कर व्यवस्था के और भी जटिल हो जाने की संभावना है, लेकिन सरकार दूसरे तरीके से उनकी वित्तीय समस्याओं का समाधान कर सकती है। सरकार लघु उद्योगों के लिए अलग से बैंकों की शाखाएं स्थापित कर सकती हैं। निर्यात के लिए उत्पादन करने वाले लघु उद्योगों को सरकार जीएसटी की जटिलता से निदान दिला सकती है, क्योंकि इसके कारण उत्पादक और निर्यातकों के बीच के संबंध गड़बड़ा रहे हैं और इसके कारण निर्यात कमजोर हो रहा है। निर्यातकों को हो रही दिक्कतों के कारण उनको सप्लाई करने वाले उत्पादकों को भी भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

जब लघु उद्योग की बात होती है, तो श्रम कानूनों का मसला भी होता है। लघु उद्योगों का संरक्षण अनेक क्षेत्रों से हटा दिए जाने के बाद भी यदि बड़े उद्यमी उन क्षेत्रों से दूर रहे, तो उसका कारण श्रम कानून ही हैं। उनमें भी सुधार की जरूरत है, हालांकि श्रमिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हुए ही उनमें सुधार आने चाहिए।

एक और बड़ा निर्णय सरकार लघु उद्योगों के लिए कर सकती है और वह है उन्हें रोजगार सब्सिडी देना। रोजगार सृजन के अनेक कार्यक्रम सरकार चलाती है। मनरेगा उसमें सबसे बड़ा कार्यक्रम है। कहा जाता है कि उसका अधिकांश पैसा बर्बाद हो रहा है। मनरेगा को लघु उद्यमियों द्वारा पैदा किए गए रोजगार भी जोड़ा जा सकता है, जिसके तहत श्रमिक को आंशिक रूप से सरकार वेतन दे और आंशिक रूप से उद्यमी। इस तरह मनरेगा का इस्तेमाल दूर दराज इलाकों में लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है। (संवाद)