विधायिका में संसद एवं राज्यों के विधानमंडल शामिल हैं। संसद के दो सदन होते हैं (राज्यसभा एवं लोकसभा)। इसी तरह विधानमंडल के भी दो सदन होते हैं (विधानसभा एवं विधानपरिषद)। इनमें विधानसभा एवं लोकसभा के सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं। वैसे कई राज्यों में विधानपरिषद नहीं है।

हमारे गणतंत्र में संसद को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। उसके हाथ में देश की सत्ता रहती है। उसके द्वारा बनाए गए कानूनों से ही देश का शासन संचालित होता है। हमारे लोकतंत्र के प्रारंभिक वर्षों में सभी संसद की गरिमा का सम्मान करते थे। संसद में होने वाली चर्चाओं को ध्यान से सुना जाता था। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संसद का अत्यधिक सम्मान करते थे। जब भी संसद का सत्र होता था वे दिन भर लोकसभा या राज्यसभा मंे उपस्थित रहते और बहस में भाग लेते थे। प्रारंभ की संसदों में बहस का स्तर अत्यधिक उच्च रहता था। कोई भी विधेयक या प्रस्ताव बिना पर्याप्त बहस के पारित नहीं होता था। उस समय के सांसदों की वक्तृव्य कला को आज भी याद किया जाता है। उस समय के सांसदों में हरिविष्णु कामथ, नाथ पाई, श्यामा प्रसाद मुकर्जी, भूपेश गुप्त, ए. के. गोपालन, प्रोफेसर हीरेन मुकर्जी, मधु लिमये, डाॅ. राममनोहर लोहिया, मधु दंडवते, एस. के. डांगे आदि के भाषणों को लोग आज भी भुला नहीं सके हैं। धीरे-धीरे संसद मंे होने वाली कार्यवाहियों का स्तर गिरने लगा। बाद के प्रधानमंत्रियों ने संसद को दिए जाने वाले सम्मान में कमी कर दी। एक समय ऐसा आया जब संसद में बहस होना लगभग बंद हो गया। संसदीय प्रजातंत्र को ‘‘डेमोक्रेसी विथ डायलाग‘‘ कहा जाता है। परंतु धीरे-धीरे डायलाग गायब हो गये और उसका स्थान डिसरप्शन (होहल्ला) ने ले लिया। स्थिति यहां तक आ गई कि बजट भी बिना बहस के पारित होने लगा। इससे देश व जनता के हित के महत्वपूर्ण फैसले बिना गहन चिंतन के लिए जाने लगे।

धीरे-धीरे संसद के प्रभाव में कमी आती गई। अभी कुछ समय पहले प्रणव मुकर्जी ने राष्ट्रपति पद से अवकाश लेते हुए संसद के गिरते स्तर पर गहन असंतोष जाहिर करते हुए इस बात की आशा प्रकट की थी कि शीघ्र ही इस स्थिति में सुधार आएगा।

लगभग इसी तरह की स्थिति राज्यों की विधानसभाओं की हो गई। कई राज्य विधानसभाओं की स्थिति तो संसद से ज्यादा बदतर है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। सभी जनप्रतिनिधि संस्थाओं में बड़ी संख्या में धनबलियों और बाहुबलियों का प्रवेश होने लगा। इससे भी इन महान संस्थाओं के स्तर में कमी आई। एक ओर जहां इन संस्थाओं के स्तर में कमी आई है वहीं दूसरी ओर हमारे जनप्रतिनिधियों के वेतन सुविधाओं में अनापशनाप वृद्धि हो गई। उनके वेतन-भत्ते कई गुना बढ़ गए। उन्हें एक बड़ी राशि पेंशन के रूप में मिलने लगी। यहां तक कि यदि वे एक दिन के लिए ही संसद या विधानमंडल के सदस्य रहे हों तो भी उन्हें पेंशन की पात्रता हो जाती है। सदस्य न रहने के बाद भी उन्हें लगभग वही सुविधाएं प्राप्त होती रहती हैं जो उन्हें सदस्य की हैसियत से मिलती हैं। उनकी सुविधाएं इतनी बढ़ गई हैं आम नागरिक के मन में उनके प्रति सम्मान में भारी कमी आ गई है। इसके अतिरिक्त चुनाव लड़ना इतना मंहगा हो गया है कि साधारण नागरिक के लिए चुनाव लड़ना उसकी पहुंच के बाहर हो गया है।

संसद हमारे देश की सर्वशक्तिमान संस्था है। यदि वह कमजोर होती है तो उसका सीधा प्रभाव देश पर पड़ेगा। इसलिए इस वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर हमें उन उपायों पर विचार करना होगा जिनसे संसद की गरिमा को पुनःस्थापित किया जा सके। इस दिशा में सबसे पहले उन प्रक्रियाओं को खोजना होगा जिनसे चुनाव पर होने वाले व्यय को कम किया जा सके। आजकल बहुसंख्यक राजनीतिक पार्टियां धनी लोगों को टिकिट देती हैं। आरोप तो यहां तक हैं कि पार्टियां टिकिट देने की भी फीस वसूलती हैं। सभी पार्टियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अपनी पार्टी केे कम से कम आधे टिकिट मध्यम वर्ग और उससे निचले वर्ग के लोगों को दिए जाएं। इस तरह के उम्मीदवारों का सीधा संपर्क आम लोगों से रहता है।

दूसरा मुद्दा है पेंशन का। एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को पेंशन की व्यवस्था बंद कर रही है वहीं सांसदों और विधायकों की पेंशन न सिर्फ जारी है, वरन् समय-समय पर उसमे बढ़ोत्तरी भी होती है। इसी तरह वेतन व भत्ते निर्धारित करने की वर्तमान प्रक्रिया भी समाप्त की जानी चाहिए। वर्तमान में सांसदों एवं विधायकों को स्वयं अपना वेतन-भत्ता निर्धारित करने का अधिकार है जबकि दुनिया के अन्य संसदीय प्रजातंत्र वाले देशों में वेतन भत्तें के निर्धारण के लिए आयोग या समिति का गठन होता है जिसमें बाहरी विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाता है। दुनिया के सबसे पुराने प्रजातंत्र ब्रिटेन में सांसदों के वेतन-भत्ते निर्धारित करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाता है। इस आयोग को यह आदेश दिया जाता है कि वह सांसदों के वेतन-भत्ते का निर्धारण इस प्रकार करे जिससे सांसद संसद की सदस्यता को अपना कैरियर न बनाएं और न ही वह इतना कम हो कि वे सांसद के रूप में अपनी जिम्मेदारियां भी पूरी न कर सकें। इस तरह के कदम उठाने से भी हमारे देश में जन प्रतिनिधियों का सम्मान बढ़ेगा।

हमारे देश के प्रजातंत्र का दूसरा महत्वपूर्ण स्तंभ है न्यायपालिका। संविधान में न्यायपालिका को पूर्ण रूप से स्वतंत्र इकाई का दर्जा दिया गया है। न्यायपालिका के कार्यकलापों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यहां तक कि स्वयं न्यायाधीश भी एक-दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इसके बावजूद न्यायपालिका की नींव कमजोर होती जा रही है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में न्यायपालिका की जो प्रतिष्ठा थी उसमें आज काफी कमी आ गई है। पूर्व में सिर्फ जिला स्तर की न्यायपालिका पर आरोप की ऊँगली उठाई जाती थी। परंतु बाद में उच्च और कभी-कभी उच्चतम न्यायालय पर भी आरोप लगने लगे।

पहले उच्च न्यायपालिका के आपसी मतभेद सार्वजनिक नहीं होते थे परंतु अभी हाल के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का आंतरिक विवाद सार्वजनिक हो गया और जो हमारे देश की न्यायपालिका के इतिहास में कभी नहीं हुआ व हो गया अर्थात न्यायाधीशों ने अपने मतभेदों को सार्वजनिक करने के लिए संवाददाता सम्मेलन बुलाया। इस असाधारण घटना का उल्लेख करते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार ने तीखी टिप्पणी करते हुए सही कहा कि ‘‘पहिले जनता न्यायाधीशों से न्याय मांगती थी अब न्यायाधीश जनता से न्याय की अपेक्षा कर रहे हैं।‘‘ जो कुछ सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर हुआ है उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि हमारे देश की इस महत्वपूर्ण संस्था में भी सड़ांध आने लगी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इस सड़ांध को दूर करने के लिए शीघ्र ही प्रभावी कदम उठाए जाएं ताकि इस संस्था में आम लोगों की आस्था फिर न डगमगाए। अभी कुछ दिन पहले उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश में यह कहा था कि निचले स्तर की न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की शिकायतें आए दिन आ रही हैं। इन शिकायतों का समाधान करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं।

न्यायपालिका से जुड़े अनेक गंभीर मसलों पर विचार कर उनका हल निकालना आवश्यक है। जैसे इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि वकीलों को न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति दी जाए या नहीं। वकालत का व्यवसाय एक तरफा वफादारी की अपेक्षा करता है। उसकी दिमागी शक्ति इस बात पर ज्यादा खर्च होती है कि कैसे निर्दोष को दोषी और दोषी को निर्दाेष साबित किया जाए। जिस व्यक्ति की बरसों से ऐसी कार्यप्रणाली हो वह कैसे न्यायाधीष की कुर्सी पर बैठकर यकायक निष्पक्ष हो जाएगा? इसलिए न्यायपालिका में नियुक्ति की प्रक्रिया बदलने पर विचार करना आवष्यक है। यह सोचा जा सकता है कि आईएएस, आईपीएस के समान अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जाए। ऐसा करने से न्यायपालिका में बेहतर प्रतिभा का प्रवेश संभव हो सकेगा।

हमारे लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ कार्यपालिका है। कार्यपालिका के दो अंग हैं। एक अस्थायी और दूसरा स्थायी। अस्थायी है मंत्रिपरिषद। वर्तमान प्रावधानों के अनुसार एक निरक्षर भी मंत्री बन सकता है। मंत्री बनने की पात्रता सांसदों और विधायकों को है। हमारे जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार संसद या विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता आवश्यक नहीं है। शायद अब समय आ गया है जब जनप्रतिनिधि बनने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की जाए। एक समय था जब मंत्रियों को बहुत कम उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना पड़ता था परंतु अब परिस्थिति बदल गई है। अब एक मंत्री को अत्यधिक कठिन तकनीकी एवं वैज्ञानिक मामलों की भी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है।

स्थायी कार्यपालिका में शीर्ष पर आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अधिकारी आदि रहते हैं। वैसे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका आईएएस अधिकारियों की रहती है। वर्तमान में इन तीनों सेवाओं के अधिकारियों का चयन संघ लोकसेवा आयोग अर्थात यूपीएससी करता है। अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि यूपीएससी की चयन प्रक्रिया मंे किसी प्रकार का पक्षपात होता है। इन सेवाओं के सदस्य जितनी आसानी से उच्च पदों पर पहुंच जाते हैं वह अन्य सेवाओं के सदस्यों के लिए संभव नहीं है। इन सेवाओं में पदोन्नति वरिष्ठता के आधार पर ही होती है। इस प्रक्रिया से कभी-कभी ऐसे अधिकारी सर्वोच्च पद पर पहुंच जाते हैं जिनमें उस पद से संबद्ध उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने की योग्यता नहीं होती। (संवाद)