मध्यवर्ग को उम्मीद थी कि आयकर के मोर्चे पर उन्हें कुछ राहत मिलेगी, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं है। न तो स्लैब मंे कोई बदलाव हुए और न ही आयकर देने की न्यूनतम सीमा में। हां, वेतनभोगी लोगों के लिए कुछ राहत जरूर दे दी गई है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ सेस बढ़ाकर आयकर के बोझ को बढ़ा ही दिया गया है, जिसके कारण देश का मध्यवर्ग अपने को ठगा महसूस कर रहा है।
बजट पेश करते हुए दावा किया गया है कि आयकर राजस्व में बढ़ोतरी हुई है। सच तो यह है कि बजट के पहले पेश किए जाने वाले आर्थिक समीक्षा में भी इसका दावा किया गया था। कई लाख नये आयकर दाता अब हमारे देश में हैं। इसे नोटबंदी का परिणाम बताया जा रहा है। पर यदि अब ज्यादा लोग कर देने लगे हैं यानी जो पहले कर नहीं देते थे, वे भी कर देने लगे हैं, तो कर की दर को घटाया क्यों नहीं गया? उलटे उस पर अधिभार ही क्यों लगा दिया गया? यह सवाल उठना स्वाभाविक है।
जीएसटी के अस्त्तित्व में आ जाने के बाद परोक्ष करों पर अब ज्यादा कुछ करने के लिए केन्द्र सरकार के पास नहीं बचा है। पेट्रोलियम उत्पाद जीएसटी के दायरे से बाहर है और सीमा शुल्क भी जीएसटी में समाहित नहीं हो सका है। पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क घटाकर उसे कुछ सस्ता करने की कोशिश की गई है, लेकिन सवाल उठता है कि मोदी सरकार के गठन के बाद तेल पदार्थों के उत्पाद शुल्कों में जितनी वृद्धि की गई थी, वह सब वापस क्यों नहीं ली गई?
सरकार ने एक नया तरीका अपना रखा है। कहने को वह कहती है कि पेट्रोलियम उत्पादों को उसने बाजार पर छोड़ दिया है और उनकी कीमतें तेल व गैस कंपनियां तय करती हैं। जाहिर है, जब कच्चे तेल की कीमत विश्व बाजार में गिरे तो यहां उनके उत्पाद सस्ते होने चाहिए, लेकिन सरकार उन पर टैक्स लगाकर उन्हें सस्ता नहीं होने देती और जब विश्व बाजार में कच्चा तेल महंगा हो रहा है, तो सरकार टैक्स को हटाने के लिए तैयार नहीं है। इस बजट में भी जेटली से तेल के मार्फत सरकार द्वारा की जा रही लूट से जनता को कोई राहत नहीं दी है और आने वाले दिनों में यदि कच्चा तेल और महंगा होता है, तो उनके उत्पाद और महंगे होंगे और उनकी महंगाई से परिवहन व्यवस्था तो महंगी होगी ही, देश में महंगाई भी तेजी पकड़ सकती है और इसके लिए केन्द्र सरकार की पेट्रोलियम टैक्स नीति पूरी तरह जिम्मेदार होगी।
स्वास्थ्य क्षेत्र में गरीबों के लिए बीमा की व्यवस्था की गई है। पता नहीं, प्रधानमंत्री इस तरह का मजाक गरीबों के साथ क्यों करते हैं? वे कभी कृषि बीमा की बात करते हैं, तो कभी अटल पेंशन स्कीम लागू करते हैं। उन्हें शायद यह पता नहीं कि हमारी वित्तीय व्यवस्था इतनी लचर है और हमारे गरीब व ग्रामीण इतने लाचार हैं कि वे न तो बीमा को समझते हैं और न ही बीमा एजेंट को। यह सब उनके लिए जुमलेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं है। यदि सरकार को उनकी समस्याओं से उन्हें मुक्ति दिलानी है, तो उनके लिए सीधे काम करना पड़ेगा। उन्हे बीमा एजेंटों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
आज देश में किसानों की हालत बेहद पतली है। खेती करने की कीमतें बढ़ती जा रही हैं और उससे होने वाली आय घटती जा रही है। दूसरी तरफ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के महंगी होते जाने के कारण किसानों का खर्च भी बढ़ता जा रहा है। सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं देती। उन्हें निजी सेक्टर को सौंपा जा रहा है और वहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा लेने वालों का भारी शोषण होता है। सरकार को उन पर नकेल डालनी चाहिए, लेकिन इस बजट में ऐसा किया ही नहीं गया है। फिर कुछ वायदे कर दिए गए हैं कि सरकार अस्पताल बनाएगी। पर पहले से जो अस्पताल हैं, उनकी गुणवत्ता क्या है और जो नये बनेंगे उनकी क्या होगी? और यदि उनकी गुणवत्ता खराब होगी, तो लोग निजी अस्पतालों की शरण में अपनी जान बचाने के लिए जाएंगे और फिर वहां शोषण का शिकार होकर गरीबी की ओर धकेल दिए जाएंगे।
जाहिर है, शिक्षा और स्वास्थ्य पर जिस तरह का रवैया सरकार को अपनाना चाहिए था, वैसा नहीं अपना रही है। वह न तो निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों और अस्पतालों पर किसी प्रकार की पाबंदी लगा रही है और न ही सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और अस्पतालों की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास कर रही है, बल्कि उसका जोर उनकी गुणवत्ता गिराने की है। होना तो यह चाहिए कि जो भी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी हैं उन सबके बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में कम से कम मैट्रिक तक पढ़ने का कानून बना देना चाहिए, तभी सरकारी विद्यालयों के दिन बहुरेंगे।
इस बजट में सबसे अच्छी बात आधार की अवधारणा का काॅर्पोरेट सेक्टर में विस्तार किए जाने की घोषणा है। आधार वास्तव में भ्रष्टाचार मिटाने के एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में सामने आ रहा है। कंपिनयों का आधार बनाने की घोषणा अच्छी है, लेकिन पहले खबर आ रही थी कि सभी निजी संपत्तियों को भी आधार से लिंक करने की सरकार की मंशा है, लेकिन इसके बारे में कोई खास बात नहीं की गई। यदि सभी निजी संपत्तियों को आधार से लिंक कर दिया जाय और कंपनियों के साथ साथ गैर सरकारी संगठनों को भी आधार दे दिए जाएं, तो भ्रष्टाचार पर बेहतर तरीके से हमला किया जा सकता है और बेनामी संपत्तियों के रोग से छुटकारा पाया जा सकता है। इस बजट में तो इसके संकेत नहीं हैं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री लोकसभा चुनाव के पहले इस तरह के कानून लेकर सामने आ जाएं। (संवाद)
जेटली का केन्द्रीय बजट रस्म अदायगी तक सीमित
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-02-01 10:37
इस बजट को आगामी लोकसभा चुनाव के पहले का पूर्ण बजट माना जा रहा था। जाहिर है, इसे चुनावी बजट भी हम कह सकते हैं। लेकिन क्या यह वास्तव में चुनावों को ध्यान में रखकर बनाया गया है? शायद चुनावों को ध्यान में रखकर बनाया गया हो और सरकार आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर जिस क्रूरता के लिए अब प्रसिद्ध हो गई है, उस क्रूरता से बचने की कोशिश की गई हो, लेकिन इस बजट से ऐसा कुछ भी नहीं लगता कि सरकार ने लोगों के दिलों अपना स्थान बनाने के लिए कोई प्रावधान किए हों।