प्रधानमंत्री को संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देना था। लेकिन अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने इस गंभीर मौके का इस्तेमाल भी चुनावी रैली जैसा भाषण देने के लिए ही किया। स्थापित संसदीय परंपरा यह है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का समापन करते हुए प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण में उल्लेखित मुद्दों पर अपनी सरकार का नजरिया पेश करते हैं। इसी क्रम में वे बहस के दौरान विपक्ष के आरोपों और आलोचना का भी जवाब देते हैं। लेकिन मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री ऐसा कुछ नहीं किया।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान विपक्ष ने कश्मीर घाटी में बिगडते हालात, सीमा पर पाकिस्तान के साथ बढते तनाव, डोकलाम में चीनी घुसपैठ, जीडीपी में गिरावट, किसानों की आत्महत्या, देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की घटनाओं, बेरोजगारी, रॉफेल विमानों की विवादास्पद खरीद आदि कई महत्वपूर्ण मसलों पर सवाल किए थे, लेकिन प्रधानमंत्री इन सवालों पर बोलने से साफ बच निकले। अपने भाषण के दौरान उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान, जनधन योजना, मुद्रा योजना, स्टार्ट अप, स्टैंड अप, मैक इन इंडिया आदि योजनाओं का जरूर जिक्र किया, लेकिन सरसरी तौर पर। हां, स्वच्छता अभियान को लेकर उन्होंने यह अतिश्योक्तिपूर्ण दावा जरूर किया कि उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले स्वच्छता के मुद्दे पर संसद में कभी चर्चा तक नहीं हुई, लेकिन वे यह दावा करने में भी अपने अज्ञान का परिचय दे बैठे। प्रधानमंत्री अगर पढने-लिखने और सीखने-समझने के मामले में थोडी भी रुचि रखते होते तो उन्हें यह मालूम होता कि पिछली शताब्दी के सातवें दशक में महात्मा गांधी के स्वच्छता के दर्शन को आगे बढाने का काम डॉ. लोहिया ने किया था। उन्होंने नदियों और देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों की स्वच्छता के मुद्दे पर लोकसभा में काफी गंभीर बहस की शुरुआत की थी।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण की शुरूआत करते हुए कहा कि राष्ट्रपति का भाषण किसी दल का नहीं होता है और इसलिए उसका सम्मान होना चाहिए। बिल्कुल ठीक कहा, लेकिन यह कहते हुए वे यह भूल गए कि प्रधानमंत्री भी किसी पार्टी का नहीं, देश का होता है। वे शुरू से आखिर तक प्रधानमंत्री की तरह नहीं बल्कि अपनी पार्टी के नेता की तरह बोले। उनके भाषण का फोकस राष्ट्रपति के अभिभाषण पर विपक्ष के आरोपों और सवालों पर बहुत कम और अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के कामकाज पर ज्यादा रहा।
प्रधानमंत्री ने लोकसभा में 90 मिनट और राज्यसभा में एक घंटे के अपने भाषण का तीन चैथाई हिस्सा अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों खासकर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और डॉ.मनमोहन सिंह की अप्रासंगिक निंदा करने में खर्च किया। इस सिलसिले में उन्होंने भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस और प्रकारांतर से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को जिम्मेदार ठहराया। यह सही है कि आजादी के समय देश की सबसे बडी और स्वाधीनता संग्राम की नेतृत्वकारी पार्टी होने के नाते भारत के विभाजन की जिम्मेदारी से कांग्रेस को बरी नहीं किया जा सकता। मौलाना आजाद, डॉ. राममनोहर लोहिया आदि ने भी इस बारे में लिखी अपनी पुस्तकों में मुहम्मद अली जिन्नाह के साथ-साथ कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व को विभाजन का गुनहगार माना है। लेकिन मोदी जिस कांग्रेस की बात कर रहे हैं वह कांग्रेस अकेल नेहरू की नहीं थी। उसमें सरदार पटेल भी थे और डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी। जनसंघ की स्थापना से पहले तक मुखर्जी भी नेहरू की सरकार में मंत्री थे, यानी प्रकारांतर से भारत विभाजन के गुनहगारों में वे भी शुमार होते हैं। लेकिन मोदी के निशाने पर सिर्फ नेहरू रहे। यह मोदी का अधकचरा इतिहास बोध भी हो सकता है या इतिहास को अपनी सुविधा के मुताबिक तोडने-मरोडने की कुटिलता भी।
कश्मीर के बारे में अपनी पार्टी की पिटी हुई थ्यौरी के मुताबिक मोदी ने नेहरू के खिलाफ सरदार पटेल को खडा करने की हास्यास्पद कोशिश की। उन्होंने कहा कि अगर नेहरू के बजाय पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो पूरा कश्मीर भारत का होता। जबकि इतिहास में यह बात दर्ज है कि सरदार पटेल जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए ज्यादा इच्छुक नहीं थे। वह तो नेहरू ही थे जिन्होंने अपनी धरती का हवाला देकर लार्ड माउंट बेटन से गुजारिश की थी कि वे श्रीनगर जाकर महाराजा हरि सिंह को भारत के साथ रहने के लिए समझाए। हालांकि माउंट बेटन और हरि सिंह की मुलाकात नहीं हो सकी और पाकिस्तानी कबायली हमलावरों की आड लेकर पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर कबायलियों ने जो हमला किया उससे स्थिति बदल गई।
अपने पूर्ववर्ती डॉ मनमोहन सिंह को घेरने के लिए प्रधानमंत्री ने बैंकों की बदहाली का सहारा लिया, लेकिन इसमें भी वे बुरी तरह गच्चा खा गए। उन्होंने आरोप लगाया कि मनमोहन सिंह के शासनकाल में राष्ट्रीय बैंकों का नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) यानी डूबत ऋण 82 फीसद हो गया था, जिसके चलते सारे बैंक दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके थे। जबकि हकीकत यह है कि रिजर्व बैंक और 2014 के आर्थिक सर्वे के आंकडों के मुताबिक 2013-14 में एनपीए महज 3.8 फीसद था। दरअसल मोदी को जानकारी दी गई थी कि 52 लाख करोड रुपए की राशि बैंकों द्वारा कर्ज के रूप में दी गई है। मोदी उस कुल कर्ज राशि को ही एनपीए समझ बैठे और संसद में बयान झाड दिया कि कांग्रेस की सरकार ने उन्हें 52 लाख करोड रुपए यानी 82 फीसद एनपीए विरासत में दिया था। चूंकि तथ्यों को लेकर मोदी ज्यादा आग्रही नहीं रहते, सो कुछ भी बोल जाते हैं। यहां भी ऐसा ही करते हुए वे यह गलत बयानी कर गए। संसद में मौजूद उनके तमाम मंत्री और सांसदों ने मुग्ध भाव से शेम-शेम के नारों और मेजों की थप-थपाहट से उनके इस सनसनीखेज ‘मास्टर स्ट्रोक’ पर वाहवाही भी कर दी। भाजपा के प्रचार तंत्र ने भी प्रधानमंत्री के इस कथित मास्टर स्ट्रोक को सोशल मीडिया के जरिये फैलाने में देरी नहीं लगाई। लेकिन इस ‘मास्टर स्ट्रोक’ की असलियत सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। जैसे ही आधिकारिक आंकडों के साथ एनपीए की वास्तविक स्थिति सामने लाई गई, भाजपा ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से वह ट्विट हटा लिया। अलबत्ता मुख्यधारा का मीडिया जरूर निर्लज्जता के साथ प्रधानमंत्री की इस गलत बयानी को ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलाता रहा। (संवाद)
एक प्रधानमंत्री का ‘ऐतिहासिक’ स्तरहीन भाषण
बैंकों के एनपीए को लेकर भी गलतबयानी
अनिल जैन - 2018-02-08 10:32
एक राजनेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ख्याति’ भले ही एक कामयाब मजमा जुटाऊ भाषणबाज की रही हो, लेकिन उन पर यह ‘आरोप’ कतई नहीं लग सकता है कि वे आमतौर पर एक शालीन और गंभीर वक्ता है! चुनावी रैली हो या संसद, लालकिले की प्राचीर हो या फिर विदेशी धरती, मोदी की भाषण- शैली आमतौर पर एक जैसी रहती है- वही भाषा, वही अहंकारयुक्त हाव-भाव, राजनीतिक विरोधियों पर वही छिछले कटाक्ष, वही स्तरहीन मुहावरे। आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर गलत बयानी, तथ्यों की मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़, सांप्रदायिक तल्खी और नफरत से भरे जुमलों और आत्मप्रशंसा का भी उनके भाषणों में भरपूर शुमार रहता है।