लेकिन बेहतर होता यदि नीती आयोग ने इस विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए एक बहु-स्टेकहोल्डर समिति का गठन किया होता। लेकिन स्वास्थ्य संगठनों की स्थायी समिति के एक प्रमुख सदस्य जयराम रमेश द्वारा विरोध करने और सार्वजनिक बयान देने के बाद ही यह इस विधेयक को सार्वजनिक परामर्श के लिए स्थायी समिति के पास भेजा गया था।
एमसीआई ने उच्च पदस्थ लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। इसके पूर्व अध्यक्ष केतन देसाई तक पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। इस प्रकार वहाँ कुछ प्रभावी सुधारात्मक उपाय किए गए थे।  एमसीआई का पुनर्गठन किया जा सकता था। बड़े मामलों पर सरकारी नियंत्रण के साथ-साथ अपने स्वायत्त चरित्र के साथ अपने दिन-प्रतिदिन कार्य करने की आजादी को बनाए रखा जा सकता था। लेकिन सरकार ने एमसीआई को भंग करने और नए निकाय के  निर्माण का विचार किया, जिसे उसने एनएमसी का नाम दिया। बिल एक तरह से स्वयं नियामक तंत्र को खारिज कर देता है। इसके बदले यह विनियमन के एक तकनीकी नौकरशाही मॉडल पर जोर देता है। इसलिए, निकाय में 25 सदस्यों में से केवल पांच लोगों को चिकित्सा बिरादरी के बीच से चुना जाने का प्रस्ताव दिया गया है। यह दृष्टिकोण स्वशासन और लोकतंत्रीकरण के बुनियादी सिद्धांत का खंडन करता है। किसी भी स्वयं विनियमन की विफलता देश में प्रचलित सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिबिंब है। हालांकि, चूंकि स्वास्थ्य केवल चिकित्सा पेशेवरों की चिंता नहीं है, इसलिए इस तरह के निकाय में जनता से पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
विधेयक चिकित्सा शिक्षा प्रणाली और स्वास्थ्य सेवा की समस्याओं को पहचानने विफल रहा है। यह मूल समस्याओं को नजरअंदाज कर निजी क्षेत्र के लिए मेडिकल कॉलेजों को शुरू करना आसान बनाता है।
हमारे देश में चिकित्सा शिक्षा साधारण परिवारों के छात्रों की पहुंच के भीतर थी क्योंकि यह राज्य के क्षेत्र में थी। इन महाविद्यालयों को अच्छी तरह से विनियमित और आवश्यक मानक के अनुसार बनाए रखा गया था। भारत की मेडिकल काउंसिल की वेबसाइट से जानकारी के अनुसार, स्वतंत्रता के समय  20 कॉलेज थे, जिनमें से केवल एक ही निजी क्षेत्र में था। अस्सी के दशक के अंत तक अधिकांश नए सरकारी क्षेत्र में थे। लेकिन आर्थिक नीतियों में बदलाव के बाद परिदृश्य बदल गया। हम पाते हैं कि 1981 से 1990 की अवधि में 32 नए महाविद्यालयों में से 25 निजी क्षेत्र में खोले गए थे। 1991 से 2000 की अवधि में, 43 नए कॉलेजों में से 31 निजी क्षेत्र में थे और सरकारी क्षेत्र में केवल 12 थे। उसके बाद  2010 तक 123 कॉलेजों में से केवल 34 कॉलेजों को ही सरकारी क्षेत्र में खोला गया था और 89 निजी क्षेत्र में खोला गया था। यह प्रवृत्ति जारी रही और 2014 से 2017 तक तीन वर्षों में निजी क्षेत्र में खोले गए कॉलेज 58 थे जबकि सरकारी क्षेत्र में केवल 36।  इस प्रकार हम पाते हैं कि 1990 से 2017 की अवधि के बीच निजी क्षेत्र में 238 कॉलेज खोल दिए गए, जबकि सरकारी क्षेत्र में केवल 115। इनमें से कई को अपनी परीक्षा और प्रवेश प्रणाली और शुल्क संरचना के साथ डिम्ड विश्वविद्यालय बनाया गया था।
निजी क्षेत्र में इन सभी कॉलेजों में न केवल अत्यधिक शुल्क वसूला जा रहा है, बल्कि उनमें से कई फर्जी परीक्षाएं ले रहे हैं। डोनेशन के आधार पर प्रवेश लिया जा रहा था, जो कुछ मामलों में करोड़ों रुपए था। आश्चर्यजनक रूप से सीटों को अग्रिम में आरक्षित किया जाता था। वर्तमान विधेयक में इस विवादास्पद समस्या को नजरअंदाज किया गया है। यह कहता है कि सरकार केवल 40 प्रतिशत सीटों के लिए फीस को विनियमित करेगी, जबकि बाकी को प्रबंधन की दया पर छोड़ दिया जाएगा। इससे चिकित्सा शिक्षा की लागत और बढ़ जाएगी और उसके बाद स्वास्थ्य सेवा की लागत में भी वृद्धि होगी। (संवाद)
        
            
    
    
    
    
            
    मेडिकल शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा
ड्राफ्ट बिल मूल समस्याओं को नजरअंदाज करता है
        
        
              डॉ अरुण मित्रा                 -                          2018-02-17 10:10
                                                
            
                                            राम गोपाल यादव की अध्यक्षता वाली स्वास्थ्य स्थाई समिति ने विभिन्न हितधारकों को राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) पर अपने विचार रखने को कहा था। चूंकि स्वास्थ्य सबकी चिंता का मुद्दा है, इसलिए इस तरह की परामर्श प्रक्रिया एक स्वागत योग्य कदम है। सर्वोच्च न्यायालय ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के खराब प्रदर्शन का संज्ञान लेते हुए मेडिकल विनियमन को सुधारने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी और एक नई प्रणाली तैयार करने का निर्देश दिया था, जो चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल को सुव्यवस्थित करेगा। नतीजतन, नीति आयोग ने अपने वर्तमान रूप में एनएमसी को तैयार किया, जिसे सरकार संसद में पारित करना चाहती थी।