यदि दो में एक सीट भी भाजपा के हाथ में आ जाती, तो इसे मुख्यमंत्री अपनी और अपनी पार्टी की बड़ी जीत कह सकते थे, क्योंकि दोनों सीटें पहले कांग्रेस के पास थी। अब पार्टी के नेता यह कह सकते हैं कि इन उपचुनावों में उन्होंने कुछ नहीं खोया, क्योंकि ये सीटे उनके पास थी ही नहीं, लेकिन जीतने के लिए जिस स्तर का चुनाव प्रचार किया गया, उसके बाद इस तरह की बात में कोई दम नहीं हो सकता।

इस साल के अंत में मध्यप्रदेश विधानसभा के आमचुनाव होने जा रहे हैं। इन दोनों उपचुनावों को सेमी फाइनल के तौर पर देखा जा रहा था। यदि इसमें भाजपा की जीत होती, तो उसके कार्यकत्र्ता नये उत्साह के साथ आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी करते दिखते और कांग्रेसी खेमे में मायूसी छा जाती, जिसका फायदा फाइनल चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जरूर मिलता। पर अब उलटा हो रहा है। इस जीत से कांग्रेस में उत्साह है और भारतीय जनता पार्टी अपनी चुनावी रणनीतियों पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य हो रही है।

यह दोनों विधानसभा क्षेत्र ज्योतिरादित्या सिंधिया के प्रभाव के इलाके मे आते हैं। लिहाजा, कांग्रेस के साथ साथ सिंधिया की निजी प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई थी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने इसे सिंधिया बनाम सिंधिया चुनाव बनाना चाहा था। इसके कारण उन्होंने यशोधरा राजे सिंधिया को भी मैदान में उतार दिया था। लेकिन बाद में यह साफ हो गया कि मुख्यमंत्री यह यह रणनीति काम नहीं कर रही है, इसलिए फिर पुराने तरीकों को ही आजमाने की कोशिश की गई।

मध्यप्रदेश में उपचुनाव आम तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में जाते रहे हैं। लंबे समय तक भारतीय जनता पार्टी सत्ता में होने के कारण उस विधानसभा पर हुए उपचुनाव में भी बाजी मार लेती थी, जिस विधानसभा क्षेत्र का नतीजा पिछले आम चुनाव में विपक्षी पार्टी के पास गया हो। भाजपा के लिए जीत की उम्मीद का सबसे बड़ा आधार यह था। पर इस बार निराशा क्यों हाथ लगी और भाजपा अपने उम्मीदवारें की जीत के लिए कुछ और वोट का जुगाड़ क्यों नहीं कर पाई- यह सोचने का विषय है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की लोकप्रियता पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी लगातार यहां चुनाव जीत रही है। जब भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी कोई फैक्टर नहीं थे, उस समय भी पार्टी शिवराज सिंह के कारण चुनाव जीत जाती थी। आज तो खुद मुख्यमंत्री चैहान के अलावा नरेन्द्र मोदी भी एक बड़े फैक्टर हैं, जिनकी सहायता से भाजपा वोटों की फसल काटती है। लेकिन इन उपचुनावों मंे मुख्यमंत्री चैहान और प्रधानमंत्री मोदी के संयुक्त राजनैतिक अपील के बावजूद पार्टी के उम्मीदवार हो गए। यह तथ्य भाजपा के लिए चिंता का कारण होना चाहिए।

दरअसल नरेन्द्र मोदी का जादू अब कमजोर पड़ता जा रहा है। वे पहले की तरह अभी भी बहुत अच्छा भाषण करते हैं, लेकिन लगता है कि उनके भाषणों से अब जनता पहले की तरह चमत्कृत नहीं होती। उन्होंने लोगों की उम्मीदें बहुत बढ़ा दी थी, लेकिन वे पूरी होती नहीं दिखाई दे रही है। खुद प्रधानमंत्री भी अब यह दावा नहीं कर रहे हैं कि उन्होंने जो कहा था, वे कर ही दिया। अभी भी वे मतदाताओं को उम्मीद ही बेच रहे हैं और उन्हे यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि 2022 तक वे सबकुछ ठीक कर देंगे।

पर सवाल उठता है कि क्या देश की जनता मोदीजी को 2022 तक का समय देगी? यदि मध्यप्रदेश और राजस्थान के उपचुनाव कोई संकेत है, तो इससे यही लगता है कि अब उनके भाषणों को देश की जनता शक की दृष्टि से देखने लगी है और उनके नाम पर पार्टी को मिलने वाला वोट कम होने वाला है। 2013 के विधानसभा चुनाव जब हो रहे थे, तो उस समय तक मोदी जी भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार लगभग बन चुके थे, लेकिन शिवराज सिंह चैहान उनको ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे थे और पूरा चुनाव प्रचार मुख्यमंत्री चैहान के इर्द गिर्द ही केन्द्रित था। उसके बावजूद भाजपा को भारी जीत मिली थी। इसलिए अब मोदीजी के प्रभाव के कारण कम से कम इन दो उपचुनावों मे तो भाजपा के उम्मीदवार को फर्क पड़ना चाहिए था। पर वैसा हुआ नहीं।

मध्यप्रदेश उपचुनावों के नतीजे का एक संदेश यह भी है कि आने वाला समय श्री मोदी और भाजपा के लिए बहुत अनुकूल नहीं है। चुनाव जीतने के लिए उन्हे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, क्योंकि कांग्रेस के प्रति जो मोह भंग के हालात बने थे, वे हालात अब बदल रहे हैं। अब लोग कांग्रेस को एक बार फिर अपनी पसंद बनाने के लिए तैयार हो रहे हैं। यह प्रवृति खासतौर पर उन प्रदेशों में उभर रही है, जहां भाजपा के विरोध में कांग्रेस ही है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस ही है। (संवाद)