राज्य की सरकार ने बिहार दिवस के अवसर पर राज्य के विकास का ख्ूाब ढ़िंढ़ोरा पीटा और विकास दर, व्यापार की सहूलियत और सड़क से लेकर इंफ्रास्ट्क्चर के विकास के वे सारे दावे किए जो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के प्रचलित जुमले हैं। लेकिन बिहार की सच्चाई इससे मेल नहीं खाती है।
बिहार की बदहाली को जानने के लिए सबसे पहले वहां की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालनी चाहिए। विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों की नियुक्ति की बात तो जाने दीजिए, काम कर रहे शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। सत्र भी दो से तीन साल की देरी से चल रहे हैं।
बिहार के विकास की असली तस्वीर तो रेलगाड़ियों और प्लेटफार्मो पर खड़ी भीेड़ में दिखाई देती है। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, आपको टिकट खिड़की पर एक न एक बिहारी मिल जाएगा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक किसी भी बड़े या मंझोले शहर में रिक्शा-ठेला खींचने वाले, सब्जी-भाजी और पान की दुकान चलाने वालों में बिहारियों की एक बड़ी संख्या होती है।
इस यात्रा में सिर्फ यहां का निम्नवर्ग शामिल नहीं है। यहां के मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी जीवन भर चलते रहने वाले यात्री बन कर ही रह गए हैं। नौकरी के लिए उन्हें बाहर जाना ही पड़ता है। स्कूल-कालेजों की बुरी हालत के कारण पढाई के लिए भी उन्हें अपने बच्चे देश के दूसरे इलाके भेजने पड़ते हैं।
मानव विकास सूचकांक पर यह राज्य वर्षों से अंतिम पायदान पर है। बाल विकास दर में भी राज्य बहुत नीचे है। साक्षरता के मामले में भी यह लंबे समय से राष्ट्रीय औसत से नीचे के स्तर पर बना हुआ है। पिछले साल पब्लिक अफेयर्स इंडेक्स बताने वाली रिपोर्ट आई थी जिसमें वित्तीय प्रबंधन से लेकर कानून-व्यवस्था तक के दस मानकों के आधार पर राज्यों की स्थिति का मूल्यांकन किया गया था और उन्हें उस हिसाब से दर्जा दिया गया था। इसकी रिपोर्ट में केरल को पहला और बिहार को आखिरी स्थान दिया गया था। इससे बिहार के सुशासन के बारे में कई सालों से किए जा रहे दावों का खुलासा हो जाता है।
बिहार जैसे राज्य में सांप्रदायिक ंिहंसा किस तरह की स्थिति ला सकती है इसका अंदाजा अस्सी के दशक के अंत में हुए भागलपुर के दंगों मंे मारे गए मुसलमानों और उन्हें हुई जानमाल की हानि से लगाया जा सकता है।
लेकिन यह साफ दिखाई देता है कि जाति तथा वर्ण के पेंच को सुलझाने में यहां का समाज असमर्थ साबित हुआ है और इसने इसे बदहाली में पहंुचाने में खासी भूमिका निभाई है। औपनिवेशिक शोषण का माकूल जवाब देने में यह राज्य इसलिए असमर्थ रहा क्योंकि जाति तथा वर्ण ने उसके पैरों में जंजीर डाल रखी है। यह सिलसिला आजादी के बाद भी कायम रहा।
अंग्रेजों की लूट के बाद विपन्न हुए बिहार को फिर से उठकर खड़ा होने का मौका ही नहीं मिल रहा है। अंगं्रेजों के आने के पहले परंपरागत कारीगरी पर आधारित इन व्यवसायों में पिछड़ों तथा दलितों का बड़ा हिस्सा शामिल था। संपन्न खेती, खूबसूूरत जंगलों तथा नदियों की चंचल धाराओं ने बिहार को दुनिया के सर्वाधिक संपन्न इलाकों में बदल रखा था। भारत प्राचीन और मध्य काल में अगर कभी पहले तो कभी दूसरे नंबर (चीन तथा भारत में पहले नंबर के लिए प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी) की अर्थव्यवस्था थी तो इसमें बिहार का महत्वपूर्ण योगदान था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि मगध में शक्तिशाली साम्राज्य पैदा हुए।
एक समय कारीगरी तथा हुनर से लैस बिहार के लोग मजदूर अंगं्रेजों के राज में मजदूर बन गए। पलायन का एक न थमने वाला सिलसिला शुरू हो गया जो अभी तक जारी है। बिहार के लोकगीतों में कलकत्ते के लचकते पुल से लेकर वहां की हर सड़क और सोनागाछी जैसे सेक्स के बाजार का इतना जीवंत चित्रण है कि किसी भी महत्वपूर्ण साहित्य से इसकी तुलना हो सकती है।
बिहार बनने के ठीक पंाच साल बाद यहां के पीड़ित किसान महात्मा गंाधी को ढूंढ़ ले आए। उनकी खोज चंपारण तक ही नहीं थमी, नए विचारों को अपनाने का बिहार का यह प्रयास जारी रहा। साम्यवादी तथा समाजवादी विचारों को भी इसने खुले दिल से अपनाया। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर किसान अंादोलन और फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, इस समाज ने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। आजादी के बाद भी यह खोज जारी रही। डा लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बाबा साहेब अंाबेडकर से लेकर चारू मजुमदार तक इस समाज को प्रेरित करने वालों की लंबी फेहरिश्त है। सभी विचारधाराओं का प्रयोग-क्षेत्र रहा है बिहार।
कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की ताकतों का उदय हुआ और फिर लालू प्रसाद ने पिछड़े-दलितों की आक्रामक राजनीति शुरू की और हिंदुत्व की उभरती ताकत को मात देने लायक एक सामाजिक समीकरण भी बनाया, लेकिन वह परिवारवाद और अवसरवाद के दलदल में फंस गए। पिछड़े-दलितोें को साथ रखने में उनकी विफलता के कारण ही समता पार्टी और फिर जदयू जैसे दल उभर कर आए तथा नीतीश कुमार-भाजपा का गंठजो़ड़ सामने आया।
नीतीश कुमार के महागठबंधन छोड़ कर फिर से भाजपा के साथ आने और हिंदुत्व की शक्तियों को देशव्यापी उभार के कारण बिहार में इन शक्तियों को नई ताकत मिली है। राज्य साप्रदायिक ंिहंसा की चुनौती का सामना कर रहा है। लोगों को लग रहा है कि नौकरशाही पहले की तरह काम नहीं कर रही है। इससे अल्पसंख्यगकों के बीच असुरक्षा बढती जा रही है। (संवाद)
जाति के संघर्ष के कारण बिहार अपने पिछड़ेपन को दूर करने में विफल रहा है। कोढ़ में खाज की तरह सांप्रदायिकता भी अब घुस आई है।
बिहार को अपनी अस्मिता की तलाश करने की जरूरत है, न कि फिरकापरस्ती के दलदल में फंसने की। (संवाद)
हिंदुत्व बिहार की नई मुसीबत
इसे अपनी अस्मिता की तलाश करने की जरूरत
अनिल सिन्हा - 2018-04-02 09:36
बिहार ने पिछले 23 मार्च को 106 साल पूरे होने का जश्न मनाया। लेकिन ठीक इसी समय, राज्य के आठ शहरो मंे संाप्रदायिकता की आग भड़क उठी। इस आग से बचे रहने वाले बिहार में ऐसी स्थिति का आना राज्य के सामने नए खतरे का संकेत देता है। हर कसौटी पर पीछे चल रहे इस राज्य के पास दंगों और उपद्रव का दौर देखने का समय नहीं है। जातिवाद से झुुलस रहे इस राज्य में मजहबी जुनून इसे और भी पीछे ले जाएगा।