इस तरह के हालात में शामिल लोग भूल जाते है कि यह देश उनका अपना है, जो हम आंदोलन से देश को नुकसान पहुंचा रहे है उसकी भरपाई भी हम सभी को ही करनी है। राजनीतिक पार्टियां अपनी सियासी रोटियां इस तरह के आंदोलन की आड़ में सेकती चली जा रही है और देश इस तरह के आंदोलन से ग्रसित होकर दिन पर दिन बर्बाद होता जा रहा है।
इस तरह के आंदोलन में कश्मीर के अन्दर पत्थर बाज हो , सीमा पर आतंकवाद को शह देते अपने लोग हो, नक्सलवाद की उभरती तस्वीर हो या देश में होते धार्मिक उन्माद हो, सभी को समर्थन राजनीतिक दलों के द्वारा यहां मिल रहा है जिससे समस्यायं और उलझती जा रही है। देश में तोड़ - फोड़ की राजनीति से जुड़ी आंदोलन की राह राष्ट्रहित में कदापि नहीं हो सकती।
देश आज गुलाम नहीं स्वतंत्र है। यहां भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोपरि मानी गई है। जब किसी को भी कहीं सहारा नहीं मिलता वह न्यायपालिका का दरवाजा खटखाता है और उसे वहां से न्याय मिलने की पूरी आश रहती है। न्यायपालिका भी राष्ट्रहित में निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र है। अभी हाल ही में 20 मार्च 18 को सर्वोच्य न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत किये गये संशोधन जहां तत्काल गिरफतारी पर रोक लगाने एवं अग्रिम जमानत को मंजूरी दिये जाने को लेकर दलित संगठनों ने भारत बंद का आगाज किया जिसका खुला तांडव देश भर में देखने को मिला ।
इस प्रसंग से जुड़े आंदोलनकारी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा सहित देश के अन्य भागों में तोड़ - फोड़ करते रहे, आगजनी से लेकर हत्या तक की घटनाएं सामने उभर कर आई और देश की राजनीतिक पार्टिया आपनी - अपनी सियासत रोटियां सेंकने में मशगूल रही । इस तरह के हालात कभी भी देश के हित में नहीं हो सकते ।
सर्वाोच्य न्यायालय ने पुर्व अधिनियम में कुछ कमियां देखी होगी जिसके संशोधन पर विचार किया होगा। सर्वोच्य न्यायालय के इस संशोधन से सहमत न होने पर संबंधित संगठनों को लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात उठानी चाहिए थी जिससे देश को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे पर ऐसा बदली भारतीय आंदोलन की पृृष्ठभूमि में कहीं से नजर नहीं आ रहा है।
आरक्षण का मुद्दा आये दिन ज्वलंत रूप धारण करता जा रहा है जिसकी आग में पूरा देश धू-धू कर जल रहा है। जातिगत आधार पर आरक्षण का यह रूप देश के समक्ष विकराल रूप धारण कर देश की एकता, अखंडता, संप्रभूता को लीलने को तैयार बैठा है। पर इसे हटाने की आज कोई भी बात करे तो देश में तोड़ - फोड़ की राजनीति शुरू हो जायेगी।
इस खेल में आज देश के सभी राजनीतिक दल शामिल होकर इसे भुनाने की प्रक्रिया में संलग्न होकर स्वहित की राजनीति कर रहे हैं। जहां आज प्रतिभा को भी चुनौती मिलने लगी है जिसके कारण देश की युवा पीढ़ी में भारी असंतोष फैलता जा रहा है। जिसे लेकर देश में आंदोलन का रूख बदलता जा रहा है। जो देशहित में कदापि नहीं। आरक्षण सभी को दे नहीं सकते जो आरक्षण ले रहे है, उनसे वापिस ले नहीं सकते भले उनके हालात पहले से काफी बेहतर हो चुके हो।
यह हमारे देश की बिडम्बना ही है। जो नियम एक बार बन जाय उसके संशोधन पर बवाल मचने लगे। देश में राजनीतिक विरासत के तहत जगह - जगह दंगे - फसाद होते ही रहे है। अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले, बिहार के औरंगाबाद, समसतीपुर में भड़के सांप्रदायिक हिंसा से देश में जो तनाव उभरता दिखाई दे रहा है, देश को किस मोड़ पर खड़ा करेगा ? यह विचारणीय पहलू है।
देश में किसानों का आंदोलन हो, आरक्षण का आंदोलन हो या कोई और आंदोलन हो सभी के तहत तोड़ - फोड़ की राजनीति सक्रिय हो जाती है। जो राष्ट्रहित में कदापि नहीं। इस तरह के परिवेश पर मंथन होना चाहिए। देश अपना है , इसे किसी भी तरह का नुकसान न पहुंचे,, इस प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुये आंदोलन की पृृष्ठिभूमि बनाई जानी चाहिए। आंदोलन लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन यह आंदोलन अहिंसक होना चाहिए। (संवाद)
तोड़-फोड़ की राजनीति राष्ट्रहित में कदापि नहीं
आंदोलन अहिंसक ही होना चाहिए
भरत मिश्र प्राची - 2018-04-04 10:51
आजादी के बाद देश में जब भी विरोध जताने की प्रक्रिया शुरू होती है, तोड़ - फोड़ की राजनीति शुरू हो जाती है। देश में कार्यरत वोट बटोरने की राजनीति से प्रेरित राजनीतिक पार्टियां अपने स्वहित में इस तरह के आंदोलन को शांत करने के बजाय और उग्र बनाने की दिशा में सक्रिय हो उठती है। इससे इस तरह के आंदोलन को भडकाने में और ज्यादा शह मिलने लगती है। इस तरह के आंदोलन में शामिल वास्तविकता से काफी दूर खड़ी भीड़ अपने ही देश को बर्वादी के कगार पर पहुंचाने में मददगार होती है।