यह कानून राजीव गांधी सरकार ने अपने अंतिम दिनों में 1989 के सितंबर महीने में बनाया था। वह इस कानून को लागू करती, उसके पहले ही वह सत्ता से बाहर हो गई। फिर 1991 में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस की ही नरसिंहराव सरकार ने इसे लागू किया। यह कानून दलितों और आदिवासियों को सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था। ये दोनों समूह समाज के सबसे कमजोर वर्ग हैं और उन पर अत्याचार भी सबसे ज्यादा होते हैं। इसलिए उनको इस प्रकार के कानूनी सुरक्षा कबच की जरूरत है।
पर इस कानून का दुरुपयोग भी बहुत हो रहा था। इसका दुरुपयोग दलित और आदिवासी ही नहीं कर रहे थे, बल्कि ज्यादातर मामलों में गैरदलित/गैरआदिवासी ही इसका दुरुपयोग कर रहे थे। इस लेखक के पास मध्यप्रदेश में कार्यरत एक एसडीओ (पुलिस) अपने को हरिजन एक्ट से बचाने की गुहार करते आया। उन्हें उसका बाॅस जिले का एसपी हरिजन एक्ट में फंसाना चाह रहा था। इस लेखक को लगा कि वह एसपी दलित होगा, लेकिन अनुमंडल पुलिस अधिकारी ने बताया उसका बाॅस दलित नहीं है, बल्कि एक दलित कान्सटेबल पर दबाव बना रहा है कि अनुमंडल पुलिस अधिकारी पर वह जाति उत्पीड़न का झूठा आरोप लगाए। लेकिन वह कान्सेटबल अनुमंडल पुलिस अधिकारी का शुभचिंतक था, इसलिए उनके खिलाफ मुकदमा नहीं करना चाहता था, पर एसपी के दबाव में मुकदमा करना उसकी मजबूरी थी और उसने अनुमंडल पुलिस अधिकारी को दबाव के बारे में बता दिया।
फेक इनकाउंटर की एक जांच रिपोर्ट में अनुमंडल पुलिस अधिकारी ने अपने बाॅस एसपी को भी सलंग्न पाया था। इसके कारण एसपी उनसे नाराज था और एक दलित कान्सटेबल से मुकदमा करवाकर उन्हें भेजना चाहता था। फेक इनकाउंटर की जांच रिपोर्ट के तथ्यों के आधार पर इस लेखक ने तीन या चार खबरें छाप दीं और अनुमंडल पुलिस अधिकारी के खिलाफ हरिजन एक्ट के तहत मुकदमा होने की आशंका भी खबरों में व्यक्त कर दी। उसके बाद ही उस अनुमंडल पुलिस अधिकारी इस एक्ट से बच पाया और इस एक्ट का इस्तेमाल कर एक गैरदलित अधिकारी अपने मातहत एक अन्य अधिकारी को फंसाने में नाकाम हो गया।
जाहिर है, इस कानून का भारी दुरुपयोग हो रहा है। अच्छी मंशा से बनाए गए इस कानून से हजारों बेगुनाहों को अब तक प्रताड़ित किया जा चुका है। शायद उनकी संख्या लाखों में होगी। यही कारण है कि इस कानून से जुड़ा एक मामल सुप्रीम कोर्ट में आया, तो कोर्ट ने इस कानून को विनियमित करने के कुछ आदेश जारी कर दिए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने सामने पेश तथ्यों के आधार पर वही किया, जो उसे करना चाहिए था। उस मामले में एक व्यक्ति एक ऐसे व्यक्ति को इस एक्ट का शिकार बना रहा था, जिससे उसका कोई लेना देना ही नहीं था और आरोपित आरोपी को जानता तक नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने बेगुनाहों को बचाने के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी कर दिए, तो इसमें कुछ गलत नहीं था।
लेकिन इसके बाद हुए हंगामे ने मोदी सरकार को बैकफुट पर ला खड़ा कर दिया और सरकार के मंत्री ही झूठी सफाई देने लगे। सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई। सरकार ऐसा करे, तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कानून मंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दे दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश जारी करने के पहले केन्द्र सरकार को पक्ष बनाया ही नहीं था।
यह कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा बोला गया सफेद झूठ था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को भी नोटिस जारी किया था। मूल मुकदमा महाराष्ट्र से आया था, इसलिए महाराष्ट्र सरकार को भी नोटिस जारी किया गया था। केन्द्र सरकार के वकील एडिशनल सोलिसीटर जनरल ने सरकार का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में रखा भी था और इस बात से सहमति जताई थी कि भारी पैमाने पर इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। इस कानून के अमल और दुरुपयोग से संबंधित आंकड़े भी केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किए थे। संसद की सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की एक रिपोर्ट भी पेश की गई थी, जिसमें इस कानून के व्यापक दुरुपयोग का जिक्र था।
सरकार द्वारा पेश किए गए तथ्यों के आधार पर ही हरिजन एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने वे दिशा निर्देश जारी किए, जिसके बारे में सरकार कहती है कि उसकी राय लिए बिना ही वह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने अपना आदेश जारी कर दिया था।
जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला सरकार की मर्जी के अनुरूप ही था और अब हल्ला हंगामा व राजनैतिक विवशता के कारण केन्द्र सरकार यूटर्न ले रही है और ऐसा करते हुए कानून मंत्री गलतबयानी भी कर चुके हैं। अब मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में है और केन्द्र सरकार के वकील को जवाब देने होगा कि उन्होंने पहले जो कहा था, उसके बारे में उनकी क्या राय है। सुनवाई के दौरान अनेक ऐसे सवाल खड़े होंगे, जिनके कारण सरकार को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है।
सवाल सिर्फ दलित एक्ट का ही नहीं है, बल्कि आरक्षण का भी है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और सरकार के मंत्री लगातार कह रहे हैं कि आरक्षण समाप्त नहीं किया जाएगा, लेकिन सच्चाई यह है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक परिपत्र जारी कर विश्वविद्यालयों में होने वाला व्याख्याताओं और प्राध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण को समाप्त-सा करने का काम कर दिया है। इस परिपत्र के अनुसार आरक्षण देते समय विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि उसके विभाग को ईकाई माना जाएगा और किसी एक विभाग में निकाली गई वैकेंसी को ध्यान में रखकर ही सीटें आरक्षित की जाएंगी। अब यदि विभाग में एक बार में एक शिक्षक की वैकेंसी होती है, तो उसमें आरक्षण दिया ही नहीं जा सकता। इस मसले पर भी केन्द्र सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी। (संवाद)
सांसत में सरकार,दलित एक्ट पर पलटा
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-04-05 12:22
अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारक) कानून, जिसे दलित या हरिजन एक्ट के रूप में भी जाना जाता है, आज नरेन्द्र मोदी की सरकार के गले का फंदा बन गया है। मोदी सरकार और खुद प्रधानमंत्री मोदी इस कानून को लेकर सांसत में पड़ गए हैं और उनकी उतनी फजीहत केन्द्र में सत्ता मे आने के बाद कभी नहीं हुई, जितना आज इस एक्ट के कारण हो रहा है।