मुख्यमंत्री का एक और निर्णय, जो उलटा पड़ गया, वह है पांच साधुओं को राज्य के राज्य मंत्री का दर्जा देना। चौहान को उम्मीद थी कि यह निर्णय संतों और साधुओं के समुदाय को खुश कर देगा। लेकिन जो कुछ हुआ वो विपरीत था। इन संतों में से एक, जिन्हें कंप्यूटर बाबा कहा जाता है, ने पहले घोषणा की थी कि वह 1 अप्रैल से 15 मई तक राज्य के हर जिले में ‘नर्मदा घोटाला रथयात्रा’ निकालेंगे। इस यात्रा के दौरान वे सरकार के घोटालों का पर्दाफाश करने वाले थे। वे कह रहे थे कि नर्मदा नदी के किनारे पर पौधे लगाने के नाम पर भारी लूट हो रही है और रेत का अवैध खनन भी धड़ल्ले से हो रहा है। अभियान के प्रचार सामग्री को सोशल मीडिया पर उन्होंने व्यापक रूप से प्रसारित किया था।
इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के कुछ महीने पहले भाजपा सरकार ने पांच हिंदू धर्मगुरुओं- नर्मदानंद महाराज, हरिहरनंद महाराज, कंप्यूटर बाबा, भैयू महाराज और पंडित योगेंद्र महंत को राज्यमंत्री का दर्जा दिया। नर्मदा नदी संरक्षण के लिए स्थापित एक समिति के लिए पांचों नियुक्त किए गए थे। उन्हें समिति के सदस्यों के रूप में राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है।
कंप्यूटर बाबा ने बुधवार को कहा कि उन्होंने अभियान रद्द कर दिया है, क्योंकि राज्य सरकार ने नर्मदा नदी के संरक्षण के लिए संतों की एक समिति बनाने की मांग पूरी कर दी है। एक संत होने के बावजूद एक राज्यमंत्री की सरकारी सुविधाएं स्वीकार करने पर उन्होंने कहा कि समिति के एक सदस्य के तौर पर हमें जिला कलेक्टरों से बात करनी होगी और नदी के संरक्षण की व्यवस्था करनी होगी। इन कार्यों के लिए एक सरकारी रुतबे की आवश्यकता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि उनकी सरकार समाज के हर वर्ग के लोगों के विकास और कल्याण की दिशा में काम करना चाहती है। प्रस्तावित अभियान के संयोजक योगेंद्र महंत ने कहा कि उन्होंने यात्रा को रद्द कर दिया क्योंकि राज्य सरकार ने नदी संरक्षण के लिए एक पैनल स्थापित करने की मांग पूरी कर ली थी। वरिष्ठ कांग्रेस नेता राज बब्बर ने कहा कि इस कदम ने चौहान की कमजोरी को दिखाया कि उन्हें विधानसभा चुनावों में जीत के लिए धार्मिक नेताओं पर भरोसा करना होगा। भैय्यु महाराज ने कहा कि वह राज्य मंत्री का दर्जा लेंगे।
उच्च न्यायालय में बाबा को राज्य मंत्री का दर्जा देने के लिए एमपी सरकार के उस निर्णय को चुनौती दी गई है। एक इंदौर निवासी ने राज्य सरकार के फैसले की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए न्यायालय के सामने याचिका दायर की है। आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि यह तुष्टिकरण की चाल है और धार्मिक नेताओं का मुह बंद करने के लिए ऐसा किया गया है, ताकि वे चैहान सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर नहीं कर सकें।
अन्य संतों ने भी मुख्यमंत्री के फैसले की आलोचना की है। उन्होंने आरोप लगाया कि मंत्री पद का दर्जा देना को आंदोलन शुरू करने की धमकी देने वालों कोे रिश्वत देने जैसा है। पीड़ित संतों ने अन्य मांगों को उठाया है। गुरुवार को पूरे राज्य के कई साधु मंदिरों और मठों के प्रशासन में अधिक अधिकार मांगने के लिए राजधानी पहुंच गए। राज्य सरकार ने महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों और मंदिरों में प्रशासकों के रूप में अधिकारियों को नियुक्त किया हुआ है। संत प्रशासनिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं और प्रशासकों के रूप में सरकारी अधिकारियों को हटाना चाहते हैं। अगर सरकार जल्द उनकी मांग स्वीकार नहीं करती है तो उनका आंदोलन तेज हो जाएगा।
अखिल भारतीय संत समिति के अध्यक्ष सुरेंद्र गिरी ने कहा, ‘मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को नर्मदा घोटाला रथयात्रा के दबाव में नहीं आना चाहिए था’ अध्यक्ष । इस निर्णय के कारण कई लोगों की भवें तन गई हैं। 13 अखाडों के शीर्ष संगठन ने संतों पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाते हुए जोर देकर कहा कि मुख्यमंत्री को दबाव में नहीं आना चाहिए था।
देश में 13 प्रमुख अखाडों के एक छाता संगठन अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष ने यह भी कहा कि अगर पांचों किसी संगठन के साथ जुड़े दिखाई दिए तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। श्री गिरी ने कहा कि संतों को ब्लैकमेलिंग का काम नहीं करना चाहिए और सरकार में भी शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि साधु और संत एक मंत्री पद के ऊपर हैं। मंदिरों के प्रशासन में अधिक भागीदारी की मांग करते हुए साधुओं ने भोपाल में प्रदर्शन का आयोजन किया।
कई राजनीतिक दलों के नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री ऐसे लोगों को मंत्री पद देकर उपकृत कर रहे हैं, जिन्हें वे अपने काम का समझते हैं।
साधुओं द्वारा किए जाने वाले आंदोलन के खतरे के अलावा भी मुख्यमंत्री कई अन्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं। उनमें से एक 10 अप्रैल को कई संगठनों द्वारा ‘‘बंद’’की घोषणा है। (संवाद)
चौहान की वोट बैंक राजनीति उलटी पड़ी
समर्थन कम विरोध ज्यादा
एल एस हरदेनिया - 2018-04-09 11:29
भोपालः मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मतदाताओं का समर्थन जीतने के लिए जो कदम उठाए, उसका असर उल्टा हुआ। उन्होंने सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु 60 से 62 साल करने का निर्णय लिया। उन्होंने उम्मीद जताई कि यह निर्णय राज्य सरकार के कर्मचारियों और उनके परिवारों के वोटों को उनके वोट बैंक में जोड़ देगा। लेकिन इस निर्णय ने सरकारी कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या को संतुष्ट नहीं किया बल्कि इसके कारण सरकार को बेरोजगार युवाओं के क्रोध का सामना करना पड़ा, जिनकी संख्या लाखों में है। सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से बेरोजगारों के लिए रोजगार की संभावनाएं कम हो जाती हैं। इसके अलावा, यह अस्थायी कर्मचारियों की संभावनाओं को भी प्रभावित करता है जो अपनी नौकरी स्थाई होने की उम्मीद में कम वेतन पर भी काम करते रहते हैं।