राजनीतिक प्रस्ताव में शब्दों का मामूली सा हेरफेर किया गया है। लेकिन यह इतने महत्व का है कि इससे पूरे विपक्ष ने राहत की संास ली। वास्तविकता यह है कि केंद्रीय समिति, जो नीति निर्धारण की सर्वोच्च समिति है, के फैसले को पार्टी कांग्रेस ने पूरी तरह पलट दिया है। सीपीएम की 22वीं कांग्रेस को इतिहास इसी फैसले की वजह से याद करेगा, क्यांेंकि यह ऐसे समय में लिया गया है, जब न केवल पार्टी अपने मुश्किलों के दौर से गुजर रही है, बल्कि देश के सामने भी चुनौती है कि वह हिंदुत्व का रास्ता अपनांए या इसे हटा दे।

केंद्रीय समिति ने कांग्रेस पार्टी के साथ किसी भी तरह के तालमेल या चुनावी गठबंधन किए बगैर लेाकतात्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करने का प्रस्ताव किया था। इसका व्यावहारिक अर्थ यही था कि पार्टी विपक्षी एकता की किसी मुहिम में शामिल नहीं हो सकती थी क्यांेंकि कांग्रेस को छोड़ कर गठबंधन की संभावना फिलहाल तो दिखाई नही देती। पार्टी कांगे्रेस ने इसे बदल कर सिर्फ ‘‘राजनीतिक गठबंधन’’ से मना किया है। उसने तालमेल के रास्ते खुले छोड़ दिए। राजनीतिक गठबंधन की मनाही का अर्थ केवल इतना है कि कांगे्रेस के साथ पार्टी का कार्यक्रम या नीति आधरित गठबंधन नहीं होगा। पार्टी ने सीताराम येचुरी को महसचिव पद पर दोबारा चुन कर ऐसे अवसर बना दिए हैं कि 2019 में भाजपा के खिलाफ बन रहे महागठबंधन के साथ सीपीएम एक अहम भूमिका निभा सकती है।

पार्टी के नेतृत्व में मुख्यतः दो राज्यों, पश्चिम बंगाल और केरल के लोग हैं। दोनो ही राज्यांें के प्रतिनिधि अपने स्थानीय समीकरणों के हिसाब से पार्टी की राजनीतिक लाइन तय करा लेते हैं। यही वजह है कि उत्तर भारत की राजनीति के लिए जरूरी रणनीति बनाने में पार्टी विफल होती रही है। कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं करने की लाइन बनाने वाले प्रकाश करात केरल से आते हैं और वहां सीपीएम का मुकाबला कांग्रेस के साथ है। माना कि केरल में कांग्रेस का विरोध पार्टी के लिए आवश्यक है। लेकिन सिर्फ एक राज्य की राजनीति को ध्यान में रख कर पार्टी की राष्ट्रीय राजनीतिक लाइन कैसे तय हो सकती है? बताते हैं कि येचुरी की लाइन को पार्र्टी कांगे्रस में इसलिए विजय मिली कि इसे केरल तथा पश्चिम बंगाल से बाहर के प्रतिनिधियोें का समर्थन मिला। येचुरी की लाइन से पार्टी को उत्तर भारत में ताकत बढाने का मौका मिल सकता है।

वैसे इसमें कोई शक नहीं है कि कांगेस के साथ पार्टी के गहरे मतभेद हैं और आर्थिक मामलों में दोनों के बीच सहमति की कोई संभावना नहीं है। सार्वजनिक उद्योगों और सेवाओ को निजी कंपनियों को सौंपने और देशी-विदेशी पूंजी को खुली छूट देने और श्रम कानूनों को उद्योगपतियों के मनमाफिक बनाने समेत अन्य आर्थिक नीतियों को लेंकर कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नही है। इसे सीपीएम कैसे स्वीकार कर सकती है?

सवाल यह भी है कि देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हर जगह कांगे्रस की जगह भाजपा ले रही है। ऐसे में कांग्रेस को मरने के लिए छोड़ देना आत्मघाती होगा। वामपंथी यह तो मानते ही हैं कि कांग्रेस संाप्रदायिक नहीं है, भले ही वह सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने में सक्षम नहीं है। करात ने कांगे्रस और भाजपा को एक ही तराजू पर तौलने के लिए भाजपा शासन के फासीवादी शासन नहीं होने का तर्क गढा और इसे लेकर कई अखबारों में लेख भी लिखा। उन्होंने हिटलर के शासन के साथ मोदी के शासन की तुलना करने को भी गलत बताया था। करात के विचारों का असर पार्टी की 22वीं कांगे्रस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव पर भी दिखाई देता है। इसमें मोदी शासन को सीधे-सीधे फासीवादी कहने से बचा गया है और उसे ‘‘फासीवादी सोच वाले’’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मार्गदर्शन में चलने वाला ‘‘तानाशाही पूर्ण’’ शासन बताया गया है। इसपर सीपीआईएमएल लिबरेशन नेता दीपंकर भट्टाचार्य ज्यादा साफ हैं। हाल ही मे उनकी पार्टी का कांग्रेस हुआ और इसमें मोदी शासन को ‘‘फासीवादी’’ यानि हिटलरी शासन बताया है।

कांग्रेस और भाजपा को बराबर बताने की करात की कोशिशों के बावजूद सीपीएम ने भाजपा को अपना नंबर एक दुश्मन बताया है और ‘‘हिंदुत्व’’ और ‘‘कारपोरेट हितों’’ के लिए काम करने वाली पार्टी को पराजित करना लक्ष्य घोषित किया है। लेकिन स्पष्ट वैचारिक लाइन नही होने के कारण पार्टी की रणनीति अपनाने में सफल नहीं हो पाई है। इसने एक ओर कांग्रेस से ‘‘राजनीतिक गठबंधन’’ से मना कर दिया है तो दूसरी ओर क्षेत्रीय तथा अन्य पार्टियों के किसी राष्ट्रीय गठबंधन से भी अलग रहने का फैसला किया है। इस फैसले के बाद वह 2019 के चुनावों में पार्टी की भागीदारी किस तरह करेगी। अब यह येचुरी के कौशल पर निर्भर करेगा कि वह अधिक भागीदारी का रास्ता किस तरह निकालते हैं। यह देखना होगा कि पार्टी बिहार तथा उत्तर प्रदेश में मायावती, अखिलेश, तेजस्वी यादव तथा शरद यादव और महाराष्ट्र मंे शरद पवार तथा प्रकाश आंबेडकर की पार्टियों के साथ किस तरह तालमेल करती है। आंध प्रदेश और तेलांगना में वह वाईएसआर कांगे्रस, टीडीपी या टीआरएस के साथ नहीं जा सकती है, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में उसे कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

वाम मोर्चा लगातार सिकुड़ रहा है और त्रिपुरा की हार ने परस्थितियां और भी निराशानक बना दी है। किसानों के मुंबई की ओर लांग मार्च की सफलता और दलित आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी ने पार्टी के जनाधार को बढाया है। लेकिन पार्टी के इस्पाती ढांचे पर इसका कोई असर हेाता नही दिखाई देता है। संेट्रल कमेटी में एक भी दलित नहीं है। फिर भी, लांग मार्च में अहम भूमिका निभाने वाले अशोक ढवले को जगह नही दी गई। (संवाद)