देश के संविधान ने अपने अनुच्छेद 49 में देश के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों के रख-रखाव और संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा है। संविधान के इस नीति निदेशक सिद्धांत का पालन अभी तक सभी सरकारें करती आ रही थीं, लेकिन अब मौजूदा सरकार ने इस संवैधानिक निर्देश को परे रखते हुए ऐतिहासिक महत्व की लगभग 100 विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को निजी हाथों में यानी कारोबारी समूहों को सौंपने का फैसला किया है। इस सिलसिले में देश के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कई ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा दिल्ली का लाल किला और दुनियाभर के आकर्षण का केंद्र ताज महल अलग-अलग उद्योग समूहों के हवाले कर दिया गया है।
‘देश नहीं बिकने दूंगा, देश नहीं झुकने दूंगा’ का राग आलापते हुए सत्ता में आए नरेंद्र मोदी की सरकार ने ‘एडॉप्ट ए हैरिटेज’ योजना के तहत 17वीं सदी में पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां के बनाए लाल किले को रख-रखाव के नाम पर पांच साल के लिए ‘डालमिया भारत समूह’ नामक उद्योग घराने को सौंप दिया है। इसी उद्योग समूह ने आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में स्थित गंडीकोटा किले को भी पांच साल के लिए सरकार से ठेके पर ले लिया है। इसी तरह देश-विदेश के सैलानियों से अच्छी-खासी आमदनी कराने वाले ताज महल को संयुक्त रूप से निर्माण उद्योग से जुडे जीएमआर समूह तथा तंबाकू और होटल व्यवसाय से जुडे आईटीसी समूह के सुपुर्द कर दिया है। सरकार की ओर से केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने दावा किया है कि सरकार ने इन स्मारकों को गोद देने के बदले इन कंपनियों से पैसे का कोई लेन-देन नहीं किया है, जैसा कि सोशल मीडिया में प्रचारित हो रहा है कि सरकार ने लाल किले के लिए 25 करोड रुपए लिए हैं। डालमिया समूह ने एक बयान जारी कर बताया है कि कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीआरसी) के तहत उनका समूह इन स्मारकों का रख-रखाव करने के साथ ही पर्यटकों के लिए पेयजल, प्रकाश और शौचालय आदि सुविधाओं पर प्रतिवर्ष पांच करोड रुपए खर्च करेगा।
सरकार की ओर से कहा जा रहा हे कि वह इन धरोहरों को कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत निजी हाथों में सौंप रही है। पूछा जा सकता है कि कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व सिर्फ इन धरोहरों को लेकर ही क्यों? सरकार देश के कारपोरेट घरानों में यह सामाजिक उत्तरदायित्व बोध देश के उन असंख्य सरकारी अस्पतालों और सरकारी शिक्षण संस्थाओं के प्रति क्यों नहीं पैदा करती जो जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है? क्यों नहीं कोई उद्योग समूह इन अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए आगे आता? सवाल यही है कि आखिर सरकार ऐसा क्यों कर रही है और किसे फायदा पहुंचाने के लिए कर रही है? यह भी नहीं कहा जा सकता कि सरकार वित्तीय रूप से इतनी कमजोर हो गई है कि वह देश की ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजने-संवारने में की स्थिति में नहीं है।
हकीकत तो यह है कि सरकार ने जिन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बनाई है, वे लगभग सभी धरोहरें इतनी कमाऊ है कि उनकी आमदनी से न सिर्फ उनके रख-रखाव का खर्च निकल जाता है बल्कि सरकार के खजाने में भी खासी आवक होती है। मिसाल के तौर पर लाल किले से होने वाली आमदनी को ही लें। दो साल पहले तक लाल किले से सरकार को 6.15 करोड रुपए की आमदनी हो रही है। इस हिसाब से इसे गोद लेने वाला डालमिया समूह बगैर शुल्क बढाए ही इससे पांच साल में करीब 3०.75 करोड रुपए अर्जित करेगा और सरकार के साथ हुए करार के मुताबिक उसे पांच साल में इस खर्च करना है महज 25 करोड रुपए। जहां तक ताज महल की बात है, शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की यह निशानी तो देश के सबसे कमाऊ ऐतिहासिक धरोहर है। इससे सरकार को प्रतिवर्ष 23 करोड रुपए से अधिक की आमदनी होती है। जुलाई 2016 में संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2013 से 2016 तक ताज महल से आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को कुल 75 करोड रुपए की आमदनी हुई थी, जबकि इन तीन सालों में ताज महल के रखरखाव पर खर्च हुए थे महज 11 करोड रुपए। ताज के रखरखाव का सालाना खर्च 3-4 करोड रुपए आता है। इसमें बडा खर्च ताज को दूधिया बनाए रखने के लिए संगमरमर की सफाई का है। जाहिर है कि ताजमहल अपने रखरखाव पर होने वाले इस खर्च के बावजूद मुनाफा कमाने वाली धरोहर है। हालांकि अभी यह खुलासा नहीं हुआ है कि इसे गोद लेने वाली कंपनियां इस पर कितना खर्च करेंगी। फिर भी यह तो तय है कि ताज पर जो खर्च होगा वह उससे होने वाली आमदनी के मुकाबले कम ही होगा। यह भी तय है कि इन धरोहरों को गोद लेने वाली कंपनियां इन धरोहरों को देखने के लिए आने वाले पर्यटकों से तो शुल्क वसूलेंगी ही, वहां के चप्पे-चप्पे पर अपना विज्ञापन भी करेंगी और वहां अपनी दूसरी व्यावसायिक गतिविधियों के जरिये भी मोटा मुनाफा कमाएगी। ज्यादा संभावना इस बात की भी है कि ये कंपनियां वहां सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर इन धरोहरों को देखने के लिए अभी जो शुल्क निर्धारित है उसमें भी बढोतरी कर देंगी। अगर ऐसा हुआ तो जाहिर है कि देश की आबादी के एक बडे तबके, जिसमें छात्र और नौजवान भी शामिल हैं, के लिए अपने देश की महान ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का दीदार करना आसान नहीं रह जाएगा।
सरकार जिस तरह अपनी अनावश्यक दखलंदाजी और मनमाने फैसलों से देश की संवैधानिक संस्थाओं का मानमर्दन कर रही है, उसी तरह अब वह देश की बहुमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व की बहुमूल्य धरोहरों के साथ भी खिलवाड कर रही है। उसका ऐसा करना किसी राष्ट्रीय अपराध कम नहीं है। (संवाद)
        
            
    
    
    
    
            
    राष्ट्रीय अपराध है राष्ट्रीय धरोहरों की यह सौदेबाजी
आखिर सरकार ऐसा कर क्यों रही है?
        
        
              अनिल जैन                 -                          2018-05-03 07:57
                                                
            
                                            देश के बेशकीमती संसाधनों- जल, जंगल, जमीन के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, रेलवे, एयरलाइंस, संचार आदि सेवाएं तथा अन्य बडे-बडे सार्वजनिक उपक्रमों को मुनाफाखोर उद्योग घरानों के हवाले करने के बाद अब सरकार देश के लिए ऐतिहासिक महत्व की विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को उनके रख-रखाव के नाम पर कारपोरेट घरानों के हवाले कर रही है, वह भी उनसे औपचारिक तौर पर कुछ पैसा लिए बगैर ही। सवाल है कि जो ऐतिहासिक धरोहरें सरकार के लिए सफेद हाथी न होकर दुधारू गाय की तरह आमदनी का जरिया बनी हुई हैं, उन्हें सरकार क्यों निजी हाथों में सौंप कर अपने नाकारा होने का इकबालिया बयान पेश कर रही है?