यह सर्वथा गलत था, क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखने के लिए संविधान के अनुसार राज्यपाल को क्या करना चाहिए, पिछले कुछ सालों के उदाहरण से स्पष्ट हैं। कर्नाटक विधानसभा में हुए चुनावों के बाद 222 सीटों में से, भाजपा को 104 सीटें मिलीं, कांग्रेस 78 और जेडी (एस) को 38 सीटें मिलीं। जेडी (एस) के नेता एचडी कुमारस्वामी ने गवर्नर को पत्र प्रस्तुत किया जिसमें 117 विधायकों के हस्ताक्षर शामिल हैं, जिसमें भाजपा के 104 के खिलाफ एक स्वतंत्र विधायक हैं। कुमारस्वामी द्वारा दिए गए आंकड़ों की पुष्टि किए बिना राज्यपाल ने भाजपा नेता ने सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। येदीयूरप्पा ने गुरुवार सुबह जेडी (एस) नेता द्वारा बहुमत विधायिकाओं की सूची जमा करने के 16 घंटों के भीतर शपथ ली। संविधान के पवित्र सिद्धांतों और सरकारिया आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज करने वाले गवर्नर द्वारा पार्टी के प्रति वफादारी का यह एक घिनौना उदाहरण है।

सरकारिया आयोग की रिपोर्ट विशेष रूप से उस स्थिति से संबंधित है जहां कोई भी पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं करती है और मुख्यमंत्री का चयन करने के लिए राज्यपाल को वरीयता निर्धारित करने का तरीका बताता है। प्राथमिकता का तकाजा यह है कि यदि कोई पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त कर ले, तो उसके नेता को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाय। यदि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला हो, तो किसी चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत मिलने की स्थिति में उसके नेता को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाय। यदि किसी चुनाव पूर्व गठबंधन को भी बहुमत नहीं मिला हो तो सबसे बड़ी पार्टी के नेता को बुलाकर यह पूछा जाय कि क्या वह स्थिर सरकार दे सकता है और यदि दे सकता है तो उसके पास अन्य विधायक हैं भी या नहीं। यदि बड़ी पार्टी का नेता यह सबूत के साथ दिखा दे कि सरकार बनाकर वह उसका बहुमत साबित कर सकता है और सबूतों के साथ वह अपने समर्थक विधायकों के बारे में राज्यपाल को संतुष्ट कर दे, तो फिर उसे सरकार बनाने के लिए बुलाया जा सकता है। लेकिन सबसे बड़ी पार्टी का नेता भी बहुमत का जुगाड़ करने में असमर्थ है, तो राज्यपाल को चुनाव के बाद बने गठबंधन के नेता को बुलाना चाहिए और उसके बहुमत के प्रति आश्वस्त होने के बाद उसे मुख्यमंत्री की शपथ करवा देता चाहिए।

कर्नाटक में चैथी स्थिति बनी हुई थी। सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के पास विधायको का बहुमत नहीं था और चुनाव के बाद बने एक गठबंधन के पास बहुमत का आंकड़ा था। जाहिर है, राज्यपाल को चाहिए था कि वह उस गठबंधन के नेता कुमारस्वामी को बुलाकर शपथग्रहण कराते। लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया, जबकि उनके पास 117 विधायकों के समर्थन का पत्र था, जो उन्होंने राज्यपाल को सौंप दिया था। यदि उनमें से किसी के दस्तखत के प्रति राज्यपाल को कोई संशय था, उन्हें उस संशय का समाधान कराना चाहिए था। उन दस्तखतों की जांच करानी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने वह भी नहीं किया। और एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पद की शपथ दिला दी, जिसके पास स्पष्ट तौर पर बहुमत था ही नहीं।

तथ्य यह भी है कि अगर सरकारिया आयोग के मानदंडों का पालन किया जाता, तो वजुभाई वाला को किसी भी हाल में राज्यपाल नहीं होना चाहिए था। आयोग का कहना है कि राज्यपाल राज्य के बाहर का प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिए। उन्हें हाल के दिनों में राजनीति में हिस्सा नहीं लेने वाला होना चाहिए। इसके अलावा, वह सत्ताधारी पार्टी का सदस्य नहीं होना चाहिए। लेकिन वाला आरएसएस के कार्यकर्ता हैं और उन्होंने मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद चुनाव लड़ने के लिए नरेंद्र मोदी अपनी असेंबली सीट खाली कर दी। वाला एक मंत्री बने रहे, दिसंबर 2012 में गुजरात विधानसभा के अध्यक्ष बने और 2014 में कर्नाटक के गवर्नर बने। वह हमेशा बीजेपी हाई कमांड के संपर्क में रहते हैं। उनकी नवीनतम कार्रवाई यह भी साबित करती है कि वह राजभवन में केवल मोदी-शाह जोड़ी की तानाशाही के लिए हैं। (संवाद)