चुनाव के पहले पूर्व प्रधानंत्री एचडी देवेगौड़ा के जनता दल-सेकुलर को बहुत कम करके आंका जा रहा था। इसके  भविष्य को लेकर भी आशंकाएं जाहिर की जा रही थीं। लोग मान कर चल रहे थे कि इस बार उसके पास अधिक सीटें नहीं होंगी। इसके बेहतर प्रदर्शन से पार्टी के बेहतर भविष्य पर तो सवालिया निशान हट ही गए हैं, यह भी साबित हो गया है कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई में क्षेत्रीय पार्टियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अब साल 2019 के विपक्षी समीकरण में उनकी भूमिका अहम हो जाने के बारे में कोई संदेह नहीं रह गया है।
कर्नाटक में चुनाव हारने का सीधा असर यह होने वाला है कि कांग्रेस और इसके अध्यक्ष राहुल गांधी का यह दावा टिक नहीं पाएगा कि वह और उनकी पार्टी विपक्ष के स्वाभाविक नेता हैं। असल में, अब क्षेत्रीय पार्टियां यह तय करेंगी को कांग्रेस को कितनी सीटें दी जाएं और भाजपा विरेाध अभियान का फोकस क्या हो। कंाग्रेस नेतृत्व के कौशल की परीक्षा इसीमें  होगी कि इस स्थिति का सामना वह कैसे करती है।
कर्नाटक चुनाव के नतीजों से देवेगौड़ा परिवार का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित हो गया है। उसने न केवल वोकालिग्गा जाति पर अपने असर को कायम रखने में कामयाबी पाई है,  बल्कि अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में दूसरी जातियों, खासकर मुसलमानों का समर्थन भी बरकरार रखा है। देवेगौड़ा ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता कर कांग्रेस के रणनीतिकारों को मात दे दी और भाजपा के विजय रथ को रोकने में भी सफलता पाई क्योंकि उन्हें दलित वोट पर्याप्त संख्या में मिले हैं।
जेडीएस के कमजोर प्रदर्शन का अनुमान इस आधार पर भी लगाया ज रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए मुसलमान पूरे राज्य में कांगे्रस के पक्ष में वोट करेंगे और इससे जेडीएस ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएगा। राज्य मंें मुसलमान 16 प्रतिशत और दलित 19 प्रतिशत से अधिक हैं। वोकालिग्गा सिर्फ 11 प्रतिशत हैं, लेकिन उन्हें 18 प्रतिशत से अधिक वोट मिले हैं। इसमंे यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि वोकालिग्गा का सारा वोट सिर्फ जेडीएस को नहीं मिला है। उनका बहुत सारा वोट कांग्रेस को गया है और कुछ वोट भाजपा को भी। लेकिन जेडीएस को उखाड़ फेंकने की मुख्यमंत्री सिद्दाररमैया की प्रतिज्ञा का जेडीएस को बहुत फायदा हुआ। दक्षिण महाराष्ट्र के उसके गढ में वोकालिग्गा वोटों का धु्रवीकरण उसके पक्ष में हो गया। लोगों ने अपनी जाति के शीर्ष परिवार को जमकर वोट दिए।
भाजपा की इस राजनीति का भी जेडीएस को फायदा हुआ कि उसने कांग्रेस को हराने के लिए कई स्थानों पर कमजोर उम्मीदवार दिए। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मुख्यमंत्री की चामुंडेश्वरी की सीट है। इस सीट पर भाजपा ने कमजोर उम्मीदवार दिया था। नतीजा यह हुआ कि उन्हें जेडीएस के हाथों हार का सामना करना पड़ा।
सिद्दारमैया  कहने को तो केवल भाजपा के साथ लड़ रहे थे, लेकिन उनके निशाने पर जेडीएस भी था। उनके व्यक्तिगत दुराग्रह का इसमें बड़ा हाथ था। एक समय देवेगौड़ा के निकट सहयोगी रहे कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री देवेगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी का महत्व बढने पर कांग्रेस में चले आए थे। वह संख्याबल में लिंगायत और वोकालिग्गा के बाद की सबसे बड़ी ओबीसी जाति के नेता हैं। इसी के अनुसार उन्होंने ओबीसी, दलितों तथा मुसलमानों का समीकरण बनाया था। लेकिन यह समीकरण काम नहंी आया। भाजपा के विरोध में आने के बाद मुसलमान और दलितों ने उसकी ताकत वाले इलाकों में जेडीएस को  वोट दिया।
कर्नाटक के इस बार के चुनावों ने राज्य में जाति के समीकरण को काफी मजबूत कर दिया है। इसमें भाजपा तथा कांग्रेस, दोनेंा का योगदान है। लिंगायत वोटों को अपनी ओर रखने के लिए पार्टी ने बीएस येदियुरप्पा को नेतृत्व सौंप दिया और येदियुरप्पा को परास्त करने के लिए लिंगायत को अल्पसंख्यक दर्जा देने की पहल सिद्दारमैया ने की। कांग्र्रेस वालों को लग रहा था कि इससे लिंगायत वोट विभाजित हो जाएगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। लिंगायत वोटों का धु्रवीकरण भाजपा के पक्ष मंे हो गया। लिंगायत वोटों के ध्रुवीकरण का अप्रत्यक्ष परिणाम यह भी हुआ कि वोकालिग्गा जाति में भी धु्रवीकरण हुआ और इसका भी फायदा जेेडीएस को हुआ।
कर्नाटक के इस बार के चुनावों के बाद राज्य में सत्ता के लिए वोकालिग्गा और लिंगायत के बीच चलने वाली स्पर्धा चरम पर पहुच चुकी है। वोकालिग्गा सदैव इसमंे पीछे छूटते रहे हैं।  हालत यह है कि येदियुरप्पा के साथ कुमारस्वामी की प्रतिस्पर्धा के कारण राज्य में एक जातीय युद्ध की स्थििति बन गई है। लेकिन जेडीएस और कांग्रेेस दोनों का नेतृत्व इस स्थिति को टालने में लगा है। दोनों पार्टियों में कुछ पुराने लिंगायत नेता हैं। वैसे भी, संख्या बल मंे सबसे ताकतवर यानि 14 प्रतिशत वाली तथा और सत्ता में काफी पैठ रखने वाली जाति को दूर करने की नीति राज्य की कोई पार्टी नहीं अपना सकती है।
कर्नाटक के समीकरण से यह अंदाजा लगता है कि सामाजिक समीकरएणों का साधने में क्षेत्रीय पार्टियंा माहिर हैं और कांग्रेस अभी भी इसे साधने का तरीका खेज नहीं पाई है। अगर उसने समय रहते सिद्दारमैया की जेडीएस विरोध्ी नीति पर लगाम लगाई होती तो नतीजे अलग आते। यही वजह है कि रूझान साफ होने पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ट्वीट आया कि अगर कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया होता तो नतीजे अलग आते, एकदम अलग। ममता का संदेश कर्नाटक  विधान सभा के संपन्न चुनावों के लिए नहंी, लोक सभा के आने वाले चुनावों के लिए है। इसमें एक चेतावनी छिपी है। जाहिर है क्ष्ेात्रीय पार्टियों को साथ लेकर एक मोर्चा बनाने की रूक गई मुहिम को वह फिर से शुरू कर सकती हैं।
कर्नाटक के चुनावों को ठीक तरह से जानना-समझना इसलिए भी जरूरी है कि इससे पता चलता है कि 2019 के चुनाव किस तरह लड़े जाएंगे। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी इस तकनीक को तो अपनाएगी ही, कांगे्रस भी उसके जवाब में वैसे ही तरीके अपनाएगी। दागदार नेता येदियुरप्पा तथ रेड्डी बंधुओं को साथ लेकर उसने अपने इरादे तो साफ कर दिए कि वह किसी भी तरह चुनाव जीतने में भरोसा करती है। (संवाद)
        
            
    
    
    
    
            
    लोक सभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियां बड़ी भूमिका निभाएंगी
कर्नाटक के नतीजों ने इसके साफ संकेत दिए
        
        
              अनिल सिन्हा                 -                          2018-05-21 10:15
                                                
            
                                            कर्नाटक के नतीजों ने क्षेत्रीय पार्टी के महत्व को फिर से केंद्र में ला दिया है और देश के स्तर पर तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद जल्द ही शुरू हो जाए तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। कर्नाटक के नतीजों का देश की मौजूदा राजनीति पर भारी असर होगा। जेडीएस के बेहतर प्रदर्शन ने अगले साल हो रहे लोक सभा चुनावों के समीकरण पूरी तरह बदल दिए हैं।