भाजपा और कांग्रेस के सत्ता और सिंहासन के इस युद्ध में लोकतंत्र बेनकाब हुआ है। राज्यपाल नामक जैसी संवैधानिक संस्था बेनकाम हुई है। हलांकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है यह देश के राजनीतिक इतिहास की परंपरा रही है। कांग्रेस की उसकी गंदी सोच का भाजपा आज अनुसरण कर रही है। हमारे राजनीतिक दलों की स्थिति लोकतांत्रित फैसलों को पचाने की नहीं है। राजनीति सत्ता के लिए किसी हद तक गिर सकती है। जैसा कि कर्नाटक में गिरी और पूर्व में गिरती आ रही है। भाजपा एक और राज्य कर्नाटक पर विजय प्राप्त कर जहां कांग्रेस मुक्त भारत के अपने मिशन को सफल करना चाहती थी, वहीं कांग्रेस गोवा, मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद मोदी और शाह के हाथों मिली पराजय का बदला चुकाना चाहती थी। राजनीति में यह प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। लेकिन वह पूरी तरह दलीय प्रतिबद्धता से परे और स्वस्थ हो। लेकिन जब जिम्मेदार संस्थाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का त्याज्य कर किसी विशेष संदर्भ में उसका प्रयोग करने लगे तो यह उचित नहीं है।

कर्नाटक फसाद की मूल वजह कांग्रेस और भाजपा की दुराग्रह से ग्रसित राजनीति है। भाजपा के थिंक टैंक अल्पमत में भी कर्नाटक में सरकार बना पूर्व की पुनरावृत्ति दुहराना चाहते थे और एक अलग तरह का संदेश देना चाहते थे। अमितशाह कर्नाटक मिशन को सफल कर यह देश की जनता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश में थे कि 2019 के असली दावेदार वहीं हैं। अमितशाहं अपने राजनैतिक कौशल का झंडा गाड यह संदेश देना चाहते थे हम अल्पमत में हो या बहुमत में सरकार तो हमीं बनाएंगे। कांग्रेस हमारी रणनीति और चुनावी मैनेजमेंट के सामने कहीं नहीं टिकती है।लेकिन उनकी सारी रणनीति धरी की धरी रह गयी। अधिक से अधिक कीचड़ में कमल खिलाने की उनकी सोच बेकार गयी। ं 2019 के लिए लोगों में जो एक सोच पैदा करना चाहते थे उसकी बखिया उधड़ गयी। भाजपा अपने ही बुने जाल में बुरी तरफ उलझ गयी। वह अपने सियासी तीर से संवैधानिक पीठों को भी बौना साबित करना चाहती थी, लेकिन यह उसका दिवा स्वप्न निकला। भाजपा के चाणक्य मोटू भाई इस बार कांग्रेस के च्रकव्यूह में फंस गए।

पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम सवाल है कि जब कांग्रेस ने राज्यपाल वजुभाई वाला को जेडीएस और कांग्रेस के 117 विधायकों की सूची सौंप दी फिर उसे सरकार बनाने के लिए क्यों नहीं आमंत्रित किया गया। कांग्रेस प्रतिनिधि मंडल को मिलने तक का वक्त नहीं दिया गया। जबकि येदियुरप्पा के लिए राजभवन के दरवाजे खुले रहे। आखिर येदियुरप्पा की जगहंसाई क्यों कराई। ढ़ाई दिन का मुख्यमंत्री बनने को क्यों मजबूर किया। संविधान क्या कहता है, वह बहुमत की बात करता है या फिर सबसे बड़े दल की। अगर बहुमत की बात थी तो फिर महामहिम राज्यपाल को विकेक का इस्तेमाल करने की क्या जरुरत थी। अगर नियम सबसे बड़े दल का है तो फिर गोवा, मणिपुर और मेघालय में भाजपा और दूसरे गठबंधित दलों को क्यों आमंत्रित किया गया।

राज्यपाल जैसे प्रमुख संवैधानिक पदों पर राजनैतिक दलों से नियुक्तियों की व्यवस्था बंद होनी चाहिए। प्रमुख सचिवों की तरह यहां भी प्रशासनिक अफसरों की नियुक्ति होनी चाहिए या फिर राज्यपाल के लिए भी राष्ट्रपति जैसी चुनावी व्यवस्था अमल में लायी जानी चाहिए। संविधान में राज्यपालों के विवेक का अधिकार खत्म होना चाहिए। विवकेकाधिकार ही राजनीतिक और दलीय स्वामिभक्ति को बढ़ा रहा है। क्योंकि राज्यपाल दलीय प्रतिबद्धता से उभर नहीं पाते जिसकी वजह है लोकतंत्र बेशर्म होता है और कर्नाटक जैसी घटना हमारे सामने होती है।

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाने वाली इस व्यवस्था पर विराम लगना चाहिए। संविधान संशोधन के जरिए यह व्यवस्था होनी चाहिए कि चुनाव के बाद कोई भी सदस्य अपने मूल दल से साल भर बाद पाला बदल सकता है। इस तरह के लचीने कानून कहीं न कहीं से रिसोर्ट और हार्स टेडिंग संस्कृति को बढ़ावा देते हैं, इस तरह की छूट पर लगाम लगनी चाहिए।

कांग्रेस अगर समय रहते सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा न खटखटाती तो येदियुरप्पा और भाजपा को बहुमत सिद्ध करने से कोई नहीं रोक सकता था। क्योंकि राज्यपाल की तरफ से पूरे 15 दिन का वक्त दिया गया था। उस स्थिति में सब कुछ सामान्य होता और भाजपा आराम से बहुमत साबित कर लेती। इसी रणनीति के तहत भाजपा ने येदियुरप्पा को मुख्मंत्री पद की शपथ दिलाई थी। यह अमितशाह की सोची समझी रणनीति थी, लेकिन कांग्रेस की सक्रियता से वह काम नहीं आयी और भाजपा को मात खानी पड़ी। देश की सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप की वजह से यह संभव हुआ। क्योंकि भाजपा को अपनी गोंट बिठाने का पूरा वक्त नहीं मिल पाया। जिसकी वजह लोकतत्र की गला घोंटने की एक कोशिश नाकाम हो गयी। लोकतांत्रित व्यवस्था की सेहत दुरुस्त रखने के लिए राजनीतिक दलों को सत्ता और सिंहासन की राजनीति से अलग हटना होगा।

हलांकि इस गलत व्यवस्था के लिए सिर्फ भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इसकी पूरी जबाबदेही और नैतिक जिम्मेदारी कांग्रेस की है। पूर्व में कर्नाटक, झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इस गलत परंपरा को उदाहरण हैं। राज्यपाल जैसी संस्था का दुरपयोग कांग्रेस की परंपरा रही है। एक-दो नहीं दर्जनों उदाहरणों से भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रंगा पड़ा है। लोकतंत्र के लिए आज जो सबसे घातक नीति साबित हो रही है उसका बीज कांग्रेस ने ही कभी बोया जब दुनिया के सबसे संवृद्धिशाली लोकतंत्र में उसकी तूती बोलती थी। यह कहावत उस पर फीट बैठती है कि जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। कर्नाटक, गोवा, मणिपुर और मेघालय पर उसे घड़ियाली आंसू बहाने की आवश्यकता नहीं है। संवैधानिक कीचड़ तो कांग्रेस का ही फैलाया है अब वह रायता बन फैल रहा है। (संवाद)