लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग के फैसले को अवैध घोषित कर दिया और राष्ट्रपति द्वारा उनकी समाप्त की गई सदस्यता फिर से बहाल कर दी। विधायकों की इस दलील को दिल्ली हाई कोर्ट ने स्वीकार कर लिया कि अपनी रक्षा करने के लिए उन्हें पूरा समय नहीं दिया गया और आनन फानन में अपने पद से जाते जाते अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने उनकी सदस्यता समाप्त करवा दी।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को आदेश दिया कि उनके खिलाफ दी गई याचिका पर समुचित सुनवाई करे और उचित आदेश जारी करे। इसलिए एक बार फिर निर्वाचन आयोग ने सुनवाई शुरू कर दी है। यह जल्द पूरी हो, इसके लिए दिन प्रति दिन सुनवाई चल रही है और आप विधायकों को यह साबित करने के लिए कहा जा रहा है कि वे बताएं कि उनके खिलाफ लाभ के पद पर होने का मामला कैसे नहीं बनता है।

दरअसल विधायकों को किसी लाभ के पद पर नियुक्त होने की बंदिशें हैं। यानी इन बंदिशों के अपवाद भी हैं, लेकिन उन अपवादों का साफ साफ उल्लेख किया हुआ है। जैसे कोई विधायक मुख्यमंत्री या मंत्री या स्पीकर या डिपुटी स्पीकर जैसे लाभ के पदों पर नियुक्त हो सकता है, लेकिन मंत्रियों के संसदीय सचिव के पद पर वह नियुक्त नहीं हो सकता। वैसे दिल्ली की मुख्यमंत्री जब शीला दीक्षित हुआ करती थीं, तो उन्होंने अजय माकन को अपना संसदीय सचिव बना रखा था। लेकिन उनके मामले को कोई न तो कोर्ट में ले गया और न ही राष्ट्रपति के पास।

पर अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार के गठन के बाद मार्च 2015 में 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना डाला। दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री सहित ज्यादा से ज्यादा 7 मंत्री ही हो सकते है और आम आदमी पार्टी ने 2015 के उस चुनाव में 67 सीटें जीत ली थीं। अब सरकार बनाने और चलाने की जो व्यवस्था है, उसके तहत 7 ही विधायक मंत्री (मुख्यमंत्री सहित) बन सकते थे। तो उन्होंने प्रत्येक मंत्रियों के साथ साथ तीन- तीन विधायकों को बतौर संसदीय सचिव नत्थी कर दिया।

ऐसा करने में उनका उद्देश्य अपने विधायकों को कोई वित्तीय या अन्य लाभ दिलाना नहीं था, बल्कि राजकाज में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करवानी थी और मंत्रियों का काम आसान करवाना था। शायद इसके पीछे इसका उद्देश्य यह भी रहा होगा कि मंत्री अपने अधिकारों का उपयोग लोकतांत्रिक तरीके से करें और मंत्रालय में उनकी मनमानी नहीं चले।

ब्हरहाल केजरीवाल के इरादे बहुत नेक थे और सरकार को ज्यादा से ज्यादा सक्षम बनाने के लिए ही ऐसा किया गया था, लेकिन नियम तो आखिर नियत होता है और विधायकों को संसदीय सचिव बनाया जाना नियमों के विरुद्ध था, क्योंकि सरकारी किताबों में संसदीय सचिव लाभ का पद होता है और कोई विधायक लाभ के पद पर नहीं बैठ सकता। यदि कोई ऐसा करता है, तो उसकी सदस्यता भी छीनी जा सकती है और सदस्यता समाप्त करने का यह मामला ही निर्वाचन आयोग में चल रहा है।

वैसे यह मामला दिल्ली हाई कोर्ट मंे भी गया था और हाई कोर्ट ने संसदीय सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति को ही खारिज कर दिया था। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उनकी नियुक्ति को खारिज करने का आदेश अब उनका रक्षा कवच बन गया है और वे कह रहे हैं कि जब उनकी नियुक्ति ही अदालत ने खारिज कर दी थी और उसे अवैध घोषित कर दिया था, तो फिर वे संसदीय सचिव थे ही नहीं और यदि वे उस पद पर थे ही नहीं, तो फिर उन पर लाभ के पद पर होने के कारण मामला चल ही नहीं सकता।

फिलहाल यह कानूनी पेंच है, जिसका सहारा आम आदमी पार्टी के विधायक ले रहे हैं, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनकी नियुक्ति मार्च 2015 में हुई थी और उस नियुक्ति को उसी साल सितंबर महीने में दिल्ली हाई कोर्ट ने खारिज किया था। तो फिर वे जो छह महीने उस पद पर रहे, उसका हिसाब तो उन्हें देना ही होगा।

अब आम आदमी पार्टी के विधायक कह रहे हैं कि उन्होंने उस दौरान भी किसी प्रकार का वित्तीय लाभ नहीं मिला। न तो उन्हें संसदीय सचिव का कोई आॅफिस मिला और न ही किसी प्रकार का कोई प्रोफिट। उन्होंने संसदीय सचिव के रूप में काम करने का न तो कोई भत्ता लिया और न ही उस काम के निर्वहन के लिए किसी सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल किया। इस तरह वे यह साबित करना चाह रहे हैं कि वास्तव में उन्होंने कोई लाभ ही नहीं लिया और न ही कभी उन्हें कोई आफिस मिला, तो फिर उनके ऊपर आॅफिस आॅफ प्रोफिट का मामला ही नहीं चलता।

आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया था और उन सबके खिलाफ याचिका दाखिल की गई थी। उनमें से एक जरनैल सिंह ने पंजाब विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए दिल्ली की अपनी विधायकी छोड़ दी थी और उसके बाद अब सिर्फ 20 विधायकों के खिलाफ ही यह मामला चल रहा है। अब यह देखना है कि निर्वाचन आयोग पर उनकी दलीलों का क्या असर पड़ता है। (संवाद)