चुनावों के नजदीक आने के बाद आरएसएस और भाजपा की रणनीति में आए परिवर्तनों पर गौर करने की जरूरत है। दोनों ने अपना फोकस बदल लिया है। गोरक्षा के नाम पर हो रहे आक्रमण अभी ठंढे पड़ गए हैं। कश्मीर में भी बातचीत की जा रही है। यही नहीं, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह देश के नामी लोगों से मिलने के लिए देश के दौरे पर निकल पड़े हैं। पार्टी ने क्षेत्रीय दलों के बारे में अपना रवैया नरम कर लिया है। उसी रणनीति के तहत आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी कह डाला कि दूसरों की विविधता को स्वीकार करना चाहिए। उनका संकेत उन संगठनों से सहयोग लेने का है जो विविधता में यकीन रखते हैं। यह न तो अपनी पुरानी नीति को त्यागने के लिए है और न ही विविधता के दर्शन को अपनानें के लिए है। संघ ने समय-समय पर ऐसे कदम उठाए हैं जब उसे अपने लिए संभावना दीखी है। संघ-संस्थापक हेडगेवार के सिविल नाफरमानी आंदोलन में जेल जाने की चर्चा हो रही है। वह भी स्वयंसेवक ढूंढने के लिए था। उन्होंने इसमें न तो संघ को संगठन के रूप में शामिल किया था और न ही स्वयंसेवकों से इसमें हिस्सा लेने की अपील की थी। 1967 के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति में संघ विस्तार के उद्देेश्य से शामिल हुई थी और 1974 में भी जेपी के साथ आने के पीछे भी उसका यही इरादा था।

कई लोगों को लग सकता है कि संघ और भाजपा तो अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर ऐसा क्यांे कर रहे हैं? इन लोगों को न केवल पिछले दिनों हुए चुनावों पर नजर डालना चाहिए, बल्कि उन्हें देश की आर्थिक हालत पर भी गौर करना चाहिए। देश की खराब आर्थिक हालत का अंदाजा उन्हें टीवी चैनलोें पर होने वाली बहस से नहीं हो सकता है क्यांेकि इन चैनलों पर चालाकी से एक आरएसस का विशेषज्ञ और एक भाजपा का प्रवक्ता बैठा होता है और एंकर मिला कर वे बहुमत में हो जाते हैं।

लोक सभा के ज्यादातर उपचुनाव भाजपा ने हारे हैं। राज्यों के ज्यादातर चुनावों में भी उसे तिकड़म की जीत हासिल हुई है। उसने ऐसे तिकड़म हर जगह किए हैं और कांग्रेस के भ्रष्ट लोगों को भी बड़े पैमाने पर पार्टी में शामिल किया है। वोटों के प्रतिशत में वह कहीं भी 2014 की लोकप्रियता कायम नहीं रख पाई है और जहां भी विपक्षी एकता हो गई वहां उसे मुंह की खानी पड़ी है। इस एकता को तोड़ने के लिए यह जरूरी हो गया है कि संघ परिवार अपना चेहरा सौम्य करे ताकि सहयोगी दल उसका बचाव कर सकें ।

जहां तक अर्थव्यवस्था का हाल है तो यह एकदम बुरी हालत में है। बैंकिंग क्षेत्र में डूब जाने वाले पैसे की राशि दस लाख करोड़ पहुंच चुकी है। बाहर के जो पैसे देश के बाजार में लगे हैं वह भी तेजी से बाहर जा रहे हैं। रोजगार की हालत कैसी है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। सरकार कारपोरेट के चंगुल में इस तरह फंसी है कि वह बर्बाद हो गई ख्ेाती के लिए कोई बड़ा पैकेज नहीं दे सकती है क्योंकि उसे कारपोरेट क्षेत्र को दी गई लाखों करेाड़ रूपयों की छूट में तुरंत कटौती का फैसला करना पड़ेगा ताकि जरूरी पैसा निकाला जा सके। वह इतने हंगामें के बावजूद तेल की कीमत कम करने को तैयार नहीं हो रही है कि आम लोगों से मिल रही आमदनी का जरिया वह छोड़ नहीं सकती।

लोगों को अपने साथ बांधे रखने का संाप्रदायिक फार्मूला चल नहीं पा रहा है। यह उत्तर प्रदेश के उपचुनावों ने पूरी तरह साबित कर दिया है। भाजपा और संघ को यह लगने लगा है कि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर चुनाव की नाव पार नहीं लगा सकते हैं।

ऐसे समय में प्रणब मुखर्जी का नागपुर क्यों गए? कांग्रेस पार्टी उनके वहां जाने के पक्ष में नहीं थी। उसने उन पर दबाव डालने की भरसक कोशिश भी की। लेकिन वह नहीं माने। उनके जाने के पीछे कौन से कारण हो सकते हैं? यह कारपोरेट की एक कोशिश का हिस्सा भी हो सकता है, जो 2019 में भाजपा की वापसी के लिए नए समीकरण बनाने के लिए है। इस समीकरण के लिए भाजपा तथा संघ का चेहरा सौम्य बनाना जरूरी है। उड़ीसा के नवीन पटनायक तो मिले-जुले संकेत दे ही रहे हैं। बाकी भी इस ओर रहने की बात सोच सकते हैं। पूर्व राष्ट्रपति ने नागपुूर जाकर ममता बनर्जी के खिलाफ बंगाल में उभर रही भाजपा की शक्ति को अप्रत्यक्ष समर्थन दे दिया है। मुखर्जी ने भाजपा के पक्ष में नए समीकरण बनाने की कारपोरेट की कोशिशों में मदद की है। उन्होंने अपने भाषण को ऐसा रूप देने की कोशिश की जिससे उन्हें अवसरवादी न बताया जा सके। उन्होेंने उन विवादास्पद बिंदुओं को छोड़ दिया जिसका इस्तेमाल संघ इतिहास की विकृत व्याख्या के लिए करता रहा है। इसमें प्रमुख है मध्यकालीन भारत का इतिहास। उन्होंने मुसलमानों को आक्रमकणकारी भी बता दिया। उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास के उन प्रसंगों को भी जोड़ा जो राष्ट्रवादी इतिहासकारों को प्रिय रहा है। ये थे मौर्य काल और गुप्त काल। चाणक्य भी संघ के प्रिय रहे हैं। विविधता और सेकुलरिजम का नाम लेकर उन्होंने अपनी साख बचाने की कोशिश की है। भाजपा के चार साल के शासन के बाद संघ को सहिष्ण्ुता की चादर ओढने की जरूरत पड़ गई है। मुखर्जी ने उसमें मदद की हैं। उन्होंने राहुल गांधी और विपक्ष की संघ-विरोधी मुहिम को चोट पहुंचाई है। (संवाद)