अगर हम गौर से देखें तो पता चलेगा कि यह हमला उस भारतीय अस्मिता पर है जिसे आजादी के आंदोलन आकार मिला था। इस अस्मिता में अंग्रेजों से बराबरी करने का भाव तो था, लेकिन धर्म और संस्कृति से नफरत के लिए इसमें जगह नहीं थी। यह मूलतः गांधी जी का असर था। वह चाहते थे कि भारतीय जीवन-दर्शन से नफरत के तत्व बाहर हो जाएं।

इन तत्वों के काफी हद तक बाहर हो जाने से एक सकारात्मक अस्मिता हमारी साझा समझ का आधार बनी। इसमें इतिहास के गर्त में पड़े अशोेक और अकबर महान सम्राटों का दर्जा मिला, तिरंगा हमारा झंडा बना और अशोक स्तंभ तथा चक्र हमारे राष्ट्रीय प्रतीक बने। इन प्रतीकोें को लेकर आम सहमति बन गई थी।

फिर विरोधी और विपरीत इतिहास-दृष्टि कहां से और क्यूं आ गई? इस विरोधी दृष्टि में अशोक की जगह चाणक्य और अकबर की जगह महाराणा प्रताप थे। एक समन्वयकारी और शांति वाले चिंतन की जगह युद्ध और साजिश को केंद्र में लाने की कोशिश की जा रही थी। इतिहास की इस दृष्टि में बौद्ध धर्म देश को कमजोर करने वाला धर्म है और इस्लाम एक बाहरी धर्म। इसमें आर्य यहीं पैदा हुए थे और जाति व्यवस्था श्रम विभाजन है, ऊंच-नीच की सीढी नहीं। इसमें महाभारत तथा रामायण ईसा से एक हजार साल पहले नहीं, बल्कि हजारों साल पहले लिखे गए थे। ऋषियों का कहा परम सत्य होता है, इसलिए पुष्कर विमान और मिसाइल आदि उपकरण हमारे पास थे।

सन् 1930 के दशक की घटनाओं पर नजर डालें तो इस आम सहमति के विरोध में दो संगठन प्रमुख रूप से खड़े थे-हिंदु महासभा और मुस्लिम लीग। दोनों संगठन धार्मिक आधार पर राजनीति करते थे। दोनों के लिए भविष्य का भारत आजादी के आंदोलन के सपने के भारत से अलग था। दोनों अपने- अपने धार्मिक रिवाजों के हिसाब से समाज को चलाना चाहते थे और अपनी धार्मिक शुद्धता बनाए रखने के लिए धर्म को पुराने रूपों में ही बनाए रखना चाहते थे। हिंदु महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्ण तथा जाति की व्यवस्था को सही ठहराते थे। इसीसे मिलते-जुलते मध्ययुगीन इस्लाम के पक्ष वाले विचार मुस्लिम लीग के थे। हिंदुवादी तथा मुस्लिमवादी संगठनों में इसे लेकरं मतैक्य था कि मिली-जुली संस्कृति नाम की कोई चीज न थी और न है। उनके अनुसार, मुसलमान तथा हिंदु तथा मुसलमान सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अलग हैं और उनके बीच कोई समानता नहीं है। वे भक्ति आंदोलन और सूफी मत की वजह से दोनों समुदायों में आई नजदीकियोें को भी नकारते थे। दोनों संगठन आजादी के आंदोलन में अपने- अपने धर्मों से आने वाले उन नेताओं को गालियंा देते थे जो धार्मिक आधार पर राजनीति को विरोध करते थे। इसके सबसे बड़े शिकार थे-महात्मा गांधी और अबुल कलाम आजाद। इसकी वजह यह थी कि दोनों धार्मिक थे और इन संगठनों को धार्मिक स्तर पर भी चुनौती दे सकते थे।

हिंदु संगठनों ने उन दिनों उनके खिलाफ भी मुहिम चलाई थी जिन नेताओं को वे आज अपनी सूची में ऊपर का स्थान दे रहे हंै। इसमें सरदार पटेल भी शामिल हैं। बंटवारे के समय मंत्री के रूप में पटेल के कामों की तीखी आलोचना करते थे। पटेल का तो उस समय उन्होंने तीखा विरोध किया था जब उन्होेंने नौ जनवरी, 1948 में, गांधी जी की हत्या के बीस दिन पहले लखनऊ की एक सभा में संघ के स्वयंसेवकोें को कांग्रेस में आने का न्यौता दिया था। उन्हें हिंदुवादियों ने ‘‘कुटिल तथा चालबाज’’ बताया था। उस समय संघ पर माहौल बिगाड़ने और दंगा भड़काने का आरोप लग रहा था। कांग्रेस के कई नेता तथा समाजवादी पार्टी के लोग संघ के प्रति पटेल के ‘‘नरम रवैए’’ से बेहद नाराज थे।

चालीस के दशक में, देश के बाहर सुभाष बोस आजाद हिंद फैाज के जरिए तथा भीतर कांग्रेसी तथा समाजवादी ‘भारत छोड़ो’ की लड़ाई लड़ रहे थे। वामपंथी ‘भारत छोड़ो’ के खिलाफ थे, लेकिन मजदूरों को संगठित कर रहे थे ताकि आजादी की अंतिम लड़ाई लड सकें। हिंदुु महासभा तथा मुस्लिम लीग सरकार में थी और उन्होंने भारत छोड़़ों के खिलाफ कार्रवाई की वकालत की थी। आरएसएस ने भी भारत छोड़ो से दूर रहने का फैसला लिया था। यह समझना मुश्किल नहीं है कि आजादी के आंदोलन से अलग रह कर वे अंग्रेजों की मदद कर रहे थे। बाद में, वामपंथियों ने तो ‘भारत छोड़ो’ के आंदोलन में हिस्सा नहीं लेने की अपनी रणनीति को गलत माना। लेकिन आरएसएस ने ऐसा नहीं किया और न हिंदु महासभा ने। इससे पता चलता है कि दोनों संस्थाएं वैचारिक रूप से कितनी ठहरी हुई हैं।

कांग्रेस और आजादी के आंदेालन का विरोध करने वालों में भारत का कौन सा तबका शामिल था? यह तबका था जमींदारों तथा राजे-रजवाड़ों का। मुस्लिम लीग को मिले राजे-रजवाड़ों के समर्थन के बारे में बहुत-कुछ लिखा गया, लेकिन आरएसएस के इन संबंधों के बारे में बहुत कम लिखा गया है। आचार्य नरेंद्र देव की बनारस से निकलने वाली एक प़ि़त्रका ने जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद अपने संपादकीय में यह आरोप लगाया था कि आरएसएस ‘राजाओं से पालित संस्था है’। रजवाडों के हितों की रक्षा में हिंदु महासभा, आरएसएस तथा मुसलिम लीग सक्रिय थी। डा राजेंद्र प्रसाद ने दिसंबर, 1948 में सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में कहा था कि आरएसएस पेशवा का शासन वापस लाना चाहता है।

ठहरे हुए विचारों को स्थापित करने की जिद छोड़नी होगी। यह आजादी के खिलाफ है और उस समाज व्वयवस्था के प़क्ष में जो सैंकड़ों साल से देश के असंख्य दलित तथा पिछड़ों को बेहद पीड़ा पहुचा रही है। (संवाद)