सरकार कह रही है कि वे माओवादियों से बातचीत तो करना चाहते हैंख् लेकिन वह बातचीत बिना किसी शर्त के होनी चाहिए। दूसरी तरफ माओवादी कह रहे हैं कि बातचीत के पहले सरकार 72 दिनों के संघर्ष विराम की घोषणा करे। सरकारी पक्ष को लग रहा है कि 72 दिनों के समय का इस्तेमाल माओवादी अपने आपको नए तरीके से संगठित करने में लगा सकते हैं। यही कारण है कि वे 72 दिनों के संघर्ष विराम की शर्त को लेकर सशंकित हैं।

आखिर केन्द्र सरकार ने बातचीत की पेशकश की ही क्यों? यूपीए की पहली सरकार में तो इस प्रकार की पेशकश नहीं की गई थी। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि माओवादी हिंसा का आयाम कुछ ज्यादा ही विस्तृत हो गया है।

इस समय माओवादी देश के 20 राज्यों के 220 जिलों में फैले हुए हैं। देश के कुल भौगालिक क्षेत्रफल के 40 फीसदी हिस्सों में उनका प्रसार हो चुका है। 92 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तो उनकी समानांतर सरकार चलती है। इस क्षेत्र को लाल गलियारा कहा जाता है।

सरकारी अनुमानों के अनुसार उनके पास 20 हजार सशस्त्र जवान हैं और इसके अतिरिक्त 50 हजार अन्य पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं। ये 50 हजार कार्यकर्त्ता भिन्न भिन्न नामोे से बने संगठनों के लिए काम कर रहे हैं। उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों की संख्या भी करोड़ों में पहुंच चुकी है। वे बेरोजगार युवकों को अपने संगठन में शामिल कर रहे हैं और हजारों की संख्या में युवक उसमें शामिल भी हो रहे हैं।

केन्द्र सरकार ने उनसे बातचीत की पेशकश ऐसे समय में की है, जब वे खासे हिंसक हो चुके हैं। वे सुरक्षा बलों पर हमले कर रहे हैं। वे राजनीतिज्ञों की भी हत्या कर रहे हैं। कुछ समय पहले उन्होंने झारखंड में एक सांसद की हत्या कर दी थी। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी क बेटे की हत्या भी माओवादियों ने कर दी थी। पश्चिम बंगाल में भी उन्होंने सीपीएम के अनेक कार्यकर्त्ताओं को मौत के घाट उतार दिया है। कुछ इलाकों से तो उन्होंने सीपीएम कार्यकर्त्ताओं को ही खदेड़ डाला है। कुछ दिन पहले ही पश्चिम बंगाल में उन्होंने जवानांे सहित 24 लोगों की हत्या कर दी। बिहार में भी एक गांव के दर्जन भर से भी ज्यादा लोगांे को मार डाला। झारखंड में एक बीडीओं का अपहरण अपने कुछ साथियों को भी रिहा करवाने में वे सफल रहे।

सवाल उठता है कि माओवादी संघर्ष विराम के लिए क्यों राजी होगे और वे बातचीत क्यों करना चाह्रेगे? इसका जवाब पाना भी कठिन नहीं है। कन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर उनके खिलाफ अभियान चला रखा है। अभियान को कहीं कहीं सफलता भी मिल रही हैख् कजसके कारण माओवादी सहम गए हैं। कुछ माओवादी नेता गिरफ्तार भी हो गए हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की सरकार केन्द्र को माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में पूरा सहयोग कर रही है। झारखंड सरकार ने शुरुआती झिझक दिखाने के बाद माओवादियों के खिलाफ केन्द्र के अभियान को साथ देने का मन बना लिया है। बिहार सरकार को भी देर सबेर वही करना पड़ेगा। जाहिर है माओवादियों के ऊपर दबाव बढ़ने लगा है।

केन्द्र सरकार इसलिए भी बातचीत करना चाहती है, क्योंकि कुछ दिनों के बाद वारिश के दिनों में माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाना कठिन हो जाएगा। उन इलाकों में भारी वर्षा होती है और वर्षा के कारण जंगल के इलाकों में सुरक्षा बलों की पहुंच कठिन हो जाएगी। इसलिए केन्द्र सरकार माओवादियों से बातचीत का पक्ष ले रही है।

बातचीत तो अपनी जगह है, लेकिन यदि सरकार माओवादियों की समस्या का हल चाहती है, तो उसे माओवाद से प्रभावित इलाकों का विकास करना होगा। जब से माओवाद या नक्सलवाद की समस्या आई है, उससे प्रभावित इलाकों में केन्द्र सरकार ने हजारों करोड़ रुपए खर्च किए हैं लेकिन भ्रष्टाचार के कारण रुपया सही लोगो तक नहीे पहुंच पाता। सरकार को इन इलाको में विकास की योजनाओं को सफल बनाना ही होगां तभी माओवाद की समस्या पर काबू पाया जा सकता है। (संवाद)