मौसम का मिजाज अब किस कदर बिगड़ रहा है, उसका अनुमान इसी से सहज रूप से लगाया जा सकता है कि अब कई बार वर्षा ऋतु में आसमान में बादलों का नामोनिशान तक नजर नहीं आता जबकि वसंत ऋतु में बादल झमाझम बरसने लगते हैं, सर्दियों में मौसम एकाएक गर्म हो उठता है और गर्मियों में अचानक पारा लुढ़क जाता है। अचानक ज्यादा बारिश होना या एकाएक ज्यादा सर्दी या गर्मी पड़ना और फिर तूफान आना, पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन के ये भयावह खतरे बार-बार सामने आ रहे हैं और मौसम वैज्ञानिक स्वीकारने भी लगे हैं कि इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में और भी जल्दी-जल्दी विकराल रूप में सामने आ सकती हैं। हालांकि कोई भी बड़ी प्राकृतिक आपदा आने के पश्चात् अक्सर यही सुनने को मिलता है कि ये आपदाएं अचानक आती हैं लेकिन हकीकत यही है कि कुदरत अचानक कुछ नहीं करती बल्कि हमें बार-बार इसके संकेत, चेतावनी और संभलने के अवसर देती रहती है लेकिन यह हमारी आदत में शुमार हो चुका है कि हम कोई बड़ा खतरा सामने आने तक प्रकृति की ऐसी चेतावनियों व संकेतों को नजरअंदाज करते रहते हैं।
पिछली दो सदियों में कई बार प्रकृति ने भारी तबाही मचाई है किन्तु विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने सदैव इन तबाहियों से कोई सबक लेने के बजाय प्रकृति से छेड़छाड़ जारी रखी है। प्रकृति की ऐसी ही कुछ विनाशकारी प्रचण्ड लीलाओं की बात करें तो 25 नवम्बर 1839 को आंध्र प्रदेश के कोरिंगा में आए चक्रवाती तूफान ने तीन लाख लोगों की बलि ली थी और 25 हजार जहाज उस तूफान में बर्बाद हो गए थे। 1 नवम्बर 1876 को बैकरगंज तूफान में करीब दो लाख लोग मारे गए थे, वियतनाम में 1881 में आए हैपोंग तूफान ने तीन लाख लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। 8 नवम्बर 1970 को बंगाल की खाड़ी से शुरू हुए भोला साइक्लोन नामक तूफान ने पूर्वी पाकिस्तान में कहर बरपाते हुए पांच लाख लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया था। 24 दिसम्बर 2004 को हिन्द महासागर में आए सुनामी तूफान ने दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के तटवर्ती इलाकों में कहर बरपाया था, जिसका असर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पुडुचेरी में भी देखा गया था। इस तूफान में डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। 1974 में दिल्ली में आए टोरनाडो तूफान के दौरान तो तूफानी हवाओं ने डीटीसी बस को भी उड़ा दिया था। 1990 व 1996 में आंध्र प्रदेश तथा 1998 में गुजरात के विनाशकारी तूफान और 1999 में उड़ीसा में आए प्रचण्ड चक्रवात में हजारों लोग काल का ग्रास बन गए थे और गांव के गांव मरघट में तब्दील हो गए थे।
अप्रैल माह जब मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की कि इस साल जून से सितम्बर के बीच सौ फीसदी बारिश होगी और देश में सूखे की कहीं कोई संभावना नहीं है, तब हर कोई खुशी से उछल रहा था लेकिन किसी ने यह जानने-देखने की जरूरत महसूस नहीं की कि इस प्रकार की भविष्यवाणियों या पूर्वानुमानों का पूर्व में क्या हश्र होता रहा है? गत वर्ष भी सामान्य बारिश के पूर्वानुमान लगाए गए थे किन्तु देश के 640 जिलों में से महज 40 फीसदी में ही सामान्य बारिश हुई थी, करीब 40 फीसदी जिले सूखे की चपेट में रहे जबकि 15 फीसदी जिलों में भयानक बाढ़ की स्थिति बन गई थी। आंधी-तूफान को लेकर तो मौसम विभाग का कहना भी है कि इसकी सटीक भविष्यवाणी संभव नहीं है और इसे समय पर सभी लोगों तक पहुंचाना बहुत मुश्किल है। वैसे प्रकृति हमें बार-बार अपना रौद्र रूप दिखाकर चेतावनी देती रही है कि यदि हमने प्रकृति के साथ अंधाधुंध खिलवाड़ बंद नहीं किया तो उसके कितने घातक परिणाम होंगे लेकिन विड़म्बना ही है कि प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखने के बावजूद हम हर बार प्रकृति की इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित करते रहे हैं।
विकास की अंधी दौड़ में अब वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है कि सांस के जरिये हमें असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवेज ट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। सरकारी तौर पर कितने ही व्यापक स्तर पर स्वच्छता अभियान का प्रचार-प्रसार किया जाता रहा हो किन्तु वास्तविकता यही है कि हम आज भी अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते। जागरूकता अभियानों के बावजूद हमें अपने घर या दुकान का कूड़ा-कचरा सड़कों पर फैंकने में ही खुशी मिलती है। सड़कों पर या जहां भी हम खड़े हैं, वहीं खड़े-खड़े थूकते रहने की लोगों की आदत में कोई बदलाव नहीं आया है।
कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में पीलीभीत में तूफान मानवीय गलतियों की ही वजह से एक साथ कई गांवों पर कहर बनकर टूटा, जब वहां कई किसानों ने अपने खेतों को अगली फसलों के लिए खाली करने हेतु पराली में आग लगाई और तूफानी आंधी के दस्तक देते ही पराली से निकली आग आसपास के दर्जनभर गांवों पर तबाही बनकर बरसी। बड़ी आपदाएं आने के बाद सरकारों द्वारा मुआवजे के सहारे पीड़ितों के आंसू पोंछने की कोशिशें की जाती हैं किन्तु ऐसी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं हो पाती कि ऐसी आपदाओं के समय जान-माल के नुकसान की संभावना न्यूनतम रहे। बहरहाल, पर्यावरण प्रदूषण के ही कारण तीन दशकों से मौसम चक्र जिस प्रकार तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज हुआ है, उसके बावजूद हम नहीं संभलना चाहते तो इसके लिए हम प्रकृति को दोष दें, प्रकृति के साथ जिस बेदर्दी से छेड़छाड़ हम लगातार कर रहे हैं, यह सब उसी की ही तो परिणति है। हम यह भूलते जा रहे हैं कि मनुष्य प्रकृति की गोद में एक शिशु के समान है किन्तु विड़म्बना ही है कि विकास के इस दौर में हम स्वयं को प्रकृति का स्वामी समझने की भूल कर रहे हैं। (संवाद)
सांस के जरिये मिलती असाध्य बीमारियों की सौगात
खतरे की घंटी है मौसम चक्र का बदलाव
योगेश कुमार गोयल - 2018-06-29 11:38
पिछले कुछ समय से देशभर में कुदरत जो कहर बरपा रही है, उसकी अनदेखी उचित नहीं और समय रहते अगर हम नहीं चेते तो आने वाले समय में इसके भयानक दुष्परिणामों के लिए हमें तैयार रहना होगा। पिछले कुछ महीनों के दौरान कहीं प्रचण्ड धूल भरी आंधियां, तो कहीं बेमौसम बर्फबारी, ओलावृष्टि, बादलों का फटना, भारी बारिश और आसमान से गिरती बिजली की वजह से भारी तबाही देखी गई और मौसम विभाग को बार-बार मौसम के बिगड़ते मिजाज को लेकर अलर्ट जारी करने पड़े।