जरा सोचिए हम जिनकी मुट्ठी भर भूख नहीं मिटा पाते वह हमें सत्ता सौंपते हैं। हम उनकी भूख-प्यास और दूसरी सामाजिक समस्याएं मिटाने के बजाय उन्हीं को मिटाने पर तूले हैं। हमारे लोकतंत्र की कितनी अजीब बिडंबना है। दुनिया में एक तिहाई अनाज यानी 1.3 बिलियन टन खचरा बन जाता है। यह ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। वैश्विक स्तर की बात करें तो भोजन न मिलने की वजह से 87 मिलियन लोग भूखें सो जाते हैं। जिसकी वजह से वैश्विक अर्थव्यस्था को 750 अरब डालर का नुकसान होता है। यह स्वीटजरलैंड की जीडीपी के बराबर है।
पूर्व क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने पिछले दिनों सोशलमीडिया यानी ट्वीटर पर एक वीडियो डाला जिसमें कैरेबियन देश हैती से जुड़ी तस्वीर थी। यहां के लोग आज भी मिट्टी की रोटियां निगलने को मजबूर हैं। जबकि पूरी दुनिया में भोजन की बर्बादी जारी है। निश्चित तौर पर यह मानवीयता को शर्मसार करने वाली स्थिति है। क्योंकि हमारे समाज की एक जमात भूखी और नंगी है जबकि हमारे कुत्ते वातानुकूलित बंगलों और कारों में आराम फरमा रहे हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक समाराहों में अधिक मात्रा में भोजन बर्बाद हो रहा है जबकि हमारे समाज का एक हिस्सा मिट्टी की रोटी निगलने को बेवस है। पंच सितारा होटलों में काफी मात्रा में अन्न की बर्बादी होती है। तीन साल पूर्व यानी 2015 में आयी एक रिपोर्ट पर गौर करें तो देश में 30 करोड़ से भी अधिक लोग बेहद गरीब हैं। दुनिया भर में भूखमरी की त्रासदी के शिकार लोगों की आबादी में एक चैथाई हिस्सा भारत का है। तकरीबन 20 करोड़ लोगों को जरुरत के मुताबित पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता। 40 फीसदी बच्चों का वनज निर्धारित मानकों से बेहद कम है। देश के स्कूलों में दोपहर भोजन योजना, खाद्य सुरक्षा गांरटी, अंत्योदन, बीपीएल और दूसरी योजनाओं के बाद यह स्थिति कम होने के बजाय बढ़ रही है। जिसकी वजह व्यवस्थागत खामियां और अन्न की बढ़ती बर्बादी है। इसके पीछे सामाजिक और आर्थिक असंतुल मूल है। दुनिया की यह कैसी विचित्र तस्वीर है, समझना मुश्किल है। एक ओर हम साम्राज्य विस्तार और आणविक युद्ध की तरफ बढ़ रहें हैं जबकि दूसरी तरफ हम विश्व की 28 फीसदी भू-भाग पर रहने वाली आबाद भूखी है। जिसकी मूल वजह राज सत्ता का खोखला समाजवाद है। यह सिर्फ हैती की नहीं प्रगतिशील मुल्कों की आम समस्या है। सरकारें और सत्ता सीमा विस्तार में लगी हैं। वैश्विक स्तर पर सामाजिक संतुलन बिगड़ रहा है। जातीय और कबिलाई संघर्षों की वजह से हालात बेहद बुरे हो चले हैं। पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था का केंद्र्रीय करण इस समस्या को और अधिक बढ़ा रहा है। जिसकी वजह से आर्थिक असंतुलन और भूखमरी की समस्या पैदा हो रही है।
हैती कैरेबिया का तीसरा सबसे बड़ा और गरीब देश है। इसे पहाड़ों का देश भी कहा जाता है। भूखमरी और गरीबी यहां की दीर्घकालिक समस्या है। इसे अनाथ बच्चों का भी देश कहा जाता है। यहां की 60 फीसदी आबादी साक्षर है। हैती की 80 फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है। कभी इस पर अमेरिका का कब्जा था, लेकिन अब यह स्वतंत्र देश है। यहां 30 लाख लोगों के पास आज भी भोजन उपलब्ध नहीं है। संयुक्तराष्ट संघ की ग्लोबल हंगर रिपोर्ट के मुताबित दुनिया के 119 देशों में भारत स्थिति सेंचुरी यानी 100 वें नम्बर पर है। भारत में भूख और कुपोषण की वजह से हर साल पांच साल आयु वर्ग के 10 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। सरकारें 70 सालों से देश से गरीबी मिटा रही हैं, लेकिन गरीब भले न मिट पायी हो, लेकिन गरीब जरुर मिट और समिट गए। शर्म की बात है कि भारत में तकरीबन सात लााख परिवार भीख मांग कर अपना जीवन यापन करते हैं। गांव में रहने वालों लोगों में 40 फीसदी की औसत आय 10 हजार रुपये मासिक से भी कम है। 51 फीसदी लोगों की आजीविका दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है। इस तरह के लोगों के पास कोई नियमित आय नहीं है। यह आधुनिक भारत की बेहद जमीनी और भयावह तस्वीर है।
भारत में पांच साल उम्र के 50 फीसदी बच्चों की मौत भूखमरी और कुपोषण से होती है। जबकि पांच करोड़ से अधिक लोग भूखों पेट सोने को मजबूर हैं। आस्टेलिया जितना गेंहू उत्पादन होता है, भारत में उससे अधिक यानीं 2 करोड़ 10 लाख टन बर्बाद किया जाता है। जरा सोचिए भविष्य में यह संकट और कितनी गहरी होगी। 2030 तक भारत की आबादी 145 करोड़ तक पहुंचने की संभावना जतायी गयी है। उस स्थिति में यह समस्या और अधिक बढ़ जाएगी। भारत में 21 मिलियन टन भोजन हर साल खराब होता है। यहां 250 करोड़ का भोजन हर रोज बर्बाद होता है। उत्पादित फल और सबिज्यों का 40 फीसदी हिस्सा यातायात के अभाव में मंड़ियों तक नहीं पहुंच पाता, जिसकी वजह से वह खराब हो जाता है। मांगलिक और सांस्कृतिक समाराहों के अलावा दूसरे आयोजनों में हर साल 25 से 30 फीसदी भोजन बर्बाद हो जाता है। कानून के बाद भी इस पर कोई नियंत्रण नहीं लग पा रहा। देश में हर साल औसतन 25 करोड़ टन से अधिक अन्न उत्पादन होता है। जबकि साल भर में एक भारतीय 6 से 11 किलोंग्राम से अधिक भोजन निगलता है। आपकों यह मालूम होना चाहिए की हम भोजन की बर्बादी के साथ पानी का भी नुकसान कर रहे हैं। भोजन की बर्बादी में 230 क्यूसेक पानी उसको पकाने बर्बाद हो जाता है। उस पानी को अगर हम सुरक्षित रखें तो दस लाख लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है।
दुनिया और भारत में भूखमरी और दूसरी समस्याओं की दूसरी मूल वजह आर्थिक विषमता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में 92 फीसदी वयस्क लोगों के पास सिर्फ दस हजार डालर तक की भी संपत्ति नहीं है। जबकि सवा सौ करोड़ की आबादी में 2017 में कुल संपत्ति के 73 फीसदी हिस्से पर एक प्रतिशत लोगों का कब्जा था। वहीं देश की आधी आबादी के पास सिर्फ एक फीसदी संपत्ति थी। इस तरह के हालात में लोग भूखों नहीं मरेंगे तो क्या होगा। फिर सरकारें कैसा विकास चाहती हैं। आंकड़ों की बाजीगरी में उलझाने वाली व्यवस्था का क्या संदेश देना चाहती है। एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबित भारत में 2022 तक करोड़ पतियों की संख्या 3 लाख 72 हजार तक पहुंच जाएगी। वहीं हाल में आयी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अमीरों की संख्या में 20 फीसदी का उछाल आया है। यह भारत की संपूर्ण जीडीपी का एक तिहाई हिस्सा है। यह स्थिति जीएसटी लागू होने के बाद की है।
दुनिया में सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास 50 फीसदी दौलत है। विश्व में आठ ऐसे अमीर हंै जिनकी संपत्ति नीचे से 50 प्रतिशत के करीब है। समय आ गया है हम ऐसी अर्थव्यसस्था का निर्माण करें जिसका लाभ समाज के कुछ निर्धारित लोगों तक पहुंचने के बजाय सभी स्तर के लोगों तक पहुंचे। यह तभी संभव होगा जब हम समाजवादी व्यवस्था में पूंजीवाद की खोल से बाहर आयेंगे। जब तक दुनिया भर में सार्वभौंमिक व्यवस्था नहीं लागू होगी, इस समस्या से निपटना मुश्किल है। आज हालात यह है कि काम करने लायक आबादी के पास काम नहीं है। युवा नौकरी तलाश में परेशान है, वह आत्महत्या करने को मजबूर है। 21 से 35 साल आयुवर्ग के युवाओं के पास तकनीकी ज्ञान नहीं है जिसकी वजह से उन्हें नौकरी मिलना मुश्किल है। सिर्फ कारपोरेट जगत को औद्योगिक विकास के नाम पर आर्थिक सुविधायें देकर हम सिर्फ देश को खोखला बनाने के साथ सामाजिक असमानता की खांई बढ़ा रहे हैं। फिर अंत्योदय की कल्पना करना मुश्किल काम है। जिसकी वजह भूखमरी, सामाजिक अंसतुलन और दूसरी वर्ग समूह की बुराईयों का अभ्युदय होगा। इस पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा। हम समाज के सिर्फ एक हिस्से का संपूर्ण विकास नहीं कर सकते हैं जब तक हम समाज की सार्वभौंमिक समस्याओं पर गौर नहीं करेंगे। हमें भूखमरी की समस्या के साथ उन्नतिशील खेती, औद्योगिक विकास और किसानों की तकनीकी प्रगति पर गंभीरता से विचार करना होगा। हमें हर हाल में भोजन की बर्बादी रोकनी होगी। भूखमरी हमारे लिए एक सामाजिक कलंक है। इस कलंक को मिटाने के लिए हमें भोजन की बर्बादी रोकनी होगी। (संवाद)
दुनिया में बढ़ती भूख की चुनौती
भूखमरी हमारे लिए एक सामाजिक कलंक है
प्रभुनाथ शुक्ल - 2018-07-05 16:45
घर के ठंडे चूल्हे पर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन सी नशीली है, मशहूर शायर अदम गोंडवी की भूख से सराबोर यह शेर हमें सोचने पर मजबूर करता है। जबकि सपने बेंच कर सिंहासन हासिल करने वाली जमात सिर्फ भाषण बेंचती है। भारत और दुनिया भर में भूख आम समस्या बन गयी है। राजनीति गरीबी और भूखमरी मिटाने में सालों से लगी है, लेकिन भूखे लोगों की भूख नहीं मिट पायी।