इस तरह के उभरे हालात में जनता द्वारा चुनी सरकारें अपना समयकाल से पूर्व ही भंग होने लगी। देश में मघ्यावधि चुनाव की स्थितियां ज्यादा बनने लगी जिससे लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ होने की प्रक्रिया स्वतः ही बिखर गई। आज तक देश में वहीं हालात बने हुये है जिसके कारण विधानसभा के चुनाव लोकसभा के साथ संभव नहीं हो पाये। कई राज्यों में अभी अभी ही विधानसभा के चुनाव हुये। वहां की सरकारें फिर से इतनी जल्द चुनाव कराने के पक्ष में क्यों होगी ? अगर मान भी लिया जाय कि देश में लेाकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की आपसी सहमति बना भी ली जाय तो सŸाा प्राप्ति के प्रति बढती राजनीतिक महत्वाकंक्षा एवं व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार के बीच इस बात की गारंटी कौन देगा कि देश में पूर्व जैसे हालात नहीं उभरेंगे जिससे देश में मध्यावधि चुनाव न हो। वर्तमान परिवेश में जहां स्वहित की राजनीति एवं बेमेल संगम की स्थिति सर्वोपरि हो एवं राजनीतिक दलों की संख्या बेलगाम हो। जहां आया राम गया राम की राजनीति घर कर गई हो। सŸाा में स्थिरता आये , कतई संभव नहीं। फिर इस तरह के उभरते हालात में जहां राजनीतिक स्थिरता की गांरटी किसी के पास नहीं, एक देश एक चुनाव कैसे संभव हो सकता है। इस तरह के परिवेश में एक देश एक चुनाव की बात विसंगति पूर्ण लगती है।

देश में सन् 1952 से लेकर सन् 1967 तक के लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ होते रहे। सन् 1971 में देश में पहली बार लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव कराये गये जिससे लोकसभा एवं विधानसभा एक साथ होने की प्रक्रिया भंग हो गई। देश में आई राजनीतिक अस्थिरता के चलते आज तक यह संभव नहीं हो सका कि लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ हो। इस दिशा में पूर्व में भी चुनावी खर्च को कम करने की दिशा में लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ कराये जाने प्रस्ताव आते रहे । इस परिप्रेक्ष्य में जनवरी 2017 में राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर पूर्व राष्ट्रपति प्रवण मुखर्जी ने भी चुनाव आयोग को लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की दिशा में सभी राजनीतिक को बुलाकर बातचीत कर महौल बनाने की सलाह अवश्य दी पर आज के स्वार्थ से परिपूर्ण विभिन्न टुकडों में बंटे राजनीतिक दलों से इस तरह के प्रस्ताव पर आम सहमति बन पाना कतई संभव नहीं । फिर वर्तमान परिवेश में एक देश एक चुनाव कैसे संभव ?

अभी हाल ही में लोकसभा 2014 के चुनाव उपरान्त उŸार प्रदेश, उतराखंड, पंजाब, हिमाचल, गोवा, गुजरात, मेघालय, मणिपुर के चुनाव हुये जिनपर करोड़ो रूपये खर्च हुये। एक आकड़े के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव में 30 हजार करोड़ खर्च होने के अनुमान है तो इन विधानसभा चुनावों को कराने में भी निश्चित तौर पर करोड़ो रूपये खर्च हुये होंगे । इस तरह के खर्च को बार - बार कराना देश को आर्थिक नुकसान पहंुचाना ही होगा । वर्ष 2018 के अंतराल में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव होने है जिनमें मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार कार्यरत है। जहां सराकर के प्रति जनाकोश उमडता ज्यादा दिखाई दे रहा है। इस तरह के हालात वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य को बदल सकते है। इस तरह के हालात लोकसभा चुनाव को प्रभावित न करें, लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के परिवेश बनाने की कोशिश केन्द्र सरकार द्वारा जारी है जिसपर राजनीतिक दलों की एक राय नजर नहीं आ रही है। भाजपा समर्थित राजनीतिक दल इस तरह की प्रक्रिया के पक्ष में दिखाई दे रहे है तो विपक्ष इसके विरोध में खड़ा नजर आ रहा है। इस तरह के परिवेश में एक देश एक चुनाव कैसे संभव हो सकेगा ?

आज बडे राजनीतिक दल भी सिमटकर रह गये है एवं देश में छोटे - छोटे राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई है जिनके वोट बैंक जातीय समीकरण पर बंधे हुये है। इस तरह के राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय दलों की महता को कम कर दिया है एवं राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर दिया है। जिससे देश में कब और कहां बीच में ही चुनाव की स्थिति उभर आये, कह पाना मुश्किल है। इस तरह के उभरे हालात में लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ कैसे संभव हो सकेगे ? विचारणाीय पहलू है।

लोकसभा एवं विधानसभा के एक साथ होने वाले चुनाव में चुनाव आयोग की एक रिर्पोट के आधार पर 4500 करोड रूपये खर्च किये जाने के अनुमान है जब कि वर्तमान लोकसभा के चुनाव में ही इससे कई गुणा अधिक खर्च होने के आकड़े चुनाव आयोग के पास है। पूर्व में लोकसभा एवं विधानसभा के एक साथ होने वाले चुनाव काल का समय भी सीमित अवधि में संपन्न हो जाया करता था पर जब से चुनाव के दौरान अनैतिक गतिविधियां सक्रिय होने लगी , चुनाव कई चरणों में किये जाने लगे । अभी हाल ही हुये राज्यों के विधान सभा के चुनाव में एक माह से भी अधिक का समय लग गया। सुरक्षा की दृृष्टि से चुनाव अब कई चरणों में होने लगे है। इस तरह के परिवेश में भी जहां देश की संख्या पहले से कई गुणा अधिक बढ़ गई है एवं देश में पहले से ज्यादा संवेदनशीलता बढ़ गई है, एक देश एक चुनाव का परिवेश कहीे से भी उभरता दिखाई नहीं दे रहा है। (संवाद)