और जब नीतीश ने अपनी चुप्पी तोड़ी तो पता चला कि बिहार के मुख्यमंत्री गठबंधन के बने रहने को लेकर अब भी आश्वस्त नहीं हैं। उनका कहना है कि अगले 4 या 5 सप्ताह में भाजपा सीटों के बंटवारे का फाॅर्मूला पेश करेगी और उसके बाद ही वह कुछ कह सकेंगे, हालांकि राजग से बाहर जाने की बात अब वे नहीं कर रहे हैं। उनके प्रवक्ता भी अब भाजपा के खिलाफ बयानबाजी नहीं कर रहे हैं और न ही अपने नेता नीतीश कुमार के बड़े भाई की भूमिका की वकालत कर रहे हैं।
दरअसल नीतीश कुमार के पास अब भाजपा के साथ बने रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। वे फिर से महागठबंधन में प्रवेश की कोशिश कर रहे थे और कांग्रेस व उसके नेताओं से उन्हें मदद भी मिल रही थी। खुद राहुल गांधी नीतीश को महागठबंधन में शामिल कराने के पक्षधर थे, लेकिन लालू यादव ने साफ साफ इनकार कर दिया। उनके दोनों बेटों ने कांग्रेसी नेताओं की बोलती बंद कर दी। कांग्रेस नेताओं के बयानो का लाभ उठाकर नीतीश राजग में अपनी स्थिति मजबूत करने में लगे हुए थे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नीतीश की राजनीति के बारे में बहुत कम जानकारी है, लेकिन लालू यादव इसे अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उन्होंने अपने बेटों द्वारा बयान दिलवाकर यह साफ कर दिया कि नीतीश महागठबंधन में वापस होंगे या नहीं, इसका फैसला कांग्रेस नहीं कर सकती, बल्कि राजद ही करेगा। उन दोनों ने फैसला सुना भी दिया और कहा कि महागठबंधन में ही नहीं, बल्कि राबड़ी देवी के घर में भी चाचा नीतीश के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा हुआ है। उन्होंने राबड़ी देवी के मकान के दरवाजे पर एक बोर्ड भी लगा दिया, जिसमें लिखा हुआ था कि नीतीश का उस घर में प्रवेश करने पर रोक लगी हुई है।
यानी कांग्रेस ने जितनी ताकत के नीतीश को महागठबंधन में लेने की पैरवी की, उससे चार गुनी ज्यादा ताकत से लालू के बेटों ने उसका खंडन किया। तेजस्वी ने तो यहां तक कह दिया कि वे जनता दल(यू) को समर्थन देने के लिए तैयार हैं, पर उनकी शर्त यह है कि उसके पहले नीतीश राजनीति से संन्यास ले लें। एक सूत्र के अनुसार नीतीश ने प्रशांत किशोर को अस्पताल में लालू से मिलने के लिए भी भेजा था और नीतीश को महागठबंधन में वापस लेने की उन्होंने अपील की। लालू ने कहा कि पहले नीतीश राजद से बाहर हो जाएं। उसके बाद ही वे यह निर्णय करेंगे कि उन्हें महागठबंधन में वापस लिया जाय या नही। इस तरह प्रशांत किशोर वहां से वापस लौट आए। फिर नीतीश ने सोनिया गांधी का दरवाजा खटखटाया। सोनिया ने भी लालू से फोन पर बात की और नीतीश की पैरवी की। पर लालू ने साफ साफ मना कर दिया और नीतीश कुमार की अंतिम कोशिश भी बेकार गई।
नीतीश कुमार को अपनी जमीनी ताकत के बारे में सही तरीके से पता है। उन्हें मालूम है कि अकेले चुनाव लड़कर वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। पहली बार वे अकेले चुनाव 1995 के विधानसभा चुनाव में लड़े थे। तब उनकी पार्टी को अविभाजित बिहार की 324 सीटों में से मात्र 7 पर जीत हासिल हुई थी। पिछली बार 2014 में वे अकेले लड़े थे। तब उन्हें बिहार की लोकसभा की 40 में से 2 में जीत प्राप्त हुई थी। आज उनकी हालत 2014 की अपेक्षा और कमजोर है। भाजपा का साथ छोड़ने के कारण मुसलमानों के बीच भी उनकी थोड़ी इज्जत थी। वह अब समाप्त हो चुकी है। उस समय उनके साथ जीतनराम मांझी थे और महादलितों के बीच भी उनकी इज्जत थी, लेकिन जीतनराम मांझी को बेइज्जत करके मुख्यमंत्री के पद से हटाने के बाद महादलितों में भी उनकी प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है। 2014 के चुनाव में उनके दल को 17 फीसदी वोट मिले थे। अब यदि वे अकेले चुनाव लड़ते हैं, तो उनके दल को 10 फीसदी से भी कम वोट मिलेंगे और लोकसभा में शायद एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हो सके। यदि विधानसभा का चुनाव वे अकेले लड़ते हैं, तो दर्जन भर से ज्यादा सीटें उन्हें नहीं मिलेंगी।
इसलिए नीतीश कुमार को हमेशा की तरह आगे भी कोई न कोई वैशाखी चाहिए, जिसके सहारे वे राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकें। और इस समय भाजपा उनकी वैशाखी बनी हुई है। अगले चुनाव में भी वे अपने कुछ सांसद भाजपा के साथ जाकर ही जिता सकते हैं। लेकिन वे भाजपा से भयभीत भी हैं। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा उनको दरकिनार भी कर सकती है। यदि केन्द्र की सत्ता में भाजपा आ गई, तो वह बिहार पर अपनी ही ताकत से अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी। फिर वह विधानसभा भंग कर चुनाव करवा सकती है। उसके बाद तो नीतीश कहीं का नहीं रह जाएंगे।
यही कारण है कि नीतीश की कोशिश यही रहेगी कि लोकसभा के साथ साथ ही विधानसभा के भी चुनाव हो जाएं। ऐसा वे कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं। वे चाहेंगे कि लोकसभा भाजपा ज्यादा सीटें बेशक ले ले, पर विधानसभा चुनाव में उनके दल को ज्यादा सीटें मिले, ताकि वे एक बार फिर बिहार का मुख्यमंत्री बन सकें। लेकिन भारतीय जनता पार्टी उनके मंसूबे को शायद ही कामयाब होने दे। भाजपा लोकसभा में ही नहीं, विधानसभा में भी ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहेगी और बिहार विधानसभा चुनाव के बारे में फैसला अपने हितों को ध्यान में रखकर ही करेगी न कि नीतीश के हितों को। और नीतीश को भाजपा से जो भी मिले, उसी पर संतोष करना पड़ेगा। (संवाद)
अमित शाह की बिहार यात्रा
नीतीश के पास राजग मे रहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2018-07-18 10:56
अमित शाह बिहार की अपनी यात्रा से वापस आ चुके हैं। वहां उन्होंने नीतीश कुमार से भी बातचीत की। उनके यहां डिनर भी किया। बाद में उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव नीतीश उनकी पार्टी के साथ मिलकर ही लड़ेंगे और भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बिहार की सभी 40 सीटों पर सफलता हासिल होगी। वे विजयी मुस्कान के साथ इस तरह का बयान दे रहे थे, जबकि नीतीश कुमार 12 जुलाई को हुई उसी बैठक के बाद राजग में बने रहने और सीटों के बंटवारे के मसले पर पूरे 5 दिनों तक मौन रहे।