कोई भी वित्त मंत्री बजट पेश करते समय देश की अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्याओं का ख्याल करता है और उन्हें हल करना उसकी पहली प्राथमिकता होती है। यदि वह उन समस्यओं का हल नहीं भी निकाले तो कम से कम इतना तो ख्याल रखता ही है कि उसके बजट प्रावधानों से वे समस्याएं और भी गंभीर न हों। लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट में देश के सामने की सबसे बड़ी समस्या को और भी गंभीर बना देने का काम किया है।

आयकर में वेतनभोगी वर्गों को राहत देकर वित्त मंत्री ने जो वाहवाही प्राप्त की, उसे उन्होंने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतो को बढ़ाकर खो भी दिया है। बजट पेश करने के कुछ ही घ्रटे के बाद देश भर में डीजल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ गईं। उनकी कीमतों में वृद्धि लोगों की जेबों पर सीधी मार तो करती ही है, क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा तबका पेट्रोल और डीजल का सीधा उपभोक्ता है। मोटर बूम ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को पेट्रोल और डीजल के स्टेशनों का नियमित ग्राहक बना दिया है। इसलिए वे बजट की मार की चपेट में इसे पेश होने के कुछ ही र्घटे के बाद आ गए हैं।

पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से महंगाई को भी बढ़ावा मिलता है। इसका मुद्रास्फीति पर चौतरफा असर पड़ता है। अनेक पदार्थां के उत्पादन में पेट्रोलियम पदार्थों का उपयोग होता है। उनकी कीमतें तो सीधे ही बढ़ जाएंगी। डीजल महंगा होने से मालों की ढुलाई भी महंगी हो जाएगी। इससे सभी वस्तुओं की कीमतों पर असर पड़ेगा। जाहिर है वित्त मंत्री पे पेट्रोल और डीजल की कीमतों को बढ़ाकर लोगों को महंगाई का सौगात दिया है।

वित्त मंत्री ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमते उन पर वसूले जाने वाले उत्पाद करों का बढ़ाकर बढ़ाई है। उन्होंने कच्चे तेल के आयात पर सीमा शुल्क भी बढ़ा दिया है। यानी तेल पदार्थों की कीमतों को अभी तो राजकोषीय नीतियों के तहत ही बढ़ाई गई है। प्रणब मुखर्जी ने उनकी कीमतों के और भी भविष्य में बढ़ाउ जाने के संकेत दे दिए हैं। केन्द्र सरकार के पास एक समिति की सिफारिश है, जिसने पेट्रोल डीजल और रसोई गैस को महंगा करने के लिए कहा है। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा है कि उस समिति की सिफारिशों पर तेल मंत्रालय फैसला करेगा।

वित्त मंत्री ने उत्पाद कर को 8 फीसदी से बढ़ाकर 10 फीसदी कर दिया है। उसके कारण सभी वस्तुएं महंगी हो जाएगी। इस तरह उन्होंने महंगाई को बढ़ाने के अनेक इंतजाम अपने बजट में कर डाले हैं। उन्होंने ये सारे इंतजाम उस समय किए हैं जब चारों तरफ देश में महंगाई को लेकर त्राहि त्राहि मची हुई है। बहुत सालों के बाद बढ़ती महंगाई के खिलाफ देश के अनेक हिस्सों में बंद का आयोजन किए जा रहे हैं। बंद का आयोजन उपभोक्ता ही नहीं, बल्कि दुकानदार और व्यापारी तक कर रहे हैं।

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी मनमोहन सिंह सरकार के सबसे ज्यादा अनुभवी मंत्री हैं। वे कई बार केन्द्र सरकार का बजट तैयार कर चुके हैं। सवाल उठता है कि उन्होंने ऐसा बजट बनाया ही क्यों, जिससे महंगाई को नये पंख मिल रहे हों? इसका जवाब ढूढ़ना कठिन नहीं है। पिछले साल लोक सभा का चुनाव था। उसे घ्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने अनेक लोकप्रियता वादी कदम उठाए थे। मंदी से जूझने के लिए भी अनेक तरह की रियायते दे रखी थीं। उद्योगों को भी प्रोत्साहन के लिए अनेक रियायते दे रखी थीं। उन सबके कारण राजकोष से खर्च बढ़ गया था और आमदनी कम हो गई थी। इसके कारण राजकोष का घाटा बढ़ गया था।

यानी जब देश के लोग महगाई से बेहाल हो रहे हैं, उसी समय केन्द्र सरकार राजकोष के घाटे से परेशान है। वित्त मंत्री के सामने दोनों प्रकार की समस्याएं थीं। वे बढ़ती महंगाई को तो देख ही रहे थे केन्द्र के राजकोष के घाटे को भी देख रहे थे। उन्हें राजकोष के घाटे पर लगाम लगाना ज्यादा जरूरी लगा। इसलिए उन्होंने महंगाई की परवाह नहीं करते हुए केन्द्र सरकार के राजस्व बढ़ाने को अपनी पहली प्राथमिकता दी।

वित्त मंत्री ने केन्द्र सरकार के कोष की तो चिंता की हैए लेकिन अब उन्हें राजनीति की भी चिंता करनी पड़ेगी। उनके बजट के खिलाफ पूरा विपक्ष एक जुट हो गया है। महंगाई के खिलाफ पहले से ही देश के अनेक इलाको में आंदोलन चल रहे हैं। केन्द्र सरकार ने मंहगाई के लिए राज्य सरकारों को भी जिम्मेदार बताकर उन आंदोलनों के निशाने से अपने आपको अलग रखने का प्रयास भी किया। राज्यों में अलग अलग दलोे की सरकारें हैं। इसलिए महंगाई के खिलाफ आंदोलन में राजनैतिक पार्टियां एक दूसरे के साथ ही उलझी हुई थीं। लेकिन महंगाई बढ़ाने वाले इस बजट के बाद राज्य सरकारों पर मंहगाई के दोषारोपण में दम नहीं रह गया है। लगता है कि केन्द्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस को आने वाले राजनैतिक तूफान का अंदेशा नहीं है।

केन्द्र सरकार की पहली चुनौती तो बजट प्रस्तावों को पारित करवाने की है। पिछले लोकसभा चुनावों में यूपीए को बहुमत नहीं मिला था। उसे 264 सीटें ही मिली थीं। उसे 9 निर्दलीयों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का समर्थन हासिल है। 2 सांसदों वाला झारखंड मुक्ति मोर्चा उससे पहले ही अलग हो चुका है। सपा, बसपा और राष्ट्रीय जनता दल केन्द्र सरकार के खिलाफ अब खड़े हो चुके हैं। इसलिए अब निर्दलीय सांसदों को मिलाकर केन्द्र की यूपीए सरकार के पास आरामदायक बहुमत नहीं रहा। वह तलवार की धार पर खड़ी है।

ममता बनर्जी ने भी केन्द्र सरकार के आम बजट पर अपनी नाखुशी जताई है। सुश्री बनर्जी की पार्टी कांग्रेस के बाद यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। उनकी नाखुशी केन्द्र सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन सकती है। अनेक मसलों पर ममता केन्द्र सरकार की कुछ नीतियों के अपनी नाखुशी जताती रही हैं। इसलिए केन्द्र की सरकार को वित्त विधेयक पारित कराने मे खासी मशक्कत करनी होगी।

बजट तो पेश कर दिया गया है, लेकिन इसके कुछ प्रावधानों में बदलाव की गुंजायश समाप्त नहीं हुई है। संशोधन का विकल्प अभी भी सरकार के पास है। उम्मीद करनी चाहिए कि राजनैतिक दबाव में आकर केन्द्र सरकार महंगाई बढ़ाने वाले कुछ प्रावधानों को वालस ले लेगी। पहले भी ऐसा होता रहा है। अटल बिहारी के सरकार में यशवंत सिन्हा का नाम ही रॉलबैक वित्तमंत्री रख दिया गया था। इस बार भी लगता है प्रणब मुखर्जी को रॉलबैक का सहारा लेना होगा, अन्यथा, इस बजट को पारित कराना आसान नहीं होगा। (संवाद)