यानी अल्पमत में होने के बाद भी राजग की जीत हुई और विपक्षी बहुमत में होने के बाद भी अपना उम्मीदवार नहीं जिता सका। कहने की जरूरत नहीं कि इसके लिए कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी की राजनैतिक अपरिपक्वता ही जिम्मेदार रही। राहुल गांधी को यह पहले से पता रहा होगा कि उनकी पार्टी के उम्मीदवार की जीत की संभावना बहुत कम है, इसलिए उनके द्वारा अपनी पार्टी का उम्मीदवार देने का मतलब राजग उम्मीदवार की जीत ही हो सकती थी। लेकिन पता नहीं क्यों, राहुल गांधी को इतनी छोटी सी बात समझ में नहीं आई।

दरअसल, राज्य सभा मे आॅल इंडिया अन्ना डीएमके के 11, बीजू जनता दल के 9, टीआरएस के 5 और जगमोहन की कांग्रेस के पास 2 सांसद हैं और 27 सांसद न तो राजग के खेमे में हैं और न ही कांग्रेस के खेमे में। कांग्रेस की तमिलनाडु में डीएमके के साथ दोस्ती है, इसलिए एआईएडीएमके उसके उम्मीदवार को वोट दे ही नहीं सकती थी। जगनमोहन की राहुल गांधी से निजी नाराजगी है, इसलिए उनका वोट भी कांग्रेस के उम्मीदवार को नहीं मिलना था।

बीजू जनता दल भी कभी कांग्रेस द्वारा महागठबंधन के प्रयासों में उत्साह के साथ शामिल नहीं रहा है। उसके नेता मुख्यमंत्री नवीन पटनायक दिल्ली की राजनीति मंे ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते। जब सरकारी दायित्व होता है, तभी वे दिल्ली आते हैं और वे अपने को अन्य पार्टियों के नेताओं से अलग ही रखते हैं। इसके साथ वे केन्द्र सरकार के साथ अपने संबंध खराब नहीं करना चाहते। इसलिए उनके बारे में भी यही माना जा रहा था कि भाजपा से अपने संबंधो की कीमत पर वे कांग्रेस को वोट नहीं देना चाहेंगे। और वैसा ही हुआ।

यानी यह पहले से ही स्पष्ट था कि कांग्रेस के उम्मीदवार की जीत की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। और जब अपनी पार्टी के उम्मीदवार की जीत की कोई संभावना नहीं थी, तो फिर राहुल ने अपना उम्मीदवार क्यों खड़ा किया? क्या वे भाजपा उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित कराना चाहते थे? सवाल उठता है कि वे भाजपा या राजग के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित क्यो करवाना चाहेंगे? जाहिर है, इसका कारण एक ही हो सकता है और वह है राहुल गांधी की राजनैतिक अपरिपक्वता।

राजग के उम्मीदवार को हराने के लिए राहुल गांधी के पास एक ही विकल्प था और वह था एआईएडीएमके या बीजेडी के किसी उम्मीदवार को उपसभापति पद के तैयार करना। एआईएडीएमके के उम्मीदवार को समर्थन करना उनके लिए आसान नहीं था, क्योंकि वैसा करने के पहले उन्हे डीएमके को इसके लिए तैयार करना पड़ता। लेकिन वे बीजू जनता दल को तो इसके लिए तैयार कर ही सकते थे। बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक के साथ ममता बनर्जी के अच्छे राजनैतिक ताल्लुकात रहे हैं। संघीय मोर्चा के गठन के लिए ममता नवीन पटनायक से बातचीत करती रही हैं। टीआरएस के के चन्द्रशेखर राव से भी वे बात करती रही हैं।

इसलिए ममता बनर्जी की सहायता से नवीन पटनायक को अपना उम्मीदवार खड़ा करने के लिए तैयार किया जा सकता था। यह कठिन काम नहीं था। लेकिन इसके लिए राहुल गांधी को ममता बनर्जी से बात करनी चाहिए थी। राहुल खुद भी नवीन पटनायक से बात कर सकते थे। लेकिन राहुल गांधी को तो बात करने में भी परेशानी होती है। अपने उम्मीदवार के लिए उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी बात करना जरूरी नहीं समझा। उन्हों टीआरस के केसीआर से भी अपनी पार्टी के उम्मीदवार के लिए फोन पर भी बात नहीं की। इसका नतीजा यह हुआ कि केसीआर ने तो अपने सांसदों से राजग को वोट दिलवा दिया और अरविंद केजरीवाल के सांसद मतदान में अनुपस्थित हो गए।

यदि बीजू जनता दल का उम्मीदवार होता तो उसे बीजेडी के सांसदो का वोट तो मिलता ही टीआएस के सांसदो का वोट भी आसानी से मिल जाता, क्योकि नवीन पटनायक और टीआरएस के नेता के चन्द्रशेखर राव के राजनैतिक संबंध अच्छे हैं। इसके अलावा केजरीवाल के आम आदमी पार्टी के तीन सांसदों का वोट भी मिल जाते, क्योकि नवीन पटनायक को केजरीवाल से वोट मांगने में किसी प्रकार की शर्मिंदगी नहीं होती।

सीधा अंकगणित है। राजग उम्मीदवार को 125 वोट मिल और कांग्रेस उम्मीदवार को 105 वोट। आम आदमी पार्टी ने किसी को वोट नहीं दिए। यदि बीजू जनता दल के उम्मीदवार मैदान में होते तो उसे 105 के अलावा 17 और वोट मिल जाते, जबकि राजग के मतों की संख्या 125 से घटकर 111 हो जाती और इस तरह राजग उम्मीदवार की हार हो जाती। यह दूसरी बात है कि जीत तो कांग्रेस की भी नहीं होती, लेकिन राहुल गांधी को यह कहने का मौका तो मिलता ही कि उन्होंने राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में भाजपा को पराजित कर दिया।

अब सवाल उठता है कि जब राज्यसभा के उपसभापति के सरल चुनाव मे राहुल गांधी भाजपा को पराजित नहीं कर पाए, तो लोकसभा के जटिल चुनाव में वे कैसे मोदी-शाह की जोड़ी को पराजित कर पाएंगे? राहुल गांधी सहित अधिकांश विपक्षी नेताओं को लगता है कि लोकसभा चुनाव के बाद एक त्रिशंकु सदन होगा, जिसमेे राजग को बहुमत प्राप्त नहीं होगा। लेकिन यदि वैसी भी परिस्थिति रही, तब भी मोदी को सरकार बनाने से रोकना आसान आसान नहीं होगा। राज्यसभा में उपसभापति के चुनाव के नतीजे के संदेश यही हैं। (संवाद)