मुजफ्फरपुर और देवरिया के मामले वीभत्सता और भयावहता के लिहाज से जरूर नए कहे जा सकते हैं लेकिन इससे मिलते-जुलते मामलों का सिलसिला नया नहीं है-बस जगह और तारीख बदलती रहती है। करीब तीन साल पहले 2015 में देहरादून के एक नारी निकेतन में कुछ मूक-बधिर महिलाओं के साथ बलात्कार का तथा इसी साल अप्रैल में वहां नारी निकेतन से दो मूक-बधिर युवतियों के गायब हो जाने का मामला सामने आया था। इससे पहले 2013 में महाराष्ट्र के एक संरक्षण गृह में भी कुछ बच्चों के और इससे भी पहले 2012 में हरियाणा में रोहतक और करनाल के शेल्टर होम में रह रही महिलाओं के यौन शोषण का मामला उजागर हुआ था। उत्तर प्रदेश के हरदोई, प्रतापगढ और मथुरा तथा गुजरात के अहमदाबाद से भी महिला संरक्षण गृहों में रहने वाली महिलाओं के यौन शोषण और उत्पीडन की खबरें आ चुकी हैं और इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त भोपाल से भी खबर आई है कि वहां एक छात्रावास में धार जिले की दो मूक-बधिर युवतियां दुष्कर्म की शिकार हो गईं। सवाल है कि बेसहारा बच्चियों या महिलाओं को सुरक्षा के लिहाज से जिस स्थान पर रखा जाता हो और उनकी सुरक्षा और जीवन-यापन के लिए सरकारी खजाने से धन की आपूर्ति की जाती हो, अगर वे स्थान ही उनके आखेट के केंद्र में तब्दील हो जाए तो फिर किन ठिकानों पर भरोसा किया जा सकता है? यह मानने की कोई वजह नहीं कि यह पूरा पैशाचिक धंधा बिना राजनीतिक संरक्षण और पुलिस की साठगांठ के बगैर चल सकता है। इस मामले में स्थानीय मीडिया की भूमिका को भी संदेह से परे नहीं रखा जा सकता।

यह भी हकीकत है कि हमारे देश में पिछले कुछ दशकों से समाजसेवा का ‘कारोबार’ व्यापक रूप ले चुका है। समाज कल्याण और गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के नाम पर सरकारें इस तरह के अपने चहेते संगठनों को उदारतापूर्वक अनुदान तो दे देती हैं, लेकिन उनके कामकाज पर नजर रखना जरूरी नहीं समझतीं। मुजफ्फरपुर और देवरिया के कांड उजागर होने के बाद केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने कहा है कि ऐसी और भी कई जगहें निकलेंगीय सरकार सालों से इन आश्रय स्थलों को पैसा तो देती रही, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि इन पैसों का समुचित उपयोग हो रहा है या नहीं। सवाल है कि क्या सरकारी महकमों की ओर से ऐसी लापरवाही वर्षों से इसलिए चलती आ रही है कि इस तरह के आश्रय या संरक्षण केंद्रों में शरण लेने वाली बच्चियां और महिलाएं बेहद लाचार होती हैं या कमजोर पृष्ठभूमि से आती हैं?

देवरिया के मामले में अभी तो महज परदा हटा है। पूरा सच खुलना बाकी है। अब तक जो सच सामने आया है, उससे इतना तो तय है कि तीन साल पहले लाइसेंस निरस्त होने और सरकारी अनुदान बंद होने के बावजूद कोई संस्था अगर काम कर रही थी, तो वह समाज सेवा तो नहीं ही कर रही होगी। किसी भी संस्था का इस तरह और इतने लंबे समय तक अनुदान चालू हो जाने की प्रत्याशा में चलते रहना संदेह जगाता है। यह भी तथ्य उजागर हुआ है कि इसे मनरेगा के तहत पालना गृह का काम भी मिला था और उसके लिए खासा पैसा भी मिल रहा था, जिसे जांच में फर्जी भुगतान का मामला माना गया। जाहिर है कि यह सब कोई अकेले तो कर नहीं रहा होगा और जिस तंत्र की मिलीभगत से यह सब हुआ होगा, वह तंत्र आसानी से तो अपनी नाक के नीचे यह सब चलना स्वीकार करेगा। देवरिया का पूरा सच जो भी हो, तात्कालिक सच ने भी जो सवाल उठाए हैं, वे कम गंभीर नहीं हैं।

एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन घटनाओं पर जो टिप्पणी की है, वह समूची व्यवस्था को अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत बताती है। शीर्ष अदालत ने नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडों के हवाले से कहा कि देश के हर हिस्से में महिलाओं के साथ रोजाना बलात्कार हो रहे हैं। मुजफ्फरपुर की घटना के संदर्भ में अदालत की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि राज्य सरकार 2004 से तमाम आश्रय केंद्रों को अनुदान दे रही है, लेकिन वहां कभी निरीक्षण की जरूरत नहीं समझी गई, जिससे ऐसा लगता है कि ये गतिविधियां राज्य प्रायोजित हैं। हालांकि अदालत की यह सख्त और स्वाभाविक टिप्पणी बिहार के संदर्भ में है, लेकिन इस पर दूसरे राज्यों को भी कान देना चाहिए।

दरअसल, आश्रय या संरक्षण गृहों की निगरानी और मॉनिटरिग को लेकर किसी भी राज्य में कोई पुख्ता सिस्टम नहीं है। आमतौर पर ऐसे केंद्रों की निगरानी का जिम्मा जिला कलेक्टर या जिला महिला एवं बाल कल्याण अधिकारी के पास होता हैं। लेकिन हकीकत में इन सभी स्तरों पर निगरानी का काम ठीक तरह से नहीं हो रहा है। केंद्र सरकार ने भी माना है कि अभी तक इन केंद्रों की ऑडिट के नाम पर इनके बुनियादी ढांचे का ही ऑडिट होता रहा है। इनके संचालकों को लेकर जिस तरह का सोशल ऑडिट होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है।

यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि बलात्कार और यौन शोषण के लगातार सामने आ रहे मामलों से उपजे तमाम सवालों का जवाब हाल ही में पारित ‘मानव तस्करी रोकथाम सुरक्षा और पुनर्वास विधेयक’ को बताया जा रहा है। इस विधेयक में जो भी खूबियां हैं वे अपनी जगह, लेकिन अभी जो मामले सामने आ रहे हैं, उनके पीछे कानून की कमी से ज्यादा व्यवस्था तंत्र की लापरवाही जिम्मेदार नजर आ रही है। सख्त कानून बनाने के साथ ही सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपनी जिम्मेदारी मुश्तैदी से निभाएं। अन्यथा मुजफ्फरपुर और देवरिया जैसी त्रासदियों की खबरें देश के दूसरे हिस्सों से भी आती रहेंगी। (संवाद)