लेकिन अब जिस तरह की राजनीति की जा रही है, उसके कारण निर्वाचन आयोग को भी राजनीति का उपकरण बना दिया जा रहा है। यही कारण है कि जो बात सरकार को कहनी चाहिए, वह बात निर्वाचन आयोग से कहवा दी जाती है। दो दिन पहले ही आयोग ने यह भी कहा था कि 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। अब जब जिन राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल पूरे हुए ही नहीं हैं, उनके चुनाव के बारे में चर्चा की पहल निर्वाचन आयोग क्यों करे? लेकिन आयोग ऐसा कर रहा है और यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, उस समय से ही इस बात पर बहस चल रही है कि देश की सभी विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए या नहीं। इस तरह का प्रस्ताव खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही दिया था। हालांकि हमारे देश के लोकतंत्र ने जो रूप अख्तियार कर लिया है, उसमें यह संभव ही नहीं है। विधानसभाओं और लोकसभा के कार्यकाल तय है और वह कार्यकाल 5 सालों का है, लेकिन मध्यावधि चुनाव भी होते हैं। यदि अपने कार्यकाल के बीच में ही कोई सरकार सदन में बहुमत खो देती हो और उसकी जगह कोई दूसरी बहुमत वाली सरकार का गठन नहीं हो पाता हो, तो एकमात्र विकल्प मध्यावधि चुनाव ही होते हैं और समय समय पर अनेक राज्यों मे इस तरह के चुनाव हुए हैं और आगे भी होते रहे हैं।

इसलिए यदि देश की सभी राजनैतिक पार्टियां आज सहमत हो जाएं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करा दिए जाएं और कार्यकाल पूरा हुए बिना ही सभी राज्यों की विधानसभाओं को समय के पहले ही भंग हो जाने दिया जाय, तब भी आने वाले समय में अलग अलग राज्यों की राजनैतिक परिस्थितियों के अनुसार कहीं मध्यावधि चुनाव होंगे और कहीं विधानसभा अपना पूरा कार्यकाल पूरा करेगी। हो सकता है सभी राज्यों की विधानसभाएं स्थिर सरकार देती रहे, लेकिन उसी बीच यदि लोकसभा बहुमत वाली स्थिर सरकार देने में विफल हो गई और लोकसभा का मघ्यावधि चुनाव करवाना पड़ गया, तो क्या देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं मंे भी चुनाव करवा दिए जाएंगे?

एक साथ चुनाव होना संभव ही नहीं है। सच तो यह है कि एक समय सारे चुनाव साथ साथ ही हुआ करते थे। 1951-52 में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराए गए थे। उसके पाच साल बाद 1957 के चुनाव भी एक साथ ही हुए थे। पहले चुनाव में देश के सभी राज्यों में और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी थी। कांग्रेसी सरकारों ने अपना पांच साल का तय कार्यक्रम पूरा किया। लेकिन 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। कांग्रेस उस सरकार को बर्दाश्त नहीं कर पाई और उसे बीच में ही बर्खास्त कर दिया गया।

उसके बाद लोकसभा के साथ साथ सभी विधानसभाओं के चुनाव का तार टूटना शुरू हो गया। हालांकि 1962 में भी लोकसभा और देश की लगभग सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए। उसमें भी सभी जगह कांग्रेस की जीत हुई और सारी कांग्रेस सरकारें पांच साल तक चली और 1967 में फिर एक साथ सभी चुनाव हुए। लेकिन 1967 में कांग्रेस अनेक राज्यों मंे चुनाव हार गईं और उन राज्यों में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के कारण संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें बनीं। संविद सरकारें होने और कांग्रेस के जोड़तोड़ के कारण उन राज्यों में अस्थिरता का माहौल बना। इसके कारण कुछ राज्यों में मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े। खुद लोकसभा का तय कार्यक्रम 1972 तक था, लेकिन कांग्रेस में विभाजन के बाद 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हो गया। इस तरह लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ होने का ताना बाना पूरी तरह बिखर गया। हां, संयोगवश कुछ राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ हो जाया करते थे।

जब यह ऐतिहासिक रूप से स्पष्ट है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ व्यावहारिक नहीं हैं, फिर भी इस पर बहस चलाना भी व्यर्थ है। लेकिन इस पर बहस चलाई जा रही है। विधि आयोग राजनैतिक दलों की बैठकें कभी बुलाता है, तो निर्वाचन आयोग कभी इस पर अपनी राय देने लगता है। सभी विधानसभाओं के चुनाव नही ंतो 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव करवाने की खबर निर्वाचन आयोग से निकलती है, और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की तरफ से उसका खंडन सामने आ जाता है कि पार्टी का उस दिशा में बढ़ने का कोई इरादा नहीं है।

11 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के चुनाव के साथ कराने की खबर के बाद फिर खबर आती है कि इस साल के अंत में होने वाले 4 विधानसभाओं के साथ लोकसभा का चुनाव आयोग करवा सकता है। भारतीय जनता पार्टी की ओर से इसका खंडन नहीं आया है, लेकिन चार राज्यों मंे हार के बाद लोकसभा चुनाव पर पड़ने वाले असर के डर से भाजपा ऐसा करने की सोच सकती है। लेकिन ऐसा करके नरेन्द्र मोदी वही गलती कर रहे होंगे, जो अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में किया था। नवंबर महीने में होने वाले चुनाव को मई में ही करवा लिया था और समय से 6 महीना पहले ही उनकी सरकार सत्ता से बाहर हो गई। संभवतः मोदी अटल वाली गलती नहीं दुहराना चाहेंगे। (संवाद)