देश के विकास में कभी राजनीतिहित आड़े नहीं आने दिया। विकास के लिए अगर किसी दूसरे दल ने अच्छी नीतियां बनाई हैं तो अटल ने उसे अपनी सरकार में भी आगे बढ़ाया। उनके चरित्र में एक अडिगता के साथ अटलता थी। पोखरण परीक्षण उनके इसी स्थिर व्यक्तित्व की पहचान थी। हालांकि इसके बाद अमेरिका के साथ दूसरे देशों ने भारत के खिलाफ आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबंध लगाए, लेकिन इसके बाद भी देश ने चुनौतियों का सामना किया।

आधुनिक भारतीय राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी बाजपेयी का संपूर्ण व्यक्तित्व शिखर पुरुष के रुप में दर्ज है। दुनिया में उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद, कवि, पत्रकार व लेखक के रुप में दर्ज है। स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आपातकाल एंव आधुनिक भारत की राजनीति में अटल योद्धा की धूरी भांति अडिग रहे। राजनीति में उदारवाद के सबसे बड़े समर्थक थे। उन्होंने खुद को विचारधारा की कीलों से कभी नहीं बांधा। राजनीति को दलगत और स्वार्थ की वैचारिकता से अलग हट कर अपनाया और जिया। जीवन में आने वाली हर विषम परिस्थितियों और चुनौतियों को स्वीकार किया। नीतिगत सिद्धंात और वैचारिकता का कभी कत्ल नहीं होने दिया। राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव में उन्होंने आलोचनाओं के बाद भी अपने को फिट किया। राजनीति में धुर विरोधी भी उनकी विचारधाराओं और कार्यशैली के कायल थे और रहेंगे। आपातकाल के दौरान डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर में मौत के बाद उन्होंने राजनीति में अपनी सक्रिय भूमिका को आगे बढ़ाया।

अटल जी मूलतः उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के बटेश्वर गांव के रहने वाले थे। लेकिन पिता कृष्ण बिहारी बाजपेयी मध्य प्रदेश में शिक्षक थे। इसलिए उनका जन्म भी ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को हुआ था। उनकी माता कृष्णा जी थी। लेकिन उत्तर प्रदेश से उनका राजनीतिक लगाव सबसे अधिक रहा। प्रदेश की राजधानी लखनऊ वे सांसद चुने गए थे। भारत रत्न सम्मान से पूर्व उन्हें श्रेष्ठ सांसद और लोकमान्य तिलक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। साहित्य के प्रति बचपन से उनका लगाव था। बचपन से वे कविताएं लिखते थे। कविताओं को लेकर उन्होंने कहा था मेरी कविताएं जंग का एलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है। उनकी कविताओं का संकलन ‘मेरी इक्यावन कविताएं‘ खूब चर्चित हुई। उस संकलन को मुझे भी पढ़ने का सौभाग्य मिला। एक कविता उनकी बेहद चर्चित हुई जिसमें....हार नहीं मानूंगा, रारा नहीं ठानूंगा...खास चर्चा मंे रही। यह कविता उनके राजनैतिक जीवन की विवशता और दायित्वों के साथ जीवन संघर्ष की ओर इशारा करती हैं। आपातकाल के दौरान जेल में रहते हुए भी उनकी रचनाधर्मिता जारी रही। उनकी एक कविता में आपातकाल की पीड़ा साफ झलकती है। जिसे उन्होंने जेल में रहते हुए लिखा। ...टूट सकते हैं मगर झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से। न्याय लड़ता निरंकुशता से...। इस कविता में राजसत्ता की यातना की पीड़ा और भीतर चल रहे द्वंद्व का उल्लेख किया गया। उनकी प्रमुख रचनाओं में मृत्यु या हत्या, काव्य संग्रह अमर बलिदान, कैदी कविराय की कुंडलियां, राजनीति की रपटीली राहें, सेक्युलरवाद और अन्य रचनाएं खास हैं।

राजनीति में संख्या बल का आंकड़ा सर्वोपरि होने से 1996 में उनकी सरकार सिर्फ एक मत से गिर गई और उन्हें प्रधानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। यह सरकार सिर्फ तेरह दिन तक रही। बाद में उन्होंने प्रतिपक्ष की भूमिका निभायी। इसके बाद हुए चुनाव में वे दोबारा प्रधानमंत्री बने। संख्या बल की राजनीति में यह भारतीय इतिहास के लिए सबसे बुरा और काला अध्याय था। हलांकि इस घटना से अटल बिहारी बाजपेयी बिचलित नहीं हुए उन्होंने इसका मुकाबला किया। 16 मई से 01 जून 1996 और 19 मार्च से 22 मई 2004 तक वे भारत के प्रधानमंत्री रहे। अटल जी संघ के संस्थापक सदस्यों में एक थे। 1951 में संघ की स्थापना की गइ्र्र थी। 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे। राजनीतिक सेवा का व्रत लेने के कारण वे आजीवन कुंवारे रहे। राष्टीय स्वयं सेवक संघ के लिए आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लिया। अटल बिहारी बाजपेयी गैर कांग्रेस से इतर पहले प्रधानमंत्री बने जिन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता से भाजपा को शीर्ष सम्मान दिलाया। गठबंधन की राजनीति में उनका भी अटूट विश्वास था। यहीं वजह थी कि उन्होंने दो दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों को मिलाकर राजग बनाया था। राजग की सरकार में 80 से अधिक मंत्री थे। यह सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता के पीछे अटल जी का हाथ हैं। जिसकी वजह से भाजपा आज देश की शीर्षस्थ राजनीतिक दल बन गया है। बाजपेयी कभी भी उग्र राजनीति में आक्रमकता के पोषक नहीं थे। वैचारिकता को उन्होंने हमेंशा तवज्जों दिया। राजनीति के शिखर पुरुष अटलजी मानते थे कि राजनीति उनके मन का पहला विषय नहीं था। राजनीति से उन्हें कभी-कभी तृष्णा होती थी। लेकिन वे चाहकर भी इससे पलायित नहीं हो सकते थे। क्योंकि विपक्ष उन पर पलायन के साथ विचलित होने की मोहर लगा देता, जबकि अटल जी का व्यक्तित्व कभी पराजय स्वीकार करना नहीं सीखा था। राजनैतिक दायित्वों का डट कर मुकाबला करना चाहते थे। यह उनके जीवन संघर्ष की भी एक जमींनी खूबी थी।

अटल एक कुशल कवि के रुप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। लेकिन बाद में इसकी शुरुवात पत्रकारिता से हुई। पत्रकारिता ही उनके राजनैतिक जीवन की आधारशिला बनी। उन्होंने संघ के मुखपत्र पांचजन्य, राष्टधर्म और वीर अर्जुन जैसे अखबारों का संपादन किया। अपने कैरियर की शुरुवात पत्रकारिता से किया।1957 में देश की संसद में जनसंघ के सिर्फ चार सदस्य थे। जिसमें एक अटल बिहारी बाजपेयी थी थे। संयुक्तराष्ट संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में भाषण देने वाले अटलजी पहले भारतीय राजनीतिज्ञ थे। बाजपेयी सबसे पहले 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। बाद में 1957 में गोंडा की बलरामपुर सीट से जनसंघ उम्मीदवार के रुप में जीत कर लोकसभा पहुंचे। उन्हें मथुरा और लखनउ से भी लड़ाया गया था लेकिन पराजय का सामना करना पड़ा था। अटल बीस सालों तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता के रुप में काम किया। इंदिरा गांधी के खिलाफ जब विपक्ष एक हुआ और बाद में मोरारजी देशाई की सरकार बनी तो अटल को भारत की विदेश नीति बुलंदियों पर पहुंचाने के लिएं विदेश मंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी। बाद में 1980 में वे जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष की कमान सौंपी गयी। इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष पद का कुशल नेतृत्व किया।

बाजपेयी के व्यक्तित्व की एक खास खूबी थी कि उन्होंने रुढ़िवादिता और अंधी गलियों की ओर मुड़ने वाली विचारधाओं का कभी समर्थन नहीं किया। वह हर नयी विचारधारा को गले लगाना चाहते थे। चाहे कम्युनिज्म या फिर कांग्रेस का सि़द्धांत रहा हो, लेकिन उसके साथ यह शर्त रही कि समाज में वह समानता का समर्थन करती हो न कि वाद का, वाद शब्द से गहरी उन्हें घृणा थी। किसी को खुद से अछूत नहीं माना। कम्यूनिज्म को एक विचारधारा के रुप में पढ़ा। इसके बाद वे छात्र राजनीति में आए। जनसंघ में रहने के बावजूद नेहरु के विचारों का समर्थन किया। इंदिरा गांधी के कार्यों की सराहना की थी। 1975 में इंदिरा गांधी सरकार में आपातकाल का विरोध किया था। लेकिन बंग्लादेश के निर्माण में इंदिरा गांधी की भूमिका को सराहा था। उनका साफ कहना था कि जिसका विरोध जरुरी था उसका विरोध किया और जिसकी प्रशंसा चाहिए थी उसे वह सम्मान दिया। अटल हमेंशा से समाज में समानता के पोषक थे।

अटल जी का विदेश नीति पर नजरिया साफ था। वह आर्थिक उदारीकरण के विरोधी नहीं थे। लेकिन वह इमदाद देशहित के खिलाफ हो, ऐसी नीति को बढ़ावा देने के हिमायती नहीं रहे थे। उन्हें विदेश नीति पर देश की अस्मिता से कोई समझौता स्वीकार नहीं था। अपने प्रधान मंत्रित्वकाल में आर्थिक नीतियों के समर्थक थे। विदेशी पूंजी निवेश को वे गलत नहीं मानते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उनकी सरकार का एनरान समझौता था। हालंाकि एक बार इसे रदद कर दिया गया था बाद में सरकार की घरेलू नीतियों और देशहित को देखते हुए हरीझंडी दी गई। विरोधियों की तरफ से इस समझौते पर खूब हमला बोला गया था। उनके विचार में सिर्फ सरकार बदलने से नीतियों में बदलाव आएगा ऐसी बात नहीं है, लेकिन अच्छी नीतियों से गुरेज नहीं होना चाहिए। वह विज्ञान और विकास के बड़े समर्थक रहे। उन्होंने कहा था कि भारत को लेकर मेरी एक दृष्टि है। हमें ऐसे भारत का निर्माण करना है जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो। तत्कालीन प्रधानमंत्री रहे लालबहादुर शास्त्री जी की तरफ से दिए गए नारे जय जवान जय किसान में एक नारा अलग से जय विज्ञान भी उन्होंने जोड़ा।

भारत की सामरिक सुरक्षा पर उन्हें समझौता गवांरा नहीं था। वैश्विक चुनौतियों के बाद भी राजस्थान के पोखरण में 1998 में पांच परमाणु परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद अमेरिका, आस्टेलिया और यूरोपीय देशों की तरफ से भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन उनकी दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति इन परिस्थितियों मंे भी उन्हें अटल स्तंभ के रुप में अडिग रखा। अपने नेतृत्वकाल के दौरान पाकिस्तान की नापाक हरकतों के रुप में कारगिल युद्ध की भयावहता का भी डट कर मुकाबला किया और पाकिस्तान को धुल चटायी। पाकिस्तान को आखिर अपनी बदनीयति का खामियाजा भुगतना पड़ा और भारत ने कारगिल युद्ध फतह किया। पड़ोसियों से उनकी नियति हमेंशा मधुर संबंध बनाने की रही। पाकिस्तान के संबंध में उन्होंने कहा था कि हम दोस्त बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं। पाकिस्तानी राष्टपति परवेज मुशर्रफ को बेहतर सम्मान दिया। आगरा में उनकी भव्य आगवानी भी की। लेकिन बाद में उन्हीं मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध के रुप में भारत की पीठ में छूरा भोंपने का काम किया। हालांकि भारत ने करारा जबाब दिया। इसके पहले उन्होंने लाहौर तक बस यात्रा की। दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने के लिए समझौता एक्सप्रेस भी चलवाई। लेकिन पाकिस्तान अपनी सोच में बदलाव नहीं ला सका। आज उसी की पीड़ा वह झेल रहा है।

बाजपेयी की नीतियां विकास में भी अटल की नीतियां कामयाब रहीं। दक्षिण भारत के सालों पुराने कावेरी जल विवाद का हल निकाला। इसके बाद स्वर्णिम चर्तुभुज योजना से देश को राजमार्ग से जोड़ने के लिए कारिडोर बनाया। मुख्य मार्ग से गांवों को जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री सड़क योजना बेहतर विकास का विकल्प लेकर सामने आयी। कोंकण रेल सेवा की आधारशिला उन्हीं के काल में रखी गयी। भारतीय राजनीति में अटल बिहारी बाजपेयी एक अडिग, अटल और लौह स्तभं के रुप में आने वाली पीढ़ी को सिख देते रहेंगे। देश के राजनीतिज्ञों को उनकी नीतियों और विचारधाराओं को सम्मान करना चाहिए। सिर्फ भाजपा ही नहीं अपितु पूरे भारतीय राजनीति के लिए वह सम्माननीय हैं। हमारे बीच से एक अडिग, अटल, श्लाका पुरुष हमेंशा के लिए अलविदा हो गया। भारतीय राजनीति में अटल की भरपाई संभव नहीं है। वह राजनीति के युग पुरुष थे। उनकी रिक्तता हमेंशा के लिए शून्यता में बदल गयी है। आप करोड़ों भारतीयों के दिल में हमेंशा बने रहेंगे। एक विनम्र श्रद्धांजलि, अलविदा अटल। शतशत नमन। (संवाद)