ताजा बयानबाजी सऊदी अरब से संबंधित उनके एक बयान को लेकर है। उन्होंने कह दिया कि सऊदी अरब भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों के बीच मध्यस्थता कर सकता है। भारत और पाकिस्तान के बीच किसी तीसरे पक्ष को लाने का हमारा देश विरोधी रहा है। कश्मीर की समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं हो, इसीलिए हम किसी और देश को पाकिस्तान के साथ बातचीत के बीच में नहीं लाना चाहते। दूसरी तरफ पाकिस्तान कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहता है, इसलिए वह बार बार अस मसले पर किसी तीसरे पक्ष को लाने की कोशिश करता है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच 1972 में एक समझौता हुआ था। वह समझौता शिमला में हुआ था। उस समझौते के तहत कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच का एक द्विपक्षीय समस्या करार दिया गया है। उस समझौते की आड़ लेकर हम कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण को रोकते हैं।
पर विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने सऊदी अरब को भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ की भूमिका में लाकर कश्मीर मसले पर पाकिस्तान को मजबूत करने वाली बयानबाजी कर दी। वे अपनी बात का खंडन भी कर चुके हैं। उन्होंने कह दिया कि उन्हें सऊदी अरब की बात तो जरूर की थी, लेकिन उसके भारत और पाकिस्तान के बीच में मध्यस्थ बनने की बात नहीं की थी। उन्होंने क्या कहा था। यह सुनने वालों का भी पता है। जिन शब्दों का उन्होंने इस्तेमाल किया था, उनके क्या अर्थ होते हैं, यह सिर्फ उन्हें ही नहीं मालूम अन्य लोग भी जानते हैं। लेकिन वे कह रहे हैं कि उनकी बातों को तोड़ मरोड़ कर मीडिया द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
आखिर पाकिस्तान कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण क्यों करना चाहता है और भारत उसे वैसा करने क्यों नहीं देता? इसका कारण यह है कि कश्मीर कभी अंतरराष्ट्रीय मंच का हिस्सा बन चुका था। जब पाकिस्तान की सहायता से कबायली कश्मीर पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे, तो वहां के महाराज ने भारत की सहायता मांगी थी। भारत ने कश्मीर के भारत में विलय के बाद ही वहां सेना भेजने की पेशकश की थी। महाराजा ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया और भारत ने कबायलियों और पाकिस्तान के खिलाफ वहां सैनिक कार्रवाई की। युद्ध हुए और मामला संयुक्त राष्ट्र संध में गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से वहां युद्ध विराम हुआ। कश्मीर पर राष्ट्रसंध का एक प्रस्ताव भी आया, जिसके तहत पाकिस्तानी सेना को अपने कब्जे वाला कश्मीर खाली कर देना था और उसके बाद वहां जनमतसंग्रह होना था। जनमत संग्रह में कश्मीर के लोगों को यह फैसला करना था कि उन्हे पाकिस्तान में रहना है कि भारत में।
लेकिन राष्ट्र संघ का वह प्रस्ताव अमली जामस नहीं पहन सका। पहला प्रस्ताव पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जा किए गए हिस्से को खाली करना था। पाकिस्तान ने वह किया ही नहीं। उसके उस कदम के बाद ही जनमत संग्रह पर आगे कार्रवाई होनी थी, लेकिन पाकिस्तान ने वह कदम उठाया ही नहीं। जम्मू और कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य है, लेकिन उस समय वहां लोगों के बीच पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बना हुआ था। कबालियों ने वहां लूटपाट मचाई थी और पाकिस्तान की सेना ने उनका समर्थन किया था, इसलिए मुसलमान भी पाकिस्तान के खिलाफ थे। शेख अब्दुल्ला वहां के सबसे बड़े जननेता थे। वे भी पाकिस्तान के खिलाफ थे। महाराजा ने तो पहले ही कश्मीर के भारत में विलय की घोषणा कर दी थी। इसलिए माहौल भारत के पक्ष में था। यदि उस समय जनमत संग्रह होता, तो वह पाकिस्तान के खिलाफ जाता। इसलिए पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले हिस्से को खाला किया ही नहीं और इस तरह से उसके कारण कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं हो सका।
शेख अब्दुल्ला के जवाहर लाल नेहरू से संबंध बिगड़ने के बाद पाकिस्तान फिर जनमत संग्रह की मांग करने लगा। वह आज भी जनमतसंग्रह की मांग करता है, जो भारत को अब मंजूर नहीं है, क्योंकि भारत कश्मीर को अपना अटूट हिस्सा मानता है और अपने किसी भी हिस्से के नागरिकों को वह अस तरह के जनमत संग्रह में शामिल होने की इजाजत नहीं दे सकता। रही बात संयुैत राष्ट्रसंघ के प्रस्तावों की तो वे प्रस्ताव अपना अर्थ खो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ भी अब उस प्रस्ताव का मृत मान चुका है। पाकिस्तान का मुह बंद करने के लिए भारत का शिमला समझौता काफी है, जिसमें दोनो देश इस बात पर सहमत हो चुके हैं कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का एक द्विपक्षीय मसला है जिसका हल द्विपक्षीय बातचीत से ही निकाला जाएगा।
फिर भी पाकिस्तान कश्मीर मसले पर किसी तीसरे पक्ष को लाने की बार बार कोशिश करता है। वह कभी इसे संयुक्त राष्ट्र संघ नें उठाता है तो कभी मुस्लिम देशों की बैठकों में और वह कभी अमेरिका को इसमें शामिल करना चाहता है, लेकिन भारत उसके इन प्रयासों का हमेशा विरोध करता है और उसने अब तक पाकिस्तान के कश्मीर मसले पर किसी तीसरे पक्ष को लाने के किसी भी प्रयास को विफल कर दिया है।
इसलिए जब शशि थरूर ने सऊदी अरब को भारत और पाकिस्तान के बीच में लाने की बात कही, तो एक तरह से वे पाकिस्तानी विदेश मत्री की तरह बोलते दिखाई पड़ रहे थे, भारत के विदेश राज्य मंत्री की तरह नहीं। भारत के किसी जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति कभी भी उस तरह की बात कर ही नहीं सकता। कश्मीस समस्या के बारे में जो थोड़ी भी जानकारी रखता है, उसे पता है कि कश्मीर समस्या के हल में किसी तीसरे पक्ष को लाने का क्या मतलब होता है। श्री थरूर खुद संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े रहे हैं, जहां के एक मृत प्रस्ताव की पाकिस्तान बार बार दुहाई देता है। वे खुद अंतरराष्ट्रीय मामलों के लेखक भी रहे हैं। इसलिए उनसे इस तरह की चूक की उम्मीद तो कोई कर ही नहीं सकता। फिर भी उन्होंने वह कहा जो विदेश विभाग से जुड़े किसी भी भारतीय को कहना ही नहीं चाहिए। उनके उस बयान का दो ही मतलब हो सकता है। पहला, वे कश्मीस समस्या के हल के लिए किसी तीसरे पक्ष की सहायता लेने के खिलाफ नहीं है। दूसरा, उन्हें कश्मीर मसले पर भारत की नीति की जानकारी ही नहीं है। दोनो परिस्थितियों में उन्हें अपने पद पर बने रहने का कोई अघिकार नहीं है। लेकिन फिर भी वे अपने पद पर बने हुए हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री उन्हें बनाये रखना चाहते हैं। और प्रधानमंत्री उन्हें क्यों ढोये जा रहे हैं, इसका जवाब तो वे खुद ही जानते होंगे। (संवाद)
शशि थरूर आखिर कैसे काबिज हैं मंत्री पद पर
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-03-03 13:14
विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर एक के बाद एक विवाद पैदा किए जा रहे हैं। जिस तरह के गैर जिम्मेवाराना बयानबाजी वे कर रहे हैं, वैसा करके वे न तो किसी सरकार में और न ही किसी अन्य जिम्मेदारी के पद पर रह सकते हैं। फिर भी वे मनमोहन सिंह सरकार में बखूबी बने हुए हैं। उनके गैर जिम्मेदाराना बयानों से सरकार की नहीं उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस की भी फजीहत होती है, लेकिन उन्हें अंतिम मौका देने की बात करके उनकी पार्टी उन्हें माफ कर देती है और प्रधानमंत्री को भी उनमें ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता है, जिसके कारण उन्हें सरकार से निकाला जा सके।