इसमें दो मत नहीं कि अयोध्या मसले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी न तो अपनी पार्टी को भरोसे में ले पा रहे हैं और न ही संघ परिवार को। उन्होंने संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली है और उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वे कानून के राज का पालन करेंगे और कराएंगे। कानून के राज के पालन का मतलब अयोध्या में इस समय यथास्थिति को बनाए रखना है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश है। उस भूमि का केन्द्र सरकार ने 1993 में ही अधिग्रहण कर लिया था। तकनीकी रूप से वह केन्द्र सरकार के नियंत्रण वाली भूमि है।

जब अधिग्रहण के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, तो केन्द्र सरकार ने यही कहा था कि उसका अधिग्रहण वहां शांति बनाए रखने के लिए किया गया है, ताकि कोई पक्ष गड़बड़ी न कर सके। चूंकि भूमि राज्य सरकार का मसला होता है और भूमि अधिग्रहण का अधिकार प्रदेश सरकार का ही होता है, इसलिए उस समय केन्द्र सरकार को लगा होगा कि विधानसभा चुनाव के बाद फिर भाजपा की सरकार बन सकती है और वह सरकार विवादित भूखंड को अधिग्रहित कर उसे मंदिर निर्माण के लिए संबंधित पक्ष को दे सकती है।

इसलिए समवर्ती सूची में मिले विशेष अधिकार का प्रयोग कर केन्द्र सरकार ने वह जमीन खुद अधिग्रहित कर ली थी ताकि भविष्य में मंदिर परस्त कोई प्रदेश सरकार अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर उसे अधिग्रहित नहीं कर सके। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा भी था कि अदालत के फैसले के बाद वह भूखंड जिस पक्ष का पाया जाएगा, सरकार उसे वह भूखंड दे देगी। केन्द्र सरकार के इस आश्वासन पर ही सुप्रीम कोर्ट ने उस भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना रद्द नहीं की थी और कहा था कि केन्द्र सरकार अपने आपको उस भूखंड का कस्टोडियन समझे और जब तक अदालत का अंतिम फैसला नहीं आ जाए, तब तक वहां यथास्थिति बनाए रखे।

इसलिए कानून का राज तभी माना जाएगा, जब केन्द्र सरकार और राज्य सरकार भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करते हुए यथास्थिति को वहां भंग नहीं होने दे। यथास्थिति बरकरार रखने से मतलब है कि वहां किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं कराया जाय और मूर्ति जिस जगह रखी हुई है, उसे उसी जगह रहने दिया। इसके अलावा वहां जिस तरह की व्यवस्था मस्जिद घ्वंस के बाद चल रही है, वह व्यवस्था चलती रहने दिया जाय।

लेकिन मंदिरवादी वहां मंदिर निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं। विवादित भूखंड वहां तीन एकड़ से भी कम की जमीन है और मंदिर व मंदिर परिसर कई एकड़ में फैला हुआ होगा, ऐसी योजना है। इसलिए विवादित भूखंड पर यथास्थिति रखते हुए भी वहां से कुछ दूरी पर मंदिर निर्माण की नींव रखकर कानून के राज को संरक्षित किया जा सकता है और मंदिरवादियों के हठ की भी तृप्ति की जा सकती है, लेकिन मंदिरवादियो के मूड को देखते हुए तो यही लग रहा है कि कानून के राज में उनकी आस्था नहीं है।

शिवसेना के अध्यक्ष उद्घव ठाकरे कह चुके हैं, ‘‘पहले मंदिर, फिर सरकार’’। इसका मतलब यह होता है कि उत्तर प्रदेश और केन्द्र की सरकारें भले ही चली जाएं, पर मंदिर तो बनाना ही है। भाजपा के एक विधायक तो यहां तक कह चुके हैं कि मंदिर बनाने के लिए यदि संविधान भी तोड़ना पड़े, तो उसे तोड़ दिया जाएगा। शिवसेना के एक नेता, जो सांसद भी हैं, कह रहे हैं कि मस्जिद तोड़ने मे 17 मिनट लगे थे, मंदिर बनाने के अध्यादेश लाने में इससे भी कम समय लगेंगे।

तो इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि मंदिरवादियों को पूरा भरोसा है कि केन्द्र सरकार अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण की इजाजत देगी और अधिग्रहित भूखंड निर्माण करने वालों को सुपूर्द कर दिया जाएगा? पहला सवाल तो यह है कि क्या केन्द्र सरकार संवैधानिक रूप से सक्षम है कि वह किसी मंदिर निर्माण के लिए अधिग्रहित किसी भूखंड को दे दे, जबकि उस भूखंड के मालिकाना हक को लेकर कोर्ट में विवाद चल रहा है?

भारत एक सेकुलर राज्य है और अतीत में सुप्रीम कोर्ट के फैसले आए हैं, जिसके अनुसार सरकार किसी रिलिजन का पक्ष नहीं ले सकती। सरकार अपने आपको किसी रिलिजन विशेष के साथ जोड़कर भी नहीं रख सकती। इसलिए जाहिर है कि केन्द्र सरकार संवैधानिक रूप से ऐसा नहीं कर सकती, लेकिन अतीत में सरकार द्वारा जारी किए गए अनेक अध्यादेशों और संसद द्वारा बनाए गए अनेक कानूनों को असंवैधानिक बता निरस्त कर चुकी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट तब तस्वीर में आती है, जब कानून बन जाता है अथवा अध्यादेश जारी हो जाता है। उसके बाद ही उसे वह वैध या अवैध घोषित करता है।

वर्तमान परिस्थिति में यदि केन्द्र सरकार अध्यादेश द्वारा विवादित भूखंड को मंदिर निर्माण के लिए दे देती है, तो उस अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट मे मामला जाने के बाद कोर्ट द्वारा उसपर अंतरिम रोक लगाने तक का समय मंदिरवादियों के पास होगा और इस बीच वे निर्माण कार्य कानूनी जामा पहनकर कर सकते हैं, लेकिन समस्या तो उसके बाद भी आएगी। इसलिए बेहतर यही होगा कि होगा कि वहां यथास्थिति बनाई रखी जाय और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार हो। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? (संवाद)