नारों या स्लोगन को गढ़ना एक बड़ी चुनौती होती है। इस काम में वामपंथी दलों से जुड़े लोगों को महारथ हासिल रही है। जैसे - हर हाथ को काम चाहिए, दाम बांधो काम दो - वरना गद्दी छोड़ दो। लेकिन साल 2014 में लोकसभा चुनाव में गढ़े गए नारे - ‘‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’’ और ‘‘अबकी बार, मोदी सरकार’’ ने सभी नारों को पछाड़ दिया था। यह भाजपा द्वारा गढ़े गए, अब तक के सभी स्लोगन में सबसे हिट रहा था। यह अति प्रचार का दौर था, जब किसी व्यक्ति की छवि को चमकाने के लिए बहुत बड़ी राशि खर्च की गई थी। इस नारे से बनी छवि की बदौलत ही मोदी ने भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं को पीछे करने में सफलता पाई थी। भाजपा को 2014 की लोकसभा चुनाव में उम्मीद से ज्यादा सीटें हासिल हुई थी।

लोगों की जुबान पर चढ़ जाने वाले स्लोगन से पार्टियों को अपने पक्ष में माहौल बनाना आसान हो जाता है। लेकिन हर पार्टी के नारे या स्लोगन जिताऊ साबित नहीं होते हैं। 2004 में ‘‘इंडिया शाइनिंग’’ बुरी तरह से फेल हुआ था और उस स्लोगन के बावजूद जनता ने एनडीए को नकार दिया था। तब कांग्रेस का नारा ‘‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ हिट हो गया था।

2014 लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली विधानसभा के अहम चुनाव में ‘‘केन्द्र में मोदी और दिल्ली में बेदी’’ का भाजपाई नारा हिट नहीं हो पाया। यहां आम आदमी पार्टी ने ‘‘पांच साल, केजरीवाल’’ का नारा दिया था, जो ऐसा हिट हुआ कि 49 दिन सरकार चलाकर इस्तीफा दे देने के बावजूद दिल्ली ने प्रचंड बहुमत से आप को जिताया। बिहार में एनडीए से अलग होकर जनता दल यूनाइटेड ने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ चुनाव में जाना पसंद किया। इस निर्णय को कई राजनीतिक विश्लेषक आत्मघाती भी मान रहे थे, लेकिन ‘‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’’ लोगों की जुबान पर चढ़ गया। और यहां एनडीए को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। त्रिपुरा में माकपा की एक ईमानदार सरकार लंबे समय से सत्ता पर काबिज थी। एक छोटे राज्य मेें लोकप्रिय और ईमानदार सरकार को हराना आसान नहीं था। यहां भाजपा ने दो शब्द गढ़े - चलो पलटाई। माकपा से महज साढ़े छह हजार वोट भाजपा को ज्यादा देकर 25 साल पुरानी सरकार को जनता ने चुनाव में पलट दिया।

मध्यप्रदेश में भाजपा का नारा ‘‘माफ करो महाराज’’ पाॅपुलर हो गया। इस नारे के साथ कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया पर प्रहार किया गया है। इसका उपयोग आम बोलचाल की भाषा में भी किया जाता है। किसी को हम सुनना नहीं चाहते, या तर्क नहीं करना चाहते, तो कह देते हैं - माफ करो महाराज। मध्यप्रदेश के चुनाव में देखना यह है कि जनता इस नारे का साथ देती है या फिर बदलाव की ओर बढ़ते हुए ‘वक्त है बदलाव का’’ का साथ देती है। (संवाद)