शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा पिछले डेढ़ दशक से सत्तासीन है किन्तु गुजरात के बाद ‘संघ की दूसरी प्रयोगशाला’ माने जा रहे इस राज्य में इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही कुछ क्षेत्रीय दलों की चुनौतियों से भी जूझना पड़ेगा। भाजपा जहां अपनी जीत का चौका लगाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है, वहीं कांग्रेस अपना 15 साल लंबा वनवास खत्म कर सत्ता वापसी के लिए बेकरार है।
दोनों ही प्रमुख दलों के बीच कांटे का मुकाबला तय माना जा रहा है लेकिन दोनों के लिए न केवल भीतरघात से निपटना बड़ी चुनौती बन गया है बल्कि सपा, बसपा सहित कई क्षेत्रीय दल भी इनका खेल बिगाड़ने के लिए मैदान में कूद चुके हैं। भाजपा और कांग्रेस के सरकार बनाने के समीकरण अब काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेंगे कि बागी उम्मीदवार कितनी सीटों पर जीत हासिल करते हैं और दोनों प्रमुख दलों के परम्परागत वोटबैंक में सेंधमारी कर उनकी जीत का गणित भी प्रभावित करेंगे।
230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा के 2013 के चुनाव में भाजपा को 44.88 फीसदी मतों के साथ 165 सीटें, कांग्रेस को 36.38 फीसदी मतों के साथ 58 जबकि अन्य को 11.67 फीसदी मतों के साथ 7 सीटें प्राप्त हुई थी। 2008 के चुनाव में भाजपा को 38 फीसदी मतों के साथ 143 सीटें जबकि कांग्रेस को करीब 32 फीसदी मतों के साथ 71 सीटों पर जीत मिली थी।
देखा जाए तो जहां पिछले 10 वर्षों में भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ने के साथ ही सीटों की संख्या भी बढ़ी, वहीं कांग्रेस का मत प्रतिशत तो बढ़ा किन्तु सीटें कम हो गई। इस बार दोनों दलों की नजरें उन सीटों पर खासतौर से केन्द्रित हैं, जहां पिछले चुनाव में हार-जीत का अंतर बहुत कम मतों का रहा था। कांग्रेस के 11 प्रत्याशी 2013 के चुनाव में महज एक हजार से भी कम मतों के अंतर से हार गए थे जबकि 30 प्रत्याशी ऐसे थे, जो ढ़ाई हजार के अंतर से भाजपा प्रत्याशियों से परास्त हो गए थे। भाजपा के सिर्फ 6 प्रत्याशी ही ऐसे थे, जो एक हजार मतों के अंतर से पराजित हुए थे।
इससे पहले जितने भी चुनाव हुए, क्षेत्रीय दल चुनाव परिणामों पर कोई खास असर नहीं डाल सके किन्तु इस बार स्थितियां काफी बदली हुई हैं। वैसे तो 1972 से ही यहां चुनावी मुकाबला दो दलीय रहा है किन्तु 1990 में दो सीटें जीतने के बाद से बसपा अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज कराती रही है, जो 1996 में 2 लोकसभा तथा 1993 और 1998 में 11 विधानसभा सीटें जीतने में सफल रही थी।
उसके बाद कयास लगाए जाने लगे थे कि बसपा राज्य में तीसरी शक्ति के रूप में तेजी से उभरेगी किन्तु ऐसा संभव नहीं हुआ और पिछले चुनाव में बसपा 6.29 फीसदी मत हासिल कर सिर्फ 4 सीटों पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकी। हालांकि बसपा की राज्य की 15 फीसदी अनुसूचित जातियों पर अच्छी पकड़ है। सपा 1993 में एक सीट जीतकर पहली बार विधानसभा में पहुंची थी। 1998 में 4 और 2003 में 7 सीटें प्राप्त कर किन्तु 2013 में महज 1.2 फीसदी मत हासिल कर सपा बुरी तरह पिछड़ गई थी लेकिन इस बार वह फिर से अपने ही बल पर जोर आजमाइश के लिए मैदान में उतरी है।
बसपा और सपा के अलावा भी कई दल मैदान में ताल ठोंक रहे हैं, जिनकी उपस्थिति को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसका प्रदेश के कई जिलों में अच्छा प्रभाव है। प्रदेश में करीब 80 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासी समाज की बहुलता है और ऐसे कई इलाकों में इस पार्टी की मजबूत पकड़ है। पिछले चुनाव में इस पार्टी ने महज एक फीसदी मत प्राप्त किए थे किन्तु आदिवासी क्षेत्रों में ज्यादातर सीटों पर 18-20 हजार तक वोट हासिल कर हर किसी को चौंका दिया था।
‘जायस’ (जय आदिवासी युवा शक्ति) पहली बार चुनावी महासमर में शामिल हुई है, जिसने मालवा-निमार की 28 ऐसी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं, जिनमें 22 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। इन क्षेत्रों में 22 फीसदी आदिवासी समुदाय की भी हिस्सेदारी है, जिन पर जायस की अच्छी पकड़ मानी जाती है। कहा जाता है कि जायस कांग्रेस के दिमाग की ही उपज है।
एक अन्य पार्टी ‘सामान्य पिछड़ा अल्पसंख्यक समाज कल्याण संस्था’ (सपाक्स) भी सभी 230 सीटों पर अपने प्रत्याशियों के साथ मैदान में है, जिसकी सरकारी कर्मियों पर अच्छी पकड़ मानी जाती है। बहुत सारे पूर्व सरकारी कर्मचारी इसके सदस्य हैं और माना जा रहा है कि दलित एक्ट में बदलाव से नाराज सवर्णों के भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगाने में यह दल भूमिका निभाएगा। बहरहाल, मध्य प्रदेश में जहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होना तय है, वहीं कुछ क्षेत्रीय दल दोनों दलों के बीच के इस मुकाबले को मत विभाजन के जरिये प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाएंगे। (संवाद
मध्य प्रदेश चुनाव में क्षेत्रीय दलों की भी है भूमिका
योगेश कुमार गोयल - 2018-11-27 10:14
देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें सर्वाधिक महत्व मध्य प्रदेश का माना जा रहा है क्योंकि इन पांच राज्यों में सर्वाधिक 230 विधानसभा सीटें और सबसे ज्यादा 29 लोकसभा सीटें इसी राज्य में हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में पांच करोड़ मतदाता 2907 प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला करेंगे, जिनमें 1102 निर्दलीय उम्मीदवार शामिल हैं।