उत्तर प्रदेश में एससी और ओबीसी को पहले से ही आरक्षण मिल रहा है। वहां कोई नया तबका आरक्षण की मांग नहीं कर रहा। पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों की संख्या अच्छी खासी है, लेकिन वे प्रदेश में ओबीसी की सूची में पहले से ही शामिल हैं और जब तब वे केन्द्र की ओबीसी सूची में मांग करते रहते हैं, लेकिन यहां हम बात उत्तर प्रदेश के आरक्षण की बात कर रहे हैं। यहां सवाल किसी को आरक्षण की सूची से बाहर करने या उसमें शामिल करने का नहीं है। यहां दूसरे तरह की आरक्षण नीति पर राजनीति हो रही है। और वह राजनीति है कि ओबीसी को तीन भागों में बांटकर तीनों भागों को अलग अलग आरक्षण देने की। इस तरह की व्यवस्थाएं देश के अनेक राज्यों में है। पड़ोसी बिहार और झारखंड में ओबीसी पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग के दो भागों में विभाजित हैं, तो कुछ राज्यों में तो ये पांच-पांच भागों तक में विभाजित हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में ओबीसी की एक ही सूची है और उन्हें 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है। उस सूची में जाट, कुर्मी और यादव जैसी दबंग और उन्नत जातियां भी हैं, तो कुछ नोनिया, कहार, राजभर और बाथम जैसी जातियां जो अत्यंत ही पिछड़ी हुई हैं और अपने लिए एससी में सूचीबद्ध होने की मांग भी कभी कभी करती रही हैं।

ओबीसी से एसएसी सूची में स्थानांतरण आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए एससी के लिए निर्धारित मानदंड पर खरा उतरना होगा और फिर संसद की मंजूरी से ही ऐसा हो सकता है, क्योंकि एससी और एसटी सूची संविधान का हिस्सा है और उसमें किसी तरह का बदलाव करने के लिए संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन विधेयक पारित करना होगा। पर ओबीसी की सूची का निर्धारण शासकीय आदेश से होता है और यह आदेश जारी करने में कार्यपालिका यानी केन्द्र और राज्य सरकारें सक्षम हैं।

बहरहाल चर्चा हो रही है उत्तर प्रदेश में आरक्षण सूची के विभाजन की। इसकी मांग प्रदेश के मंत्री ओमप्रकाश राजभर बहुत जोरशोर से करते रहे हैं। जितना भी हो सकता है, वे दबाव भाजपा और मोदी सरकार पर इसके लिए डाल रहे हैं। विभाजन न करने की स्थिति में वे भाजपा के बर्बाद हो जाने की चेतावनी भी दे रहे हैं। ओमप्रकाश राजभर मुखर हैं, लेकिन ओबीसी की कमजोर जातियों के लोग भी ऐसा ही चाहते हैं। उन्हें लगता है कि आरक्षण का फायदा कुछ चुनिंदी जातियों के लोग ही उठा लेते हैं और उनके साथ सामाजिक न्याय नहीं हो पाता। वे महसूस करते हैं कि सूची के विभाजन के बाद उनको सरकारी सेवाओं में बेहतर भागीदारी मिलने लगेगी और शिक्षा संस्थानों में प्रवेश और आसान हो जाएगा।

ओबीसी सूची के विभाजन की मांग के दबाव में योगी सरकार ने एक सामाजिक न्याय समिति बनाई थी। उस समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। अभी वह सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन मीडिया को पता चला है कि ओबीसी जातियों को 9-9 फीसदी आरक्षण पाने के लिए तीन भागों में बांटने की सिफारिश है। पहले भाग को पिछड़ा वर्ग, दूसरे भाग को अति पिछड़ा वर्ग और तीसरे भाग को सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग का नाम दिया गया है। किस भाग में कौन सी जातियां रहेगी, इसका भी निर्धारण कर दिया गया है। पिछड़ा वर्ग में यादव, कुर्मी सहित 12 जातियां होंगी। अति पिछड़ा वर्ग में 59 और सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग में 79 जातियां होंगी।

ओबीसी सूची के विभाजन की मांग तो बहुत पुरानी है और अनेक राज्यों मंे पहले से ही एक से ज्यादा ओबीसी सूची मौजूद है, लेकिन योगी सरकार के पास एससी जातियों को भी तीन सूची में बांटने का प्रस्ताव है। मीडिया में आई जानकारी के अनुसार पहली सूची में शामिल एससी को दलित, दूसरी को अतिदलित और तीसरी सूची में शामिल जातियों को महादलित जातियां कहा जाएगा। दलित शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाने का अदालती फरमान है, इसलिए शायद ये टर्म नहीं होंगे, लेकिन उनको तीन भाग में बांटने की बात सच हो सकती है।

लेकिन समस्या यह है कि क्या प्रदेश सरकार एस सूची को तीन भागों में बांट सकती है? सूची में संशोधन तो संविधान के संशोधन से ही संभव है, पर शायद उनमें विभाजन के लिए संविधान संशोधन की प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। बहरहाल, यदि सरकार सामाजिक न्यास समिति की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश करती है, तो उसे अदालत में चुनौती दिया जाना तय है और अदालती फैसले के बाद ही उस पर अमल संभव हो पाएगा।

पर असली सवाल है राजनीति और राजनैतिक परिणामों का। दबंग दलित और ओबीसी जातियां सरकार से इस निर्णय से नाराज हो जाएंगी और उनका मत मिलना भाजपा के लिए दूभर हो जाएगा। भाजपा यादव वोटों की परवाह शायद नहीं करे, क्योंकि वे उसे मिलते ही नहीं, लेकिन कुर्मी मतों का नुकसान तो उसे हो ही जाएगा। हां, दलितों में भाजपा की पैठ हो जाएगी, क्योंकि वहां जाटवों के वर्चस्व से गैर जाटव जातियों के लोग परेशान हैं और यदि 12 फीसदी जाटवों के आरक्षण को 7 फीसदी तक ही सीमित कर दिया जाता है, तो इसका भरपूर फायदा अन्य दलित जातियों को मिलेगा।

बहरहाल भारतीय जनता पार्टी के लिए विभाजन की दिशा में आगे बढ़ना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि आरक्षण की रणनीति हमेशा फायदा ही नहीं पहुंचाती, कभी कभी नुकसान भी पहुंचा देती है। (संवाद)