राहुल गांधी गुजरात चुनाव के समय से ही मंदिरों का चक्कर लगा रहे हैं और वहां बैठकर धार्मिक अनुष्ठान भी कराते रहे हैं। वहां पूजा कराने वाले पंडित उनसे उनका गोत्र जरूर पूछते होंगे और वे अपना गोत्र जरूर बताते होंगे, लेकिन वह संवाद सिर्फ राहुल और उस पंडित के बीच तक ही सीमित रहता था, पर राजस्थान चुनाव अभियान के तहत राहुल के मंदिर दर्शन कार्यक्रम के बाद यह बात दुनिया के सामने आ गई कि राहुल का गोत्र दत्तात्रेय हैं। इस तरह उन्होंने अपनी तरफ से यह साबित कर दिया कि वे ब्राह्मण ही हैं और उनके हिन्दू होने के लेकर फैलाया जा रहा भ्रम शरारतपूर्ण हैं।

राहुल गांधी किस तरह की राजनीति करते हैं, यह उनका अपना अधिकार है। वे जाति की राजनीति करें, गोत्र की राजनीति करें या धर्म की करें, वह इसके लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह एक नया अनुभव है। देश की राजनीति के लिए यह एक नया अजूबा है कि जो पार्टी धर्मनिरपेक्षता के लिए जानी जाती थी, वह पार्टी अब धर्म की राजनीति कर रही है। यह काम राहुल गांधी निश्चय ही शौक से नहीं कर रहे हैं। वे विवशतावश ही ऐसा कर रहे होंगे, क्योंकि उन्हें समझा दिया गया होगा कि उनकी विरोधी भाजपा के लोग उन्हें अहिन्दू साबित करने पर तुले हुए हैं और उन लोगों को गलत साबित करने के लिए उन्हें अपने आपको हिन्दू के रूप में प्रोजेक्ट करना ही होगा। जब हिन्दू के रूप में प्रोजेक्ट करना है, तो जाति भी बतानी पड़ेगी और गोत्र भी बताना पड़ेगा। अपनी जाति को साबित करने के लिए जनेऊ भी दिखाना पड़ेगा।

लिहाजा राहुल गाधी वही कर रहे हैं, जो उन्हें सही समझ में आ रहा है या जो उन्हें समझाया जा रहा है। हालांकि यह भी सच है कि इससे उनको कोई चुनावी फायदा नहीं हो रहा है। गुजरात में उनकी पार्टी हार चुकी है, जबकि जीतने के लिए उनके पास एक से एक बड़े चुनावी मुद्दे थे। नोटबंदी और जीएसटी को उन्होने भुनाया भी। पाटीदारों का भाजपा से विरोध और दलितों पर गुजरात के हुए अत्याचार दो ऐसे फैक्टर थे, जो कांग्रेस के लिए काम कर रहे थे। इसके बावजूद वहां कांग्रेस की जीत नहीं हो पाई और जो कुछ सीटों के रूप में फायदा हुआ, वह निश्चय ही राहुल के मंदिर भ्रमण के कारण नहीं हुआ। उसके लिए वहां की राजनैतिक स्थितियां ही जिम्मेदार थीं।

उसके बावजूद राहुल का मंदिर भ्रमण जारी रहा और इसे कर्नाटक में भी आजमाया गया। वहां सिद्दधरमैया ने जीत के लिए जरूरी सारे उपाय अपना रखे थे और राहुल गांधी भी मंदिर मंदिर घूम रहे थे, लेकिन वहां भी कांग्रेस की हार हुई। उसे बहुमत नहीं मिला। बहुमत तो दूर, वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भी उभर नहीं सकी और नतीजे के बाद भाजपा को रोकने के लिए उसे उस पार्टी को समर्थन देना पड़ा, जिसे वह चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा की बी टीम कहा करती थी।

मंदिरों में चक्कर लगाने के बावजूद कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हो रहा है, लेकिन राहुल गांधी अपने आपको हिन्दू और ब्राह्मण साबित करने के लिए आमादा हैं। इसका क्या मतलब है? राहुल गांधी के नजरिए से देखें, तो वह भाजपा के उस अभियान से डर गए हैं, जिसके तहत उन्हें अहिन्दू के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कांग्रेस के नजरिए से देखें, तो वह अपने ़ऊपर मुस्लिमपरस्ती के दाग को धोना चाहती है और यदि देश के नजरिए से देखें, तो यह भारतीय राजनीति का हिन्दुत्वकरण है।

भारतीय जनता पार्टी पहले से ही हिन्दुत्व की राजनीति कर रही है और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भी उसी रास्ते पर बढ़ रही है, हालांकि उसकी मुस्लिम नीति भाजपा से अलग है। देश की अन्य अनेक क्षेत्रीय पार्टियां भी जाति धर्म की राजनीति कर रही है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाली वाम पार्टियां जातिवादी पार्टियों के साथ जुड़ जुड़ कर धीरे धीरे अप्रासंगिक होती जा रही है। जाहिर है, अब राजनैतिक मामलों को केन्द्र बनाकर राजनीति नहीं की जा रही, बल्कि उन मामलों को केन्द्र में लाकर राजनीति की जा रही हैं, जो लोगों की समस्या से जुड़े हुए नहीं हैं, बल्कि जो उनकी भावनाओं से जुड़े हुए हैं।

हद तो तब हो गई, जब राहुल गांधी ने अपने को नरेन्द्र मोदी से बेहतर हिन्दू साबित करने के लिए प्रधानमंत्री के हिन्दुत्व पर ही सवाल खड़े करना शुरू कर दिए। यानी अब जीत और हार इससे तय होगा कि कौन कितना हिन्दू है और कौन कितना हिन्दू नहीं है। यह तो अच्छा हुआ कि अपनी जाति बताते हुए राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जाति नहीं पूछी, अन्यथा कांग्रेस को लेने के देने पड़ जाते। राजस्थान में उसकी जीत की संभावना बेहद प्रबल है और मोदी की जाति का नाम पूछकर राहुल उस संभावना को ही धूमिल कर देते।

कौन पार्टी जीते और कौन पार्टी हारे, यह अलग मसला है, लेकिन पार्टियों द्वारा जनेऊ, गोत्र, मंदिर और जाति जैसे मसले को सार्वजनिक रूप से उछालना निश्चय ही भारत की धर्मनिरपेक्षता के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। यह देश की राजनीति का हिन्दुत्वकरण है और मामना पड़ेगा कि यह उनकी जीत है, जो हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देते रहे हैं। (संवाद)