मतदान खत्म होते ही शाम ढले हाॅकर्स काॅर्नर पर, मोहल्ले की चाय दुकानों पर एक ही चर्चा - क्या खबर आ रही है? यदि पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता या राजनेता का कोई ठप्पा लगा है, तो सुबह-दोपहर-शाम चार-छह काॅल इसी बात को लेकर होती है - क्या प्रदेश में भाजपा चौथी बार सरकार बनाएगी या क्या कांग्रेस का वनवास खत्म होगा या फिर फाइट कितनी टफ है? अटकलों में कूदना इंसानी फितरत है। कोई तर्क न हो, तो भी कहने में क्या जाता है? सही के नजदीक हुए तो क्या कहना और गलत हो गए तो अगर-मगर के साथ किनारे हो जाएं।

अटकल, अनुमान, आकलन, पूर्वानुमान जैसे शब्दों में बहुत बारीक अंतर है। अनुमान को हम ज्ञात के आधार पर अज्ञात का ज्ञान कह सकते हैं। आकलन में आधारयुक्त अध्ययन होता है। पूर्वानुमान में भी एक अध्ययन आधारित क्रमिकता होती है, मौसम विज्ञान में इस शब्द का सबसे ज्यादा उपयोग होता है। अटकल इन सबसे थोड़ा अलग होता है। इसका अर्थ आधारहीन अनुमान या तीर-तुक्का होता है। अटकलबाज़ को लाल बुझक्कड़ भी कह सकते हैं। यद्यपि महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन ने 1916 में एक गणितीय अटकल दिया जिसे रामानुजन् अटकल कहते हैं। मतदान और मतगणना के बीच जो कुछ बहस या विमर्श होता है, वह इन्हीं शब्दार्थों के इर्द-गिर्द होता है।

किसी ऑफिस या किसी नुक्कड़ पर कुछ लोगों की चर्चा। पहला - कांग्रेस को कितनी सीटें मिल रही हैं? दूसरा - मुकाबला बराबरी का है। कांटे की टक्कर है। कोई भी जीत सकता है। तीसरा - सरकार के प्रति नाराजगी है लोगों में। कांग्रेस 120 से 130 सीटें जीत रही है। चौथा - ऐसा कुछ नहीं होगा। कुछ सीटें कम होगी लेकिन भाजपा निकाल लेगी यह चुनाव। 120 से 130 सीटें भाजपा की होगी। पांचवां - कांग्रेस जीते या भाजपा। जो जीतेगा, इकतरफा परिणाम आएगा यानी उसे 160-170 सीटें मिलेगी। छठा - इस बार बसपा, सपा, आप, सपाक्स और निर्दलीय की पूछ-परख बढ़ेगी। जो भी सरकार बनाए, उसे इनकी मदद लेनी ही होगी। इस विमर्श का परिणाम आप तलाशेंगे, तो शून्य नजर आएगा। लेकिन परिणाम के बाद आप यह कह सकते हैं कि इस समूह की चर्चा में शामिल एक शख़्स की बात सच साबित हुई। अटकलों के कई आधार होते हैं, संभव है कि उनमें से कई आधार तर्कसंगत हो या फिर अध्ययन आधारित हो।

कई अटकलों में कांग्रेस सत्ता में वापसी कर रही है। 15 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा विधायकों के प्रति लोगों में गुस्सा है। भाजपा ने बहुत ही कम नए चेहरे उतारे हैं, इसलिए उसे हार का सामना करना पड़ेगा। वंशवाद को कोसने वाली भाजपा ने कई नेता पुत्रों और रिश्तेदारों को मैदान में उतारा है, इसलिए भाजपा कार्यकर्ताओं ने जमीनी स्तर पर भाजपा को सहयोग नहीं किया। पिछले दो सालों में हुए कई उप चुनावों में कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया है। मध्यप्रदेश के अन्नदाता यानी किसान वर्तमान सरकार से नाराज हैं, उन्हें फसल बीमा योजना या भावांतर योजना का लाभ नहीं मिला और खेती में लगातार घाटा उठाना पड़ रहा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी नहीं आई है, इसलिए महिलाएं नाराज हैं। वर्तमान केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ लोगों को नहीं मिला और नोटबंदी एवं जीएसटी से आमजन और व्यापारी परेशान हैं। युवा रोजगार के लिए भटक रहे हैं। मतदान में आशा के अनुरूप इसलिए बढ़ोतरी नहीं हो पाई, क्योंकि भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता नाराजगी के कारण वोट डालने नहीं गए और वे दूसरे दलों में वोट नहीं डालना चाहते थे। यानी नए वोटर्स का सीधा फायदा कांग्रेस को। सपाक्स का विरोध और उसका चुनाव में उतरना भाजपा के लिए नुकसानदायक हुआ है। भाजपा ने काम नहीं किया, इसलिए तो प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में विज्ञापनों का इतना ज्यादा जोर था। से ये सारे आधार कांग्रेस को जीत दिलवा रहे हैं।

इसी तरह देखा जाए, तो भाजपा की जीत के लिए भी तर्क कम नहीं हैं। भाजपा ने महिलाओं और कमजोर तबके के लिए कई योजनाएं बनाई। शिवराज सिंह चौहान आज भी सबसे ज्यादा पाॅपुलर नेता हैं। कांग्रेस में एकजुटता नहीं है और न ही उनके पास मुख्यमंत्री का घोषित चेहरा था। भाजपा ने सड़कों का जाल बिछाया है। बिजली दी है। कृषि विकास दर में बढ़ोतरी हुई है, जिसे यूपीए ने पुरस्कृत किया था। भाजपा के कार्यकर्ता नाराज थे, लेकिन सरकार बनाने के लिए वे वोट डालने में आगे रहे। वोटों का जो प्रतिशत बढ़ा है, वह भाजपा के पक्ष में गया है।

इन आधारों के साथ-साथ पत्रकारों के विश्लेषण, नेताओं के बयान, सोशल मीडिया पर इधर-उधर से आए सीटों के आकलन को लेते हुए अटकलबाज़ बहस कर रहे हैं। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग बातें। सट्टा बाजार गलत नहीं हो सकता। वह कांग्रेस को भाजपा पर बढ़त बता रहा है। इस बार सारे मंत्रियों पर हार का खतरा मंडरा रहा है। पिछली बार भी कांग्रेस को जीत बता रहे थे, लेकिन भाजपा को बड़ी जीत मिली और इस बार भी ऐसा ही होगा। भाजपा ने अपना बूथ लेवल फीडबैक ले लिया है और उस आधार पर वह 125 सीटें जीत रही है। दिग्विजय सिंह राजनीति के चाणक्य हैं और यदि वे कह रहे हैं कि कांग्रेस जीत रही है, तो मानो कांग्रेस जीत रही है। कमलनाथा ने प्रत्याशियों की बैठक बुलाई है, यानी उन्हें जीत पर पूरा भरोसा है। राजनीतिक विश्लेषण में माहिर कुछ पत्रकार भाजपा की जीत बता रहे हैं, तो भाजपा जीत रही है। कांग्रेस का खेल बसपा और सपा बिगाड़ चुकी है, इसलिए भाजपा को आसान जीत मिलेगी। सपाक्स के कारण भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। मालवा-निमाड़ को छोड़ दिया जाए, तो हर जगह से कांग्रेस जीत आगे है।

इस बार मध्यप्रदेश में मतदान और मतगणना के बीच काफी दिनों का अंतर है। इसलिए ऐसी अटकलों के लिए काफी वक्त है। वैसे भी चुनावी बुखार में इससे अलग चर्चा का विषय ढूंढ़ पाना मुश्किल है। आप भी अटकल लगाइए, किसकी कितनी सीट और किसकी सरकार। गलत हुए, तो कोई बात नहीं, बड़े-बड़े चुनावी विश्लेषक और सर्वे भी परिणाम आने के बाद फेल होते रहे हैं। (संवाद)