2-3 दिसम्बर 1984 की रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने के टैंक से रिसी 40 टन मिथाइल आयसोसायनेट यानी एम.आई.सी गैस के कारण एक ही रात में हजारों लोग मारे गए और लाखों गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार के अनुसार, कारखाने के प्रबंधन की लापरवाही और सुरक्षा के उपायों के प्रति गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये के कारण एम.आई.सी. की एक टैंक में पानी और अन्य पार्टिकल्स घुस गए, जिनकी वजह से हुई प्रतिक्रिया के कारण रिसी जहरीली गैस की चपेट में भोपाल का आधे से ज्यादा इलाका आ गया। जहरीली गैस हवा से भारी थी और भोपाल शहर के करीब 40 किलोमीटर इलाके में फैली। 56 वार्डों में से 36 वार्डों में इसका गंभीर असर हुआ। इसके असर से अब तक 20 हजार से ज़्यादा लोग मारे गए और लगभग साढ़े पांच लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। उस समय भोपाल की आबादी लगभग 9 लाख थी। यूनियन कार्बाइड कारखाने के आसपास के इलाके में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर हुआ असर भी उतना ही गंभीर था। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड उस समय यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के नियंत्रण में था जो अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, औऱ बाद में डाव केमिकल कम्पनी, यू.एस.ए. के अधीन रहा। अगस्त 2017 से डाव केमिकल कम्पनी का ई.आई डुपोंट डी नीमोर एंड कंपनी के साथ विलय हो जाने के बाद यह अब डाव-डुपोंट के अधीन है।

हादसे के 34 साल हो चुके हैं। लेकिन अभी तक न तो राज्य सरकार ने और न ही केन्द्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई समग्र आकलन करने की कोशिश की है, न ही उसके लिए कोई उपचारात्मक कदम उठाए हैं। गैस पीड़ितों को शुरू से ही लगातार स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, मुआवज़ा, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है।

गैस पीड़ितों के लिए स्वास्थ्य का मुद्दा एक गंभीर मुद्दा है। इनकी स्वास्थ्य ज़रूरतों के प्रति राज्य और केन्द्र सरकार की लापरवाही पहले की तरह ही चिंताजनक है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर भोपाल मेमोरियल एंड रिसर्च हाॅस्पिटल सहित कई अस्पताल तो खोल दिए गए हैं, लेकिन जांच, निदान, शोध और जानकारी मेंटेन करने जैसे मामलों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति बहुत ही खराब है। 34 साल बाद भी गैस से संबंधित शिकायतों के इलाज का कोई निश्चित तरीका नहीं खोजा गया है जिससे संबंधित अधिकारियों की इस मामले के प्रति उदासीनता साफ दिखायी देती है। गैस पीड़ित संगठनों के अनुसार आई.सी.एम.आर. ने भोपाल संबंधी मेडिकल जांच को 1994 में बंद कर दिया था जिसे उसे 2010 में फिर से शुरू करना पड़ा, लेकिन इसमें गंभीरता नहीं दिखाई देती। तथ्य यह है कि न तो आई.सी.एम.आर. को और न ही राज्य सरकार को यह मालूम है कि सांस के, आंखों के, पेट और आंत के, तंत्रिका-तंत्र के, मनोचिकित्सकीय व अन्य समस्याओं संबंधित किस बीमारी के कितने मरीज़ हैं।

भोपाल गैस पीड़ित परिवारों की आज स्थिति यह है कि हर कोई किसी न किसी रूप में बीमार में है, खासतौर से श्वास संबंधी रोग से। एक ओर जब पूरी दुनिया वायु प्रदूषण के कारण हवाओं में घुलती जहर से परेशान है और कई बीमारियों की आशंका से सहमे हुए हैं, तब उसी समय में भोपाल गैस पीड़ितों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन पर क्या बीत रही है। एक ओर जहरीली गैस की चपेट में सीधे आए पीड़ि़तों में स्वास्थ्य संबंधी अन्य जटिलताओं के साथ-साथ श्वास संबंधी कोई न कोई परेशानी जरूर है। दूसरी ओर पीड़ितों की अगली पीढ़ी में भी श्वास संबंधी रोगों की शिकायतें मिल रही हैं। गैस पीड़ितों का जो इलाका है, वह घनी आबादी और भारी ट्रैफिक वाला है। वहां पहले से ही मिट्टी और जल प्रदूषण से गैस पीड़ित जूझ रहे हैं। इसे लेकर कई बड़े शोध संस्थानों ने रिपोर्ट जारी की है। अब वहां वायु प्रदूषण भी गंभीर चुनौती के रूप में सामने हैं। ऐसे में पहले से ही श्वास संबंधी रोग से जूझ रहे गैस पीड़ित और उनके परिवार ज्यादा गंभीर बीमारियों को लेकर अब भी आशंकित हैं।

1969 से 1984 तक चले यूनियन कार्बाइड के कामों के कारण कारखाने के अहाते में और आसपास ज़हरीला कचरा जमा होता रहा था जिससे यहां की ज़मीन और पानी बहुत दूषित हो गया है। कारखाने में जमा 345 टन ठोस कचरे का निपटारा आज तक नहीं हो पाया है। इसके अलावा पास के एक तालाब में भी रासायनिक कचरा डंप किया जाता था, जिसे जहरीला तालाब के नाम से अब जाना जाता है। यह कचरा यहां के वायु को किस हद तक प्रदूषित करता है या फिर नहीं करता है, इसे लेकर अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन स्थानीय लोग बताते हैं कि गर्मी के दिनों में तेज हवाओं के संग अलग तरह की बदबू आती है। संभवतः यह आसपास के रासायनिक कचरों के फैले होने का कारण होता हो।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावितों की संख्या लाखों में है। जहरीली गैस के कारण श्वास संबंधी रोग से जूझ रहे पीड़ितों की रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही कम है और अब बढ़ते वायु प्रदूषण के दौर में उन्हें ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। (संवाद)