वर्तमान रूप में महिला आरक्षण इसलिए खतरनाक नहीं है कि इसके कारण पिछड़े वर्गों के सदस्य संख्या घट जाएगी बल्कि सबसे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि इससे लोकतंत्र ही कमजोर हो जाएगा। इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोघ लालू, शरद और मुलायम सिंह यादव की ओर से किया जा रहा है। वे पिछड़े वर्ग और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण के अंदी आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। उनकी इस मांग का एकमात्र उद्देश्य यही है कि महिला आरक्षण विधेयक असंभव हो जाए, क्योंकि उन्हें पता है कि महिला आरक्षण का समर्थन करने वाले दल मूल रूप से पिछड़े वर्गों के आरक्षण के विराधी रहे हैं। इसलिए जब पिछड़ों के आरक्षण की बात आएगी, तो वे महिला आरक्षण के बैनर को ही छोड़कर भाग खड़े होंगे। इसलिए विरोधियों ने एक रणनीति के तहत पिछड़ंा और मुस्लिम लाबी को खड़ा किया।
उनके विरोध का असली कारण यह है कि उन्हें लगता है कि जहां से वे चुनाव लड़कर जीतते हैं, कहीं वे सीटें ही आरक्षित न हो जाए। उसके कारण उनका सांसद बनना असंभव हो जाएगा। इस तरह वे राजनीति से बाहर हो जाएंगे, क्योंकि राजनीति के नये परिवेश में राजनीति करने के लिए सत्ता से जुड़े रहना अथवा कम से कम सांसद या विधायक बने रहना जरूरी हो गया है। यानी इस विधेयक के कारण पिछड़े वर्गों की जाति राजनीति करने वाले लोगों में अपनी भावी राजनीति को लेकर असुरक्षा का भाव पैदा हो गया है, लेकिन विरोघ करते हुए अपनी असुरक्षा भाव को गौण रखते हुए पिछड़े वर्गों और मुसलमानों का नाम लेकर महिला आरक्षण विधेयक को रोकने की कोशिश करते आ रहे हैं।
वे अबतक अपनी कोशिशों में सफल हो रहे थे, क्योंकि उनके साथ पिछड़े वर्गों और मुसलमानोे का समर्थन था और उस समर्थन के कारण उनकी पार्टी के ज्यादा लोग जीतकर आते थे। लंेकिन उन्होंने पिछड़े राजनीति का इस्तेमाल कर अपनी जाति और अपने परिवार के सशक्तिकरण का काम किया। इसलिए पिछड़े वर्गों के लोगों का उनसे मोह भंग हो चुका है और ज्यादा से ज्यादा उन्हें अपनी जाति का समर्थन ही मिल सकता है। पिछड़ों का समर्थन खोने के बाद वे कमजोर क्या हुए, मुसलमानों ने भी उन्हें छोड़ना शुरू कर दिया है। उसके बाद तो उत्तर प्रदेश में मुलायम और बिहार मे लालू की राजनीति को ग्रहण लग चुका है।
उनकी इस कमजोरी के कारण उनके पिछड़े और मुस्लिम कार्ड से अब सत्ता प्रतिष्ठान को डर नहीं लगता और यही कारण है कि उनके विरोध को दरकिनार कर महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा से पारित करा दिया गया है। लोकसभा में भी राजनैतिक पार्टियों का ज्यादा समर्थन इस विधेयक को प्राप्त है। यदि सांसदों ने व्हिप का उल्लंघन नहीं किया, तो वहां से भी पारित होने में इसे कोई समस्या नहीं होगी। सोनिया गांधी इसे पारित करने के लिए संकल्पित है। भाजपा भी इसके लिए आमादा है और वामपंथी पार्टियां भी महिला क्रांति के लिए अब और इंतजार करने को तैयार नहीं।
यानी लोकसभा और विधानसभाओं की एक तिहाई सीटों का आरक्षित होना अब लगभग तय लग रहा है। यह तो हो रहा है महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए लेकिन इससे लोकतंत्र के ही कमजोर हाने का खतरा पैदा हो गया है। यह कमजोरी का कारण महिला सांसदों की संख्या नहीं, बल्कि उन सांसदों की गुणवत्ता होगी। यदि राजनीति में मायावती, सुषमा स्वराज, ममता बनर्जी और शीला दीक्षित जैसी महिलाएं आएं तो इससे लोकतंत्र कमजोर नहीं होगा, क्योंकि वे पूरी तौर पर राजनैतिक महिलाएं हैं और राजनैतिक प्रक्रिया के तहत उत्थान और पतन के रास्ते संसद अथवा विधानसभा में पहुंचती रही है।
लेकिन अभी भी राजनीति में महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है। पार्टियों के सक्रिय कार्यकर्त्ताओं में महिलाएं मुश्किल से दिखाई देती हैं। चुनाव के पहले टिकट देते समय महिला प्रत्याशियों की कमी की पूर्ति के लिए परिवाद का सहारा लिया जाएगा। ग्लैमर की दुनिया यानी फिल्मी अभिनेत्रियों और माडलों को भी टिकट दिए जा सकते हैं। यहीं नहीं, अमीर तबके की महिलाएं राजनेताओं को पैसे देकर टिकट खरीद भी सकती है। इन सबका असर यही होगा कि गैर राजनैतिक महिलाओं को तो टिकट मिलेगा, लेकिन राजनैतिक कार्यकर्त्ता उपेक्षित महसूस करेंगे और फिर पार्टियों को राजनैतिक कार्यकर्त्ता मिलने कठिन हो जाएंगे। ये राजनैतिक कार्यकर्त्ता देश के लोकतंत्र की रीढ़ हैं। वर्तमान स्वरूप में महिला आरक्षण विधेयक लोकतंत्र की इस रीढ़ पर ही प्रहार करने वाला साबित होगा, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के पास चुनाव लड़ने वाली असल महिला कार्यकर्त्ताओं की कमी है। इस कमी की उपेक्षा करते हुए ही यह विधेयक लाया गया है। दुर्भाग्य से इस पहलू को महिला आरक्षण विधेयक के विरोधियों ने ढंग से उठाया ही नहीं।
इस आरक्षण के तहत महिलाओं के लिए आरक्षित होने वाली सीटें हमेशा के लिए निश्चित नहीं होंगी। प्रत्येक चुनाव के साथ ही आरक्षित सीटें भी बदल जाएंगी। जाहिर है जिन एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को आरक्षण मिलेगा, अगले चुनाव में वह ओपेन हो जाएगा और अन्य एक तिहाई सीटें उनके लिए आरक्षित होगी। यानी प्रत्येक चुनाव के साथ दो तिहाई सीटों की अदलाबदली का काम होगा। कहने का मतलब दो तिहाई सांसद और विधायक अगला चुनाव किसी और सीट से लडेंगे अथवा लडेंगे ही नहीं। अगला चुनाव ही उन्हें अपने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार बनाता है, लेकिन जब उन्हें अगला चुनाव अपनी पहले जीती गई सीट से लड़ना ही नहीं है, तो फिर वे अपने मतदाताओं का ख्याल क्यों करेंगे? खास तौर से शौकिया राजनीति करने वाले तो मात्र एक ही कार्यकाल के लिए राजनीति में आएंगे। राजनीति एक बदनाम शब्द है। शायद वह सांसद अथवा विघायक रहते हुए भी वे कहें कि वे राजनीतिज्ञ ही नहीं हैं।
इस तरह के प्रतिनिघि महिला ही नहीं, पुरुष भी हो सकते हैं। जिम्मेदारी का अभाव और मतदाताओं को जूते की नोक पर रखने की प्रवृति सिर्फ महिला सांसदों में ही नहीं, बल्कि पुरुष सांसदों में भी बढ़ेगी। इसलिए आरक्षण का सबसे बेहतरीन तरीका तो वह होता, जिसमें पार्टियां के टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित होते। वैसी हालत में महिला उम्मीदवार पुरुष उम्मीदवारों से चुनाव लड़ रहे होते और इसके कारण पार्टियों पर दबाव रहता कि वे पं्रशिक्षित महिला कार्यकर्त्ता चुनाव लड़ने के लिए तैयार करें। इससे महिला राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं का महत्व बढ़ता और उनका ज्यादा से ज्यादा राजनैतिककरण होता। इस व्यवस्था के तहत गैर जिम्मेदार प्रतिनिधियों की समस्या भी नहीं आती। दुर्भाग्य से महिला आरक्षण ़द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण के इस तरीके को उनमें से किसी ने भी अमल में लाने की बात नहीं उठाई, जो महिला आरक्षण की वकालत कर रहे थे। भारतीय लोकतंत्र के अराजनैतिक होने का खतरा वास्तव में बढ़ गया है। (संवाद)
भारत
खतरनाक है महिला आरक्षण
जिम्मेदार लोकतंत्र पर करारा प्रहार
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-03-10 09:35
महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा से पारित हो गया। इसे जिस तरह का समर्थन मिल रहा था, उसे देखते हुए इसे पारित होना ही था, सिर्फ केन्द्र सरकार की तरफ से राजनैतिक संकल्प दिखाए जाने की जरूरत थी। वह कमी सोनिया गांघी ने अपनी मरफ से पूरी की दी। इसका विरोध भी हुआ। लेकिन जिस मसले को लेकर इसका सबसे ज्यादा विरोध किया जाना था, उस मसले को उठाया ही नहीं गया।